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Not everybody is comfortable knowing the truth

Not everybody is comfortable living life while knowing the Truth. It is because Truth has different derivations, different meanings in different context. It's here I figure out that the Truth is a small, narrow and a focused description of a larger form of behaviour , called the Fair-minded-ness. Fair-minded-ness correlates with the IQ, the analytical ability of Human mind. The higher the analytical mind, the higher is the Fair-minded-ness. There is a misconception amongst people who see 'street smart' chirps as the mark of intelligence. In truth, it is not. As one unravels the links between Intelligence, Intellectualism and Wisdom , the analytical ability emerges as the thread which connects one with another. it is this ability which is generated from the quality of empathy, explains how the Fair-minded-ness is a significant trait of higher skilled analytical brains. The higher IQ are capable of perceiving the different aspects of a problem by their Imagination skills itself, without having to physically change their side to see by their eyes. Isn't it quite similar to a highly evolved form of the quality of empathy ?? And what is the result of a higher empathy In a person? One who can perceive the effect of one's actions on other's without having to live like that other. Lacking in the empathy, further, is a sure connect for certain psychiatric problems too.
   Do we still not perceive the inter-connection ?
    The value of Truth , therefore, is a function of brain. The higher the abilities of brain, the closer he can obtain (=seek) the value of Truth for various circumstances surrounding him. Inferior brains are as much far removed from the truth.
Since the brain abilities are not of homogeneous level in a vast country as India, the comfort level of accepting the Truth is as much different for different people.The 'benarasi thugs' and the 'benarasi sadhu' represent the two extreme abilities of human brain present in the same and one species called the humans.
Truth is sometimes derived from the conscitiousness- The divinely ability of human brain to know the right from the wrong. conscitiousness can be best handled through Stoicism- stripping oneself off his emotions. But how soulless does the life become when deprived of the emotions. Not everybody can renounce - their worldly affairs. Emotion contain in them the human emotions of prejudices , the ill-will, the jealousy and the revenge. These hyper emotions produced in the absence of Empathy.
Those people who can exercise Conscitiousness, the divinely ability of brain to know the right from the wrong, but cannot turn to renunciation, and the Stoicism, are also not capable of living with the Truth. The conscitiousness is then suppressed ,so to seek pleasure; to derive pleasure even through those emotions which are negative and produced in the absence of Empathy.

Those people who cannot live with the truth, and the conscitiousness cannot be said to be at faults. But yes, they truely are living a life at a lesser quality level than the truth-seekers. These people make their surrounding susceptible to human vices, of greed , corruption and other social ills.

अब और कितने पतन की और जायेंगे हम /

खुर्शीद सही कहते हैं : "इस हमाम में तो सब नंगे हैं "|
  क्या नेता , क्या अभिनेता , क्या क्रिकेट खिलाडी , क्या दर्शक , क्या साधू बाबा , और क्या तांत्रिक योगी बाबा , क्या जज और क्या मुजरिम , क्या पत्रकार , और क्या भावी प्रधानमंत्री, और क्या आम आदमी  -- यह भारत नमक देश एक ऐसी सभ्यता बन गयी है जो एक 'नंगा हमाम' की तरह ही है | मानो की जैसे भारतीय सभ्यता ख़त्म ही हो चुकी हो |
