Donate US$10

आध्यात्मिक अनाथ समाज, साधु बाबा गुरुचंद, और अकादमी शिक्षित गुरु का रिक्त

जिन व्यक्तियों ने छात्र जीवन में नीति(public policy), न्याय (process of justice) और नैतिकता (Conscience based reasoning) नही पढ़ी होती है, उनको इन विषयों पर बातें करने में cognitive dissonance disorder की पीड़ा होती है। ये व्यक्ति बचपन "आध्यात्मिक अनाथ"(spiritual orphan) की तरह जिये होते हैं।

ऐसे व्यकितयों से यदि बातें या तर्क करते हुए ऊपरलिखित विषयों का प्रयोग करना पड़ जाये तब उनको लगता है कि सामने वाला high moral grounds ले रहा है, वो कुछ ज़्यादा ही अपने आप को clean, higher moral standards, का समझता है ("महान" बनने की कोशिश कर रहा है) (और इस तर्क से) दूसरो को तुच्छ समझता है !

'आध्यात्मिक अनाथ' करीब पूरी आबादी है

अमेरिका मनोवैज्ञनिक इन शब्दावलियों का प्रयोग अक्सर करते हैं , जिसमे sense of coherence (बौद्धिक अनुकूलता का आभास) भी है। उनके अनुसार,इंसानो में thought disorder मनोवैज्ञानिक रोग भी होता है,इंसान को अपनी सोच में संसार, समाज समझने में दिक्कत होने लगती है।

इंसान अपनी बुद्धि का प्रयोग करते हैं संसार को समझने में, इसकी राजनीति, इनकी कुटिलता, इसमे बसे छल और भ्रम को पकड़ने में। और फिर इस बोध की मदद से इंसान संसार का सामना करते हैं,और संघर्ष करके जीवन बसर करते हैं।मगर कभीकभी जब बौद्धिकता का रोग पकड़ लेता है, thought disorder हो जाता है,

इंसान तब संसार को समझने में विफल होने लगते हैं। वो एक mental wreck सा महसूस करने लगते हैं। मेरे अनुसार भारत एक ऐसे रोगियों का देश है। हालांकि बहोत सारे लोगों ने अपनी सुविधानुसार कुछ नीति,न्याय, नैतिकता विकसित करके समाज, संसार का सामना करना सीख लिया है।

"आध्यात्मिक अनाथ" आबादी इसलिये ही साधु-बाबाओं के चक्कर में आसानी से पड़ती रहती है। हिन्दू समाज dissonance रोग से ग्रस्त समाज है, क्योंकि। साधु-बाबा लोग street-learned "गुरु चंद" लोग है समाज के। मेरे अनुुुसार साधु-बाबा "गुरु" के भक्त लोग फ़िर भी बेहतर हैं उन लोगों से जिन्होंने कोई "गुरु" नही पकड़ा है

अकादमी शिक्षित "गुरु" भारत की आबादी में बहोत कम मिलेगा। आबादी का बड़ा हिस्सा किसी राजनेता को ही अपना "आध्यात्मिक गुरु" भी मानता है। ये मोदी भक्त, अखिलेश भक्त, लालू भक्त इसी इंसानी बुद्धि की जरूरत की देन हैं। "आध्यात्मिक अनाथ" के कष्टों से मुक्ति प्राप्त करने के लिए।

सुधार की दृष्टि से मेरी पेशकश है कि-छोटे बच्चों में नहीं- बल्कि वयस्क स्तर पर अकादमी शिक्षा में नीति,न्याय और नैतिकता विषयों पर अध्ययन-पठन पर बल दिया जाने की ज़रूरत है,ताकि हिन्दू समाज को कुछ अकादमी शिक्षित गुरु भी मिले,और street learned साधु-बाबा "गुरु"(-चंद) से मुक्ति मिले

हिन्दुओं का देश क्यों सहत्र युगों से रौंदा गया है ?