   यह वो देश नहीं रह गया है जहाँ सभ्यता का विकास यहाँ की कला, विज्ञानं ,सत्य . धर्म और न्याय की खोज को एक शिखर की और अग्रसर करे , जहाँ सभ्यता विक्सित हो और प्रफ्फुलित हो| यह पतन और खात्मे की कगार पर खडी एक सभ्यता है जो की फिर किसी विदेशी ताकत के आधीन होने के लिए तत्पर है |यहाँ लोग सिर्फ हमाम में ही नंगे नहीं होते, अब तो महफिलों और शासन के गलियारों में भी नंगे लोग पहुच चुके हैं| यहाँ जन-विश्वास पारदर्शिता के द्वारा नहीं , गोपनीयता में दूंढा जाता है | यहाँ शक्ति ने धर्म को अपने आधीन कर लिया है | यह धर्म का अर्थ सत्य और न्याय से नहीं , शक्ति के उपयोग से तय किया जाता है | लोकप्रियता का अर्थ फिल्मी सितारा की प्रसिद्धि हो गया है , और फिल्मी प्रसिद्धि से प्राप्त शासन शक्ति से देश चलाया जाता है |  जागृति का अर्थ हो गया है विज्ञापन प्रचार , और विज्ञापन प्रचार में कलात्मक स्वतंत्रता  होती है जो की कल्पनाओं को जीवंत करने का माधयम है | अंत में विज्ञापन प्रचार से एक काल्पनिक जगत में जनता की "जागृती " कर दी जाती है , अर्थात जनता को एक सामूहिक मुर्खता में प्रक्षेपित कर दिया जाता है |
   यहाँ अन्ना और अरविन्द भरे हमाम में जनता को "भटकाने " का काम साध रहे होते है , क्योंकि यह पर्सर्शिता की मान करते है | महफ़िलो के नंगे घूम रहे इंसानों को पारदर्शिता में हमाम की नन्गता का भय सताता है|

भाग 2 : पश्चिम का 'सेकुलरिज्म' और भारत का 'सेकुलरिज्म'

       पश्चिमी देशों में प्रयुक्त 'सेकुलरिज्म' , इधर भारत में अभ्युक्त सेकुलरिज्म से और भी कई मायनों में अलग है | वहां के मुख्य ईश पंथ, Protestantism में ही सेकुलरिज्म के वो बीज हैं जो समूची सभ्यता को स्वतंत्र-अभिव्यक्ति  को प्रयुक्त करने का रास्ता खोलते हैं| ऐसे में सेकुलरिज्म प्रजातंत्र से गठ-जोड़ कर कर लेता है , क्योंकि स्वतंत्र-अभिव्यक्ति प्रजातंत्र का मूल स्तम्भ है | और फिर सेकुलरिज्म खुद भी प्रजातंत्र का एक भौतिक गुण बन जाता है | Protestantism में मनुष्य और उसके इश्वर के बीच में नए सम्बन्ध, स्वतंत्र और व्यक्तिगत संपर्क माध्यम के चलते वहां का प्रत्येक व्यक्ति अपने आस-पास, बगल में किसी भी दूसरे विचार के व्यक्ति को खुल के रहने की आजादी देता है | इसमें नास्तिकता और वैज्ञानिकता के विचार वाले व्यक्ति भी शामिल हैं,जो की बिना सेकुलरिज्म के विधर्मी  (heresy) और ईश निनादायी (blasphemes) सुनाई देने लगेंगे |
       इधर भारत में सेकुलरिज्म को हिन्दू-मुस्लिम राजनैतिक एकता में देखा जाने लगा है | एक धर्म का हो कर दूसरे के वस्त्र पहन लेना , दूसरे की भाषा बोलना, दूसरे धर्म के व्यक्ति से शादी करना , इस दूसरे के त्यौहार में व्यंजन खाना, शुभकामनाएं देना -- यह सब "सेकुलरिज्म" के कर्म काण्ड माने जाते है | मगर इसमें कहीं भी सत्यता , वैज्ञानिकता , और स्वतंत्र-विचार के लिए जगह नहीं है | साहित्य , फिल्में, कला, इत्यादि पर "भावनायों को आहत किया " के नाम पर पाबंदी लग जाना, और  सांप्रदायिक झगड़े, दंगे , कट्टर पंथता -- यह सब भारत में आम घटनाएं है |  गहराई से विचार करें तब लगेगा की "भावनायों को आहत होना " का व्यवधान तो वही कैथोलिक विचारधारा वाले विधर्म और ईशनिंदा के आरोपों के समकक्ष है, बस नाम बदल लिया है |  Protestant सेकुलरिज्म में इस प्रकार के आरोप ही खुद अवैधानिक होते है |
          एक दूर के तर्क से भारत में जिन क्रियाओं को सेकुलरिज्म का सूचक मान लिया गया है, वह इतने गलत तो नहीं है -- क्योंकि , जब हम किसी के विचारों से सहमत होते है तब ही तो उसकी भाषा को स्वीकारते हैं, या शादी के सम्बन्ध बनाते हैं -- मगर असल में हम मात्र सूचक से काम चला लेते हैं, भ्रमित हो जाते हैं-- वास्तविक गुण को भुला बैठते हैं | हमारी मौजूदा सभ्यता में एक छिछला-पन है , एक पाखण्ड हैं , --जो हमारी भ्रमित बौधिक विकास , और हमारी आस-पास की सभ्यता के कारणों से स्वतः उत्पन्न होता है | हम सूचक को ही गुण मान लेने की भूल कर देते हैं , या फिर सूचक को प्रमाण मान लेते हैं |
   प्रजातंत्र में स्वतंत्र-अभिव्यक्ति को मूल गुण माना गया है | स्वतंत्रता और अधिकार एक-समान विचार नहीं है | स्वतंत्रता तब है जो कोई नियंत्रण करने वाली संस्था है ही नहीं,- जब सिर्फ प्रकृति ही एक कारक और नियंत्रक होती है ; अधिकार तब अस्तित्व में आते है जब कोई नियंत्रण संस्था स्थापित होती है -- जो अधिकार प्रदान करने अथवा नहीं प्रदान करने का निर्णय लेती है | प्रजातंत्र में राज्य शासन , अथवा सरकार , एक संस्था होती है -- मगर इसके कार्य दो लोगों की स्वतंत्रता में उत्पन्न टकराव को रोकने के होते हैं, प्रत्येक व्यक्तियों को कुछ करने अथवा न करने के अधिकार देने का नहीं | संविधान में दिए गए मूल-भूत स्वतंत्रता राज्य-शाशन के आधीन नहीं होते | न ही वह किसी उत्तरदायित्व, किसी कर्तव्यों के प्रतिफल होते है | अधिकारों को अक्सर कर्तव्यों और उत्तरदायित्व के प्रतिफल के रूप में देखा जाता है |
   
 
 
         
 

पश्चिम का 'सेकुलरिज्म' और भारत के 'सेकुलरिज्म'

पश्चिमी यूरोप और उतरी अमेरिका का सेकुलरिज्म (Secularism, = धर्म निरपेक्षता ) भारतीय प्रसंग की धर्म-निरपेक्षता से कैसे भिन्न है यह समझने के लिए हमे इन पश्चिमी यूरोपीय देशों के सांस्कृतिक इतिहास को समझना होगा जहाँ से प्रजातंत्र और सेकुलरिज्म , दोनों का ही जन्म हुआ है |
     सेकुलरिज्म के इस प्रसंग की कहानी हम पश्चमी यूरोप के मुख्य धर्म , इसाई धर्म, को सेकुलरिज्म की उत्त्पत्ति की इस कहानी मध्य में रख कर समझ सकते हैं | सोलहवी शताब्दी के युग तक इसाई धर्म का केन्द्रीय गढ वैटिकन चर्च था , जो की इटली की राजधानी रोम के मध्य में स्थित एक स्वतंत्र धर्म-राज्य है | इस चर्च के अनुपालकों को रोमन कैथोलिक , या सिर्फ कथोलिक , कह कर बुलाया जाता है | सोलहवी शताब्दी तक इसाई धर्म में पादरियों और चर्चो की आम ईसाईयों की ज़िन्दगी में हस्तक्षेप बहुत चरम पर था | उस समय की मान्यताओं के अनुसार वह इंसानों को अपनी समझ और अपनी राजनैतिक सुविधा के अनुसार कभी भी सजा दिया करते थे | यह याद रखना ज़रूरी होगा की तब विज्ञानं का करीब-करीब न के बराबर प्रसार था | इस लिए तत्कालीन विज्ञानियों का कथन तो एक ईशनिंदा (blasphemy) और अपवादी भाषा (heresy) की तरह देखा जाता था और सजा दी जाती थी | कॉपरनिकस की जीवन गाथा तो इस कड़ी में एक इतिहास के रूप में दर्ज है की कैसी यातनाओं से गुज़र के वैज्ञानिक विचार धाराओं ने यह आज का मुकाम हासिल किया है |
    बरहाल , तत्कालीन जर्मनी में जन्मे एक विचारक , मार्टिन लुथेर किंग , का स्मरण करना ज़रूरी होगा क्योंकि उनके विचारों ने आम इंसानों को पादरियों और चर्च की इस प्रभुसत्ता से मुक्ति दिलाने में योगदान दिया था | यह सहज ही बोध जाना चाहिए की मार्टिन लुथेर खुद तो एक कैथोलिक ही थे, हालाँकि उनके विचारों से जो नया इसाई पंथ निकला वह "प्रोटेस्टेंट" (Protestant ,= विरोध-वादी पंथ ) कहलाया | मार्टिन लुथेर किंग को खुद तत्कालीन रोमन चर्च (वैटिकन चर्च ) से बहुत यातनायें(harassment) और उत्पीडन (persecution) झेलना पड़ा था | स्थापित रोमन चर्च के विरोध में दिए गए विचारों के चलते इस नए पंथ को इतिहासकार और समाजशात्री 'विरोध-वादी पंथ ' यानि Protestantism कह कर बुलाते हैं | आरम्भ में Protestantism कोई इतना राजनैतिक तौर पर सक्षम नहीं था , हालाँकि आम लोगों में यह बहोत प्रसर रहा था | कैथोलिक और Protestantism में एक राजनैतिक और विचारधाराओं की जंग शुरू हो चुकी थी | Protestantism का सबसे सक्षम विचार यह था की वह मनुष्य और इश्वर के बीच में एक सीधा सम्बन्ध स्थापित करने पर बल देता था | इस नए सम्बन्ध में पादरियों और चर्चो के लिए कोई स्थान नहीं रह गया था | ज़ाहिर है की इस विचार के प्रसर जाने से पादरियों और चर्चों की प्रभुसत्ता ख़त्म हो जाने का भय था | कैथोलिक विचारधारा में मनुष्य और इश्वर में परोक्ष सम्बन्ध(Indirect relationship) ,मालिक-और-ग़ुलाम का सम्बन्ध, माना गया था , जिसमे की मनुष्य को इश्वर ने अपनी आराधना करने के लिए बनाया था | इस विचार के चलते इश्वर की मध्यस्थता करने वालों को काफी राजनैतिक सत्ता प्राप्त थी, क्योंकि वह इस बहाने इंसान से अपनी गुलामी करवा सकते थे | protestantism में एक प्रत्यक्ष सम्बन्ध (Direct relationship) , मनुष्य-और-इश्वर के मध्य में , के चलते अब मनुष्य इश्वर को अपने जनक , अपने सखा , मित्र या किसी भी रूप में समझ कर सीधा संपर्क रख सकता था | यानि protestantism में अब नास्तिकता और विज्ञानं-वादियों को भी एक स्थान मिल रहा था अपने विचारों को पूरी स्वतंत्रता से कहने का |
        कैथोलिक और protestantism की इस जंग में एक महत्वपूर्ण मुकाम तब आया जब इंग्लेंड में एलिज़ाबेथ (प्रथम) महारानी बनी थी | एलिज़ाबेथ-प्रथम एक protestantism पंथ की अनुपालक थी और एक आकास्मक घटनाक्रम के चलते महारानी नियुक्त हो गयीं थी | उनके व्यक्तिगत जीवन से सम्बंधित एक हॉलीवुड पिक्चर सन १९९८ में आई थी जिसे की भारतीय सिनेमाकार श्री शेखर कपूर ने भी निर्देशित किया था | फ़िल्म में वेशभूषा के उचित प्रयोग के लिए इस फ़िल्म को अकादेमी अवार्ड से भी नवाज़ा गया था | एलिज़ाबेथ के युग में protestant अनुपालकों ने इंग्लॅण्ड में दुनिया भर के protestants के लिए एक नया केन्द्रीय चर्च स्थापित किया जो की "चर्च आफ इंग्लैंड" (Church of England) नाम से जाना जाता है | यह चर्च रोमन वैटिकन चर्च से सरोकार नहीं रखता है , हालाँकि दोनों में एक दूसरे के लिए कोई पाबंदी नहीं है | एलिज़ाबेथ प्रथम के युग से इंग्लैंड में यह कानून बना दिया गया था की उनके उपरान्त वहां के शासक को चर्च ऑफ़ इंग्लैंड का अनुपालक होना ज़रूरी होगा , यानी की एक protestant होना ही होगा | तब से लेकर आज तक इंग्लैंड में protestant ही शासकीय सत्ता में रहे हैं | अभी 23 अप्रैल 2013 को ही UK की संसद ने अपने इस पुराने कानून में संशोधन कर के कैथोलिक विचारधाराओं के राजशाही सदस्यों के लिए अब फिर शासक बन सकने के द्वार खोले हैं | मगर स्वीडन और नॉर्वे पश्चिमी यूरोप के दो उदहारण अभी भी हैं जहाँ सिर्फ protestant राजशाही ही शासक बन सकते हैं, कैथोलिक राजशाही नहीं |