 दस सदियों से हिंदुओं को रौंदा गया और ग़ुलाम बनाया गया है। क्यों? क्या वज़ह है?


A Hindu thugs but another Hindu.

एक हिन्दू दूसरे हिन्दू से ही बेईमानी करता है, झूठ बोलता है, धोखाधड़ी करता। हिंदुओं के समाज में सामाजिक न्याय नही है। आपसी विश्वास नही है। और इसलिये इतिहास में कभी भी ,(सिवाय बौद्ध अनुयायी मौर्य वंश शासकों के) हिन्दू कभी भी शक्तिशाली राजनैतिक और सैन्य शक्ति नही बन सके। 

मोदी काल में ही जीवंत उदहारण देखिये। EWS आरक्षण  कोटा तैयार करके सवर्णो को भी आरक्षण दे दिया है। और तो और गरीबी सर्वणों की गरीबी रेखा तय करि है 8 लाख रुपये सालाना !

EVM और उससे सम्बद्ध चुनावी प्रक्रिया पर अवैध, अनैतिक कब्ज़ा जमा लिया है।

न्यायलय में दशकों से सवर्णो ने अनैतिक कब्ज़ा किया हुआ था, जिसका खुलासा अब जा कर हो पा रहा है , कि जजों की नियुक्ति में क्या जातिवाद घोटाले करते आये हैं दशकों से।

मीडिया में जातिवाद का ज़हर भरा हुआ है। जनता को झूठ और गुमराह करने वाले समाचारिक ज्ञान प्रसारित हैं, विषेशतः तब जब ,जिस मामलों में  भाजपा और संघ के आदमी की गर्दन फँसी होती है।


RTI को कुचल कर रख दिया है ।अपने से सम्बंधित विषयों के प्रति पारदर्शिता नहीं रखी है , यानि खुद के घोटाले और भ्रष्टाचार उजागर न होने पाए।  जबकि किसी और के हो, तो कोई फर्क नहीं पड़ता। लालू, मुलायम और मायावती को सफलतापूर्वक भ्रष्टाचारी घोषित कर चुके हैं। लालू को जेल में तक रखा है।


राजनैतिक प्रतिद्वंदियों की जिस जिस विषयों पर आलोचना करि, खुद उससे भी बदत्तर प्रदर्शन किया है । और अपने प्रदर्शन के सत्य मापन से बचने के लिए  जनता को गुमराह करने के हथकंडे लगाये। कभी बॉलीवुड के सितारो का प्रयोग करके। कभी तो सामाजिक चिंतन को अर्थहीन विषयों में झोँक  कर -- अर्थहीन सावरकर-नेहरू-गाँधी बहस में उलझा करके। झूठे, मिथक काल्पनिक, अप्रमाणित "पुनर्लेखन" कर-करके।

समाज में देशभक्ति की लहर बजवाई,मगर गीत निजीकरण का गाया। देशवासियों को युद्ध के बादल दिखाए, मगर बादलों की आड़ में  खुद के मित्र मंडली की तिजोरियां भर दी बेशुमार दौलत से ।

देश में गरीबी, भुखमरी बढ़ी, मगर इनके सहयोगियों, मित्रों की संपत्ति की बढ़त सातों आसमानों  के आगे जा चुकी है। 

कदम कदम पर, झूठ, गुमराह, मिथक बातें जैसे अस्त्र प्रयोग किये जा रहे हैं। और तो और संवैधानिक संस्थाएं, कोर्ट, पुलिस, सीबीई , ईडी, मिलिट्री , सब के सब लपेटे में कर उनसे झूठ को सच साबित करवाया जा रहा है इतने प्रकट अनैतिक तरीकों से।
_________________________________________________________________


कोई भी समाज सशक्त तब होता है जब उनमे न्याय का  निवास आता है। क्योंकि न्याय में से आपसी विश्वास का जन्म होता है, जो लोगों को आपस में बांधता हैं।