       वैटिकन चर्च के विचारों में भी इस बीते युगों में बहोत बदलाव हुआ है | वैटिकन चर्च में अभी पिछले पोप , जोसफ स्टेंगल , वह प्रथम पोप थे जो की जर्मनी में जन्मे थे और पोप की गद्दी पर आसीन हुए | मार्टिन लुथेर किंग के उपरान्त किसी जर्मन का पोप बन जाना इतिहास कारों और समज्शात्रियों के लिए एक बड़ी घटना थी | यह वैटिकन चर्च के अन्दर विचारों में आये बदलाव का सूचक थी | पोप ने २३ फ़रवरी २०१३ को स्वेच्छा से अपना आसन त्याग दिया था , जो फिर एक एतिहासिक घटना थी क्योंकि इससे पहले किसी भी पोप ने अपना आसन नहीं त्यागा था | पोप ने जाते-जाते अपने अभिभाषण में कहा था की वैटिकन चर्च अपने कर्तव्यों को निभाता रहेगा की मनुष्यों के सामने आने वाले सवालों का और चुनौतियों का समाधान दूंढना चर्च का कर्त्तव्य रहेगा| यह विचार अपने आप में एक कौतूहल का विचार था , क्योंकि इससे पहले protestant वर्ग में यह मान्यता थी की वैटिकन चर्च इंसानी जिज्ञासा को दबाते हैं, बढ़ाते नहीं | वैज्ञानिक विचारकों के प्रति रोमन कैथोलिक के सलूक के चलती ऐसी मान्यता बनी थी |
      protestant धर्म-पंथ में नास्तिकता और वैज्ञानिक विचारधाराओं की बहोत बल मिला , जिसके चलते पश्चिमी यूरोप और उत्तरी अमेरिका के देश वैज्ञानिक और तकनीकी रूप में बहोत सफल रहे हैं | और शायद यही वह कारण है की यहाँ प्रजातंत्र और सेकुलरिज्म दोनों ही पनप रहें और सफल हुए हैं | इनकी ही इस सफलता से प्रभावित हो कर कई सरे नए उपजे देशों ने प्रजातंत्र और सेकुलरिज्म को अपना तो लिए , मगर वो कहते हैं न -- "नक़ल के लिए भी अकल चाहिए"-- तो अकल की कमी रह गयी | भारतीय संसद में सेकुलरिज्म का उच्चारण "सर्व धर्म संभव " कर के किया गया था | शायद इसलिए क्योंकि एक औसत भारतीय सांसद नास्तिकता और वैज्ञानिकता दोनों से ही तनिक भी सम्बन्ध नहीं रखता | इस लिए "सेकुलरिज्म" यहाँ कर्म-काण्ड धर्म से मुक्ति दिलाने की बजाये हमे और अधिक धर्म-पालक होने की सीख देता है | और जब दो या अधिक कर्म-कांडी धर्म की मान्यताएं आपस में टकराती है तब यह सेकुलरिज्म राजनीती(= छल बाज़ी वाली कूटनीति) करने का मौका भी खूब देता है | इस पूरी प्रक्रिया को समाज शास्त्री "स्यूडो सेकुलरिज्म" कहते हैं, यानि के भ्रम-कारी , छल करने वाला 'सेकुलरिज्म' | भारत में धर्म की मान्यताएं यहाँ विज्ञानं की उपलब्धियों को "प्राचीन धर्म-ग्रंथो की देन" कह कर आम जनता को दिखलाते हैं |
      एक गौर से देखने वाला विचार यह है की भारत में ब्राह्मण जाती-वर्ग का सामाजिक तौर पर सत्तारुद होना पश्चिम यूरोप में सोलहवी शताब्दी और उससे पूर्व घटे पादरियों और चर्चों की प्रभुसत्ता के समतुल्य माना जा सकता है | भारत में "मनु -विरोधी" आन्दोलन और उनका राजनैतिक पार्टी के माध्यम से सत्ता में आने का प्रयोग अभी तक चल रहा है | मगर सेकुलरिज्म के विचार को सही तरीके से समझ सकने का कार्य अभी तक सिद्ध नहीं हुआ है | यह शायद इसलिए क्योंकि की जाती-आधारित रोज़गार आरक्षण के माध्यम से "ब्राह्मण विरोधी विचारधारा", और धर्मनिरपेक्षता की मौजूदा जन-जागृती--- दोनों ही मौजूदा संवैधानिक व्यवस्था में तमाम राजनैतिक पार्टियों को सत्ता-रूद होने का साधन बन चुके हैं |

तो सीबीआई के निर्माण से हुआ है भारत मुर्ख-तंत्र का निर्माण !

एटोर्नी जनरल, ज़ी ई वाहनवती जी ने CBI से सम्बंधित फैसले पर सर्वोच्च न्यायलय में अपनी दलील दे कर फिलहाल के लिए स्टे आर्डर ("ठहरना" का आदेश ) प्राप्त कर लिया है | यह ज़रूरी भी है क्योंकि जैसा की उन्होंने अपनी दलील में कहा -- सीबीआई आज एक ६००० से भी अधिक लोगों से सुसजित संस्था है , जो की आज भी १००० से भी अधिक केस को जांच कर रही है | गुवाहाटी हाई कोर्ट के फैसले यह सब के सब , और करीब ९००० फैसले प्रभावित होंगे |
    एटोर्नी जनरल जी का मुख्य नजरिया यह है की गुवाहाटी हाई कोर्ट ने जो प्रश्न किया था वोह ही गलत था, फिर उन्होंने एक त्रुटिपूर्ण आधार से आंकलन किया , और एक त्रुटिपूर्ण समाधान प्राप्त किया . जो की उनका फैसला बन गया |
     भारतीय मूर्ख्तंत्र की दिक्कत यह है की हमारा मीडिया भी तर्क, वाद-विवाद को सही से समाचार में कभी दिखाते ही नहीं है | उनको तो बस भाषणों को दिखाने की लत लग चुकी है और तर्क, वाद-विवाद तो खुद उनके भी मस्तिष्क में घुसता नहीं है , इसको समाचार में दिखाने की आवश्यकता इनके सहज बोद्ध में नहीं आने वाली| यह क्या जन -जागृती लायेंगे | दिक्कत यह है की जनता का विधि -विधान , नियमो के प्रति इसी अज्ञानता का लाभ उठाया गया है , और देश की सरकार ने ही सीबीआई बनाने वाले इस मुर्खता पूर्ण तरीके की ५० सालों में किसी को खबर ही नहीं लगने दी|
     DSPE एक्ट कोई 7 सेक्शन वाला एक छोटा सा एक्ट है , जो मैंने खुद ही इन्टरनेट से डाउनलोड कर के पढ़ा | यह इतना संक्षिप्त है की एक या दो A4 साइज़ पेपर पर ही उतारा जा सकता | यह तो विवाद के परे है की आजादी से पहले का बना यह एक्ट मात्र दिल्ली पुलिस के स्थापन के लिए ही बना था , और केवल केंद्र शासित प्रदेशों के लिए| अब इस एक्ट में बनने वाली पुलिस संस्था का नाम भी तय था की वह दिल्ली पुलिस कही जाएगी | सीबीआई या इस तरह की कोई अन्य संस्था का इसमें कोई नाम या कल्पना भी नहीं थी | हाँ , इसके सेक्शन 2 में यह अधिकार दिए गए थे की किसी खास केस के लिए दिल्ली पुलिस अपनी सुविधा के अनुसार किसी अन्य व्यक्ति को भी पुलिस बना कर उसको पुलिस के सारे अधिकारों से सुसजित कर सकती है , उस ख़ास केस की जांच के लिए |
    अब प्रश्न उठता है की इस सेक्शन 2 का उच्चारण कर के 1 अप्रैल १९६३ को सीबीआई कैसे बना दी गयी | साधारण समझ से सीबीआई आज एक वाकई में बहोत बड़ी संस्था है , और ऐसे में ज़ाहिर है की इस बड़ी और ताकतवर संस्था को बनाने के लिए देश की किसी न किसी विधेयक-पालिका को कोई विधान पारित कर के ही इसे बनाना चाहिए था , जिसके दौरान हुए तर्क और वाद-विवाद में ही सीबीआई की स्वतंत्रता , उसकी नियुक्तियों और उसकी आर्थिक स्वतंत्रता को विधिवत कर दिया गया होता| मगर ऐसा नहीं हुआ , और अब इसके बचाव में सीबीआई के अस्तित्व का विधेयक यह DSPE एक्ट का सेक्शन 2 माना जाने लगा है |
delegation of power प्रशासनिक विषयों में एक सन्दर्भ होता है जब हम किसी को अपने अधिकारों से सुसजित कर के कार्य करने का आहवाहन करते है | ऐसे में हम उसे अपने कई सरे अधिकार देते है , सारे अधिकार नहीं, जो की प्राकृतिक ज्ञान से स्पष्ट हो जाना चाहिए | हम खुद अपने कर्तव्यों से विमुख होने के लिए किसी को अपने अधिकार नहीं देते, वरन हमारी अनुपस्थिति में कार्य में बाँधा न आये इस लिए ही अपने अधिकारों को किसी अन्य को प्रस्तावित करते है | ज़ाहिर है, ऐसा करने में किसी की भी मंशा यह नहीं होती की वह खुद कर्तव्य विमुक्त हो जाये , और उसके व्यक्तिगत कार्य भी यह नया व्यक्ति ही देखने लगे |
     तब क्या DSPE एक्ट के सेक्शन 2 का निर्माण विधेयक पालिका ने अपने कर्तव्यों से विमुक्त होने के लिए किया था , की 1 अप्रैल सन १९६३ को इसके प्रयोग से एक पूरी पूरी नयी संस्था सीबीआई बना दी गयी , जो की आज देश के लिए एक बड़ा सवाल तक बनी हुयी है ! DSPE एक्ट क्या किसी सरकारी कर्मचारी को यह हक देने के लिए बना था की जब चाहो एक नयी संस्था बना कर किसी भी राजनेता की , देश के किसी भी राज्य में जांच कर लेना !
       इस के उत्तर में भारत सरकार का तर्क है की सन १९६३ में ही गृह मंत्रालय के एक तत्कालीन resolution (संकल्प) ने उस समय के सरकारी मुलाज़िमो को कुछ समय के लिए यह अधिकार दिया था की वह कुछ ऐसा कर सके ( सन १९६३ के इस resolution को मैंने अभी न ही प्राप्त किया है , न ही पढ़ा है ) | मगर गुवाहाटी हाई कोर्ट ने अपने फैसले में यह ज़रूर कहा है की सन १९६३ का गृह मंत्रालय का resolution भी स्वयं न ही किसी विधेयक पालिका से पारित था , और न ही इस पर राष्ट्रपति के हस्ताक्षर थे ! तब यह resolution भी किसने बनाया था, यह वैध है या अवैध - यह स्वयं भी संदेह के घेरे में है |
      तो इस तरह से बनी देश की यह सर्वोच्च जांच संस्था |श्री आशीष खेतान , टीवी पर आने वाले एक जाने माने समाज सेवा कर्ता , के अनुसार देश की दूसरी जांच संस्थाओं जिसमे की intelligence bureau भी अत है , सभी के निर्माण में यह खामियां है | यानि यह सब की सब अवैध तरीके से ही निर्मित करी गयीं है , और इसलिए यह राजनैतिक दुरूपयोग का साधन बनी है |
       अटॉर्नी जनरल जी का कहना है की यदि सीबीआई के निर्माण के केस में गुवाहाटी न्यायलय को कोई गलत संज्ञान दिया गया है , कोई असंबंधित कानून का व्याख्यान हो गया है, यह कोई ऐसा कानून भी कह दिया गया है जो विधेयक पालिका ने पारित नहीं किया , मगर वह समाज या देश के न्यायालयों में कही भी स्वीकृत किया गया हो , तब भी सीबीआई को अवैध नहीं माना जायेगा |
         मेरा कहना है की यदि उनके वचनों में दी गयी समझ सीबीआई के निर्माण से पहले ही उस उच्च पदस्थ तानाशाही सरकारी अधिकारी ने 1 अप्रैल १९६३ को दी गयी होती, और यदि उसके बाद कभी संसद ने दिखा दी होती तब आज यह वचन अपनी सफाई में नहीं देने पड़ते | यानि, उनके यह विचार कर्म करने से पहले ही सोचे जाने चाहिए थे, अपने सफाई और फैसले की घडी में नहीं | यह साधारण समझ की बात है की इतनी बड़ी जांच संस्था ऐसे ही चलत में नहीं बनायीं जानी चाहिए थी |यह समझ भी कही लिखित नहीं हो शायद मगर कही न कही पारित ज़रूर होगी | शायद यह 'साधारण बोद्ध' आम आदमी के मस्तिष्क में दर्ज हो , वह जो ताकत और सत्ता से अँधा नहीं हुआ होगा | यह प्रजातंत्र में मुर्खता को बल देने की हरकत है | भारत मुर्ख तंत्र का निर्माण ऐसे ही हुआ होगा | अपनी कुछ समय पहले तक हम भारत को एक विशाल प्रजातंत्र समझ रहे थे | अब तो कुछ और ही संकेत जा रहे है |
   यहाँ बंबई में 'कैम्प कोला' नाम की एक बिल्डिंग में पिछले पच्चीस सालों से रह रहे नागरिकों को निकल कर उस पर बने अवैध निर्माण के घरों को ध्वस्त करा जा रहा है |

'मंगलयान' अभियान का प्रेरणा उद्देश्य क्या होना चाहिए ?