और, समाज में न्याय के निवास में अड़ंगा कैसे होता है?
जब  किसी भी समाज के आधारभूत धर्म में दोहरी नैतिकता का प्रसार होता है, तो उन दोहरी नैतिकताओं में से दोहरे न्याय निकलते है। दोहरे न्याय ही पाखंड होते हैं। 

मतलब, कोई भी समाज जब दोहरी नैतिकताओं से से मुक्ति प्राप्त करते है, तब ही जा कर वो सशक्त राजनैतिक, आर्थिक और सैन्य शक्ति बनते हैं। 
किसी कूटनीतिज्ञ आह्वाहन से कभी भी कोई भी समाज न तो संघठित हुआ है, और न ही हो सकता है। (किताबो में , कहानियों में , पंचतंत्र वाले "लकड़ी के गट्ठे" या "कबूतर और बहेलिया का जाल" वाले किस्से पढ़ा-पढ़ा कर कोई भी समाज संघठित आज तक नही किया जा सका है। शिक्षा या स्कूली पाठ्यक्रमों में छेड़छाड़ कर के, छोटे अबोध बालकों को "राष्ट्रभक्ति" का injection  लगवा कर राष्ट्रभक्त जनता पैदा नहीं करि जा सकती है।  )

हिन्दू समाज स्वभाविक तौर पर दोहरी नैतिकताओं का समाज रहा है। आदिकाल से। मोदी राज उसी परिपाटी को  चला रहा है। हिन्दू नैतिकता को बनाने का ठेका स्वघोषित तरीके से ब्राह्मणों ने उठा रखा है।  ब्राह्मण तर्कों की शुद्धता में परिपक़्व नहीं होता है। 

देश इसलिये आक्रमणकारियों से युद्ध नहीं हार जाया करते हैं क्योंकि चंद गद्दार, देशद्रोही शत्रुओं के संग जा मिलते हैं, और उन्हें घर के भेद बता देते हैं। देश इसलिये युद्ध हारते हैं क्योंकि उनका राजा धर्म और नैतिकता का पालन नही करता है, और फिर  असंतुष्ट समूहों को जन्म देता है। रावण ने नैतिकता नही निभाई तब विभीषण असंतुष्ट हुआ। पृथ्वीराज चौहान ने संघमित्रा का अपहरण किया तब जयचंद का जन्म हुआ है। धर्म (सामाजिक नीति के अर्थ में)  को निभाना राजा के लिए प्रधान होता है।

भारत भूमि के सांस्कृतिक इतिहास में धर्म को बारबार दुरपयोग होते देखा जा सकता है,-- धंधे , व्यापार का अस्त्र बनते हुए, जनसमुदाय को गुमराह करने का अस्त्र बनते हुए, सामाजिक अन्याय और ऊँच-नीच, भेदभाव को प्रसारित करते हुए।

अतीत काल में भी शायद ऐसी वजह वो वास्तविक कारण रहे हैं कि क्यों ये देश रौंदा गया है।

"Market पैदा करना" का क्या अभिप्राय होता है

Gym खोलने बनाम Library खोलने के तर्क वाद में आयी एक बात "मार्केट पैदा करो" का अर्थ ये कतई नही होता है कि पेट से पैदा करके लाएंगे ग्राहकों को library के सदस्य बनने के लिए।

"Market पैदा करो" का अभिप्राय क्या हुआ, फ़िर?

आज जब gym का business करना जो इतना आसान दिखाई पड़ रहा है, सत्य ज्ञान ये है कि आज से पच्चीस सालों पहले ये भी कोई इतना आसान नही था। क्यों? तब क्या था? और फ़िर ये सब बदल कैसे गया? आखिर में gym की सदस्यता के लिए "मार्केट कहां से पैदा" हो कर आ गया है?