   हिंदी भाषा के एक समाचार चेनल IBN-7 पर एक उच्च पदस्त अंतरिक्ष वैज्ञानिक को भारत के मंगलयान मिशन(अभियान) के प्रेरणा-उद्देश्य का व्याख्यान करते सुना की क्यों भेजा हैं भारत ने यह मिशन | उनकी बातों और विचारों को सुन के मुझ में फिर से वहीँ ग्लानी , वही शमंदिगी महसूस हुई जो बार-बार  , कितनो ही बार मैंने स्वयं के एक भारतीय होने की वजहों से महसूस करी हुयी है | वही बेईज्ज़ती और शर्मंदिगी, जिसमे की मेरे मन में वह संदेह होता हैं की क्या यही वह भारतीय सभ्यता थी जिसने समूचे विश्व को सभ्यता का पाठ अपने काव्य रचना, रामायण, के माध्यम से दिया था , और क्या यही वह सभ्यता है जिसने घर्म और न्याय के महाग्रंथ , श्रीमद भगवद गीता, की रचना करी थी |
  अंतरिक्ष वैज्ञानिक जी का कहना था की मगल यान मिशन का प्रेरणा-उद्देश्य है इस दुनिया में भारत का नाम ऊँचा करने का -- यह साबित करने का की भारत के पास भी काबलियत है ऐसे उच्च तकनिकी मिशन को सफलता पूर्वक पूर्ण कर सकने की , और भारत का अंतरिक्ष अनुसंधान के क्षेत्र में लोहा मनवाने की | भारत ने यह मिशन मात्र रुपये 450 करोड़ में ही भेजा है , जब की रूस, अमरीका , यूरोपीय संघ और अन्य देशों ने इस पर हज़ारों करोड़ डॉलर का खर्च कर के प्राप्त करा है | मिशन का दूसरा उद्देश्य है मंगल गृह पर जीवन की खोज करना , जिसके लिए वह मंगल के वातावरण में मीथेन नामक गैस की तलाश करेंगे |
  साधारण , ग्रामीणय और अपठित भारतीयों को इन विचारों में और उप्पर्युक्त व्याख्यान में कहीं कुछ गलत न लगे| मगर जो भी भारत और उसकी सभ्यता, उसकी दैनिक घटनाओं का अध्ययन कर रहे शोधकर्ता होंगे उनके लिए यह विचार फिर से वही सूचक और प्रमाण का कार्य सिद्ध करते है जिसमे भारत को एक लघु-विचारक , अल्प-बौद्धिकता का 'समूह' (जिसे की आधुनिक भारत-वासी अपने अल्प-ज्ञान भ्रम में एक 'राष्ट्र' कह कर संबोधित करते है ) समझा जाता है |
    क्या एक इतना दीर्घ-गामी, उच्च तकनिकी, ज्ञान और शोध के नए द्वार खोलने वाला अभियान मात्र एक "स्वाभिमान" के लिए ही भेजा जाता है ?
इस उप्परलिखित प्रशन के उत्तर की तलाश में मुझे एक बार फिर से स्वयं को निर्मोह की धारा में प्रवेश कराना पडा जहाँ सिर्फ सत्य और न्याय ही इंसान को पैर जामये रख सकने के साधन होते हैं | और यही एकमात्र साधन क्यों न हो-- ज्ञान-और-शोध का तो सत्य-और-न्याय के साथ कुछ ऐसा ही सम्बन्ध है जिसके चलते ही तो पौराणिक वैदिक सभ्यता ने भी विद्या, यानि ज्ञान, को सभ्यता का स्रोत बताया था और सत्य और न्याय को सर्वोच्च बौधिक गुण चुन कर ऐसा स्थान दिया जिसमे सत्य को किसी भी भगवन शिव में मनुष्य की श्रद्धा और  विश्वास , और किसी भी प्रकार की सुन्दरता (शारीरिक अथवा कलात्मक) से , --दोनों से ही अग्रिम रखा | इसी मन्त्र को आधुनिक भारत ने अपने राज चिन्ह पर उतरा है "सत्यम , शिवम् , सुन्दरम " के रूप में |
  पश्चिम के देशों ने शुरू से ही भारत के इस मंगल अभियान की आलोचना करी थी, और यह कहा था ही भारत एक गरीब और विविध समस्यों से घिरा देश है , जो की यह उच्च तकनिकी अभियान किसी खोज, शोध, ज्ञान और सत्य की तलाश में नहीं कर रहा है ,बल्कि फिर से वही पूरनी , अणिभ (किसी तरल के समान), मिथ्या पूर्ण ,असत्य-मान वस्तु "स्वाभिमान" के लिए कर रहा है |
  आज भी भारतीय सभ्यता कोई भी विशिष्ट वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाली सभ्यता नहीं है| यहाँ रोजाना तमाम अजीबोगरीब , मानवता विहीन अंधविश्वास के काण्ड होते हैं और यहाँ के समाचार पत्रों में पढ़े जाते है | यह देश एक धर्मांध 'राष्ट्र' है जो की अपने फिल्मी और क्रिकेट सितारों को भगवान् मानता है , इस कदर की यहाँ के सामाजिक हास्य ,मजाकों , में तो एक-दो सितारों को "तहेदिल " से साक्षात भगवान् ही मान लिया जाता है | गरीबी और अमीरी की सीमाओं ने भारत के अन्दर दो अलग-अलग सभ्यताओं को जन्म दे दिया है जिसने इस देश में विभाजन की एक दरार डाल रखी है | इस दरार के दोनों तरफ की जीवन शैली, विज्ञानं के प्रति नजरिया , मुद्रा  और धन, राष्ट्रवाद तथा अन्य बौद्धिक विचार , शिक्षा , कला और साहित्य की अभिरुचि , रोज़गार, स्वतंत्रता और जीवन के उद्देश्य की पूर्ती - इत्यादि के प्रति भिन्न , बल्कि पूरी तरह विपरीत नजरिये हैं| यह देश एक 'राष्ट्र' के रूप में अस्तित्व बनाए रखने के लिए तमाम समझोते , तमाम मिथ्य-आडम्बर का सहारा लेता है | इसकी आजादी से लेकर आज तक चले आ रहे इसके राष्ट्रीय विवाद, राष्ट्रिय समस्याएं इसकी सभ्यता के  केंद्रीय गुण, पाखण्ड, पर रोज़ प्रकाश डालती है | यहाँ आज भी समाचार चेनल रोज़ सुबह मनुष्य का राशिफल बताते हैं | जैसे की राशी फल का ज्ञान भी एक 'समाचार' ही हो |  पश्चिमी देशों का यह मानना है कि ऐसे में  भारत के मंगल गृह अभियान का प्रेरणा उद्देश्य कोई उच्च विचारक , ज्ञान शील , प्रगति शील नहीं हो सकता | बल्कि भय इस बात का है की कहीं यह देश अपने भ्रमित विज्ञानं की प्रगति में स्वयं को और अधिक समस्या ग्रस्त न कर ले | यह राष्ट्र ज्ञान को , ज्ञान के अन्दर विदमान सत्य को अपनी सुविधा, अपने समझौतों के अनुसार ही उच्चारित करता हैं, - सत्य को नष्ट कर के उसमे पाखण्ड को प्रवेश करा देता है |
  मंगल गृह का अभियान कई अन्य राष्ट्र भी कर सकते थे | चीन, कोरिया , फ्रांस, ऑस्ट्रेलिया इत्यादि की तकनिकी उपलब्धिया भारत से आगे ही होंगे , पीछे कदाचित भी नहीं | मगर उन्होंने अभी तक इस प्रकार के अभियान के बारे में कोई कदम नहीं उठाया | हाँ चीन और जापान का एक मंगल गृह का प्रयास पहले ही असफल हो चूका है | तब क्या हमारा "लोहा मनवाने " के विचार हमारे अन्दर की किसी मनोवैज्ञानिक दर्भ का सूचक तो नहीं है | किसी प्रकार का मानसिक कुष्ट| हमने क्यों यह अभियान प्रक्षेपित किया होगा, जबकि इन देशो ने नहीं  | शायद अंतरिक्ष की खोज से कहीं अधिक हमे अपने अन्दर कुछ तलाशने की आवश्यकताएं हैं |
   मंगल गृह पर चल रहे अमरीकी अभियान , क्यूरोसिटी, का  मैं व्यतिगत तौर पर भी बहोत प्रशंसक हूँ | वहां की खोजों और गतिविधियों का मैं रोजाना अनुगमन करता हूँ | बल्कि मैं स्वयं किसी षड्यंत्रकारी विचारक के भांति यह अटकले भी लगा चूका हूँ की मंगल गृह पर जीवन विद्यमान है , जिसकी वजह से ही शायद नासा ने आर्थिक मंदी के इस दौर में भी मंगल में अपनी रूचि बनाये रखते हुए , सोजौर्नेर , स्पिरिट और औपरच्युनीटी अभियानों के बाद फिर से यह क्यूरोसिटी अभियान भेजा है | मैं स्वयं को आज भी अपने इस षड्यंत्रकारी कथन पर कायम रखता हूँ |
  मंगल पर हो रही मीथेन गैस की शोध , और मीथेन गैस के माध्यम से जीवन की संभावित अस्तित्व की थेओरियों को मैं बखूबी जनता और समझता हूँ | सिलिकॉन से बने प्राक्कल्पनात्मक जीव-रूप की थ्योरी से भी मैं बखूबी वास्ता रख चूका हूँ की कैसे शोधकर्ताओं ने कार्बोन जीवक-गुण के बहार आ कर सिलिकॉन जीवक-गुण वाले जीवन की भी मंगल पर तलाश का संसाधन क्यूरोसिटी-रोवर पर सुसज्जित किया है | मंगल की भूमि के ऊपर, नीचे और वायुमंडल में कहाँ-कहाँ जीवन की संभावनाएं हैं और शोध चल रही है , मैं रोज़ के रोज़ यह खबरे पढता हूँ |