पच्चीस साल पहले लोग (और समाज) ये सोचता था कि ये सब gym और खेल कूद करके बच्चे बर्बाद ही बनते है। बॉडी बना कर बच्चा क्या करेगा? गुंडागर्दी? वसूली? सेना में जायेगा? या कुश्ती लड़ कर फिर क्या करेगा?  Gym में तो बस मोहल्ले के मवाली, आवारा लौंडे ही जाया करते थे, जिनसे सभ्य आदमियों को डर लगता था। gym के बाहर में ऐसे ही लौंडे bikes पर बैठे हुए जमघट लगाये रहते थे। तब दूर दूर तक के इलाको में जा कर एक आध ही gym मिलता था।

फ़िर ये सब बदला कैसे? यही बदलाव की कहानी ही है "market पैदा करने" की कहानी । ये सामाजिक छवि बदली है फिल्मों से, अखबारों में प्रकाशित "लोगों से लोगों की ही शिकायत करने वाले" लेखों से। advertisement से, लड़कियों को gym करते हुए ads ,  फ़िल्म, - सामाजिक चलन को बदल देने वाले हालातों से, जो कि किसी प्रयत्क्ष , प्रकट षड्यंत्र के अधीन तो नही चलाये गये, मगर फिर भी, किसी सोची-समझी बहती हुई शक्ति के आवेश में समाज को आ जाने से खुद ब खुद ऐसा होता चला गया है।

जब कोई सोची समझी सोच, बार बार कहीं किसी रूप में प्रकट हो कर समाज की सोच पर चोट करने की बजाये , एक नयी धारा की सोच डालने लगती है तब कुछ दशकों के समय में समाज की सोच बदल जाती है।

Diamonds के मामले में यही काम de beers corporation ने कभी किसी जमाने में किया था। इसके लिए ही उन्हीने कभी diamonds बेचने का सीधा प्रचार नही किया। लोग और समाज सोचता था कि आखिर diamonds का करेगा क्या? उससे पेट नही भर सकता, उससे घर नही बना सकता, उससे पूरा शरीर नही ढक सकता है। diamonds एक दम बेकार का सामान था। लोग diamonds को precious नहीं मानते थे!!

De beers ने लोगों की सोच कैसे बदल दी? Diamonds की जन छवि बदला कर precious होने की कैसे बना दी? और अपने diamonds के लिए Market कैसे पैदा कर दिया?

De beers ने लेखक, कहानीकारों, फिल्मकारों का सहयोग लिया - मगर कोई ad बनाने के लिए नही ! ऐसी फिल्मे बनाने के लिए जिनमे कोई money heist का रोमांचक किस्सा हो। कोई जबर्दस्त diamond की चोरी करने वाला hero हो, या villain हो जिसे एक हीरो police वाले ने कैसे पकड़ा हो। ये फिल्मे और कहानियाँ दर्शकों को निरंतर अवचेतना में (subconscious mind में) बात को जमती रही की diamond वाकई में precious होता है।

De beers ने सोची समझी साज़िश के तहत कभी भी diamonds को बेचने का ad नही किया। उसने लोगों का बस इतना बताया किया diamonds are precious। मगर ये भी सीधे शब्दों में कभी नही कहा ! बल्कि किस्से, कहानी और फिल्मों में छिपा कर ऐसा ही दिखवाया! यानी sponsor किया ऐसे लोगों को जो ऐसे विचारो पर कार्य करके अपना योगदान दे रहे हो !

ये होता है "market पैदा कर देना"

Gym के मामले में ये काम पिछले 20 सालों में काफी हद तक हो चुका है। 
Library जो किताबो से सुसज्जित हों, न कि केवल study centre की तरह वाली, इस क्षेत्र में अभी भी vacuum (रिक्त) है।


Featured Post

नौकरशाही की चारित्रिक पहचान क्या होती है?

भले ही आप उन्हें सूट ,टाई और चमकते बूटों  में देख कर चंकचौध हो जाते हो, और उनकी प्रवेश परीक्षा की कठिनता के चलते आप पहले से ही उनके प्रति नत...

Other posts