मंगल के ऊपर प्राचीन जलधारा , वहां के प्राचीन वायुमंडल, जो की अब रहस्यमई कारणों से गायब हो चूका है , इत्यादि की खोजों की रोज़ की खबर रखता हूँ |
  और इन सब के उपरान्त, भारत का ज्ञान के प्रति एक पिछड़ा नजरिया, प्रेरणा-उद्देश्य को पूर्ण सत्यता से स्थापित नहीं कर पाना मेरे लिए एक दुखद घटना है | मुझे लगा की इस अनंत के ज्ञान की तलाश में , अंतरिक्ष की शोध में, हम भारतीय  शायद यह हमारी सभ्यता में विद्यमान पाखण्ड को त्याग देंगे जब हमे सत्य से रूबरू होना पड़ेगा , जब अनंत की यह तलाश हमे अपने अंतःकरण में , हमारे भीतर की तलाश में ले जाएगी की हम वहां अंतरिक्ष में क्या करने जा रहे हैं, जब की शायद वहां कुछ हो ही न | मगर हमारे पाखण्ड ने हमे फिर से एक दर्भ और घमंड से भरे प्रेरणा-उद्देश्य से हमे पूरित कर दिया है |
  अंतरिक्ष की शोधों से भारत का एक प्राचीन रिश्ता रहा है | आर्यभट, से भास्कराचार्य , और फिर सी.वी रमण, चन्द्रशेकर , और जे सी बोसे इत्यादि वैज्ञानिकों ने बहोत सारी विशिष्ट ब्रह्माण्डीय खोजें करी हुयी है | मगर इन सबके बावजूद एक औसतन भारतीय किसी वैज्ञानिक दृष्टिकोण का व्यक्ति नहीं है | कर्मकांडी धर्म की एक विचारधारा आज भी, लगातार, पश्चिम की नास्तिकता , धर्मनिरपेक्षता और प्राकृतिक विज्ञानं से प्राप्त करी गयी उप्लाभियों को भारतीय जन-मानस में तर्क-भ्रमित करके पौराणिक भारतीय विज्ञानं की उपलब्धि के सत्यापन के रूप में प्रस्तुत करता है | मंगल गृह तक के अभियान की इस उपलब्धि को कुछ हिंदी भाषी समाचार चेनल अभी भी मानव ज्ञान के अनछुए प्रखर के रूप में नहीं, बल्कि वही पुरानी ज़मीन की प्रति मानवीय हवस के रूप में प्रस्तुत कर रहे है की कैसे हम भारतीय मंगल पर से प्राप्त संसाधनों का प्रयोग कर सकेंगे, कैसे हम वहां भी एक दिन ज़मीन की खरीद-फरोक्त का कारोबार फैला सकेंगे |
  इधर अन्तराष्ट्रीय स्तर के अंतरिक्ष विज्ञानियों की चिंताए यह बढ़ रही है की जीवन को समझने और तलाशने के इस प्रखर पर कहीं मानव सभ्यता एक अत्यंत विनाशकारी कदम ही न उठा ले -- जीव-संक्रमण की त्रुटी न कर ले | जहाँ अभी हम मनुष्यों को जीवन की और अंतरिक्ष की गहराइयों का तनिक भी बौध नहीं है , स्टीफन हव्किंग्स जैसे चिंतकों के लिए एक भय का विचार यह है की मनुष्य अपने इन अभियानों के द्वारा जाने-अनजाने में कोई अजीब सा जीव-संक्रमण न प्रसारित कर बैठे | मंगल गृह से धरती पर हुए संक्रमण , और धरती गृह से हुए मंगल पर संक्रमण -- दोनों ही मनुष्य और विज्ञानं के लिए विनाशकारी साबित हो सकते हैं |
    पश्चिम देशों में विज्ञानं परिकल्पनाओं की फिल्मों ने इस प्रकार के तमाम संभावित दृष्टय को वहां के जन-जागृती में प्रस्तुत किया हुआ है | और कुछ फिल्मो ने इन देशों के स्वयं के अंतरिक्षिय अभियानों को एक अधिक संतुलित प्रेरणा-उद्देश्य देने का लक्ष्य भी प्राप्त किया है | भारत का फ़िल्म उद्योग और जन-जागृती अभी इस दिशा में बहुत पीछे हैं | यहाँ विज्ञानं की वास्तविक उपलब्धियां यहाँ के लेखकों और कहानीकारों को प्रेरित नहीं कर पाई है | विज्ञान और कला का विलक्षण संगम अभी भारत में प्राप्त नहीं हो सका है | विज्ञानं परिकल्पना के नाम पर भारत में अभी भी मिथकों को प्रसारित किया जाता है , जो की पूर्णतः उपद्रवी , परिकल्पनाओं के मापदंड से बाहर का एक  असत्य (outrageous) होता  है | यह आकास्मक हुए सत्य का पद्दर्पर्ण ही समझें की अभी कुछ दिन पहले ही 'कृष-३" नाम की एक हिंदी फ़िल्म दर्शकों के बीच में आई है | सोचने का विषय यह है की हम भारतीय लोग "Krish 3"  को एक वैज्ञानिक-परिकल्पना (Science Fiction) की कहानी समझते हैं, या फिर की मात्र एक साहित्यिक स्वतंत्रता (Literary fantasy) से उपजी कल्पना ?
   स्वाभिमान और एक मनोचिकित्सीय दर्भ के बीच में क्या भेद होता है ? कब हमे किसी कर्म को एक स्वाभिमान का कृत्य समझना चाहिए, और कब एक दर्भ से भरा कृत्य ? एक साधारण विचार में इसका एक उत्तर तो यह बनता है की स्वाभिमान का कृत्य आक्रामक नहीं होता , बल्कि आत्म-रक्षा के प्रसंग में होता है , जबकि मनोचिकिसीय दर्भ आक्रामक होता है , और बिना उकसाए स्वयं ही एक मानसिक या शारीरिक हिंसा कर ने के बाद अपने शिकार पर ही हिंसक होने का आरोप मथ देता है | इस समझ से देखें तब फिर से हम अपने इस मंगल अभियान को मात्र एक "स्वाभिमान " का विषय मान कर एक उचित प्रेरणा उद्देश्य स्थापित नहीं कर सकते हैं |
      फिर इस प्रखर के अभियान को मुद्रा-गुण से देख कर कम कीमत वाला प्रयास कहना भी कोई श्रेय की बात नहीं है | इतने अग्रिम वाले वैज्ञानिक अभियानों में तो असल में जितनी भी कीमत लग सकती है , लगानी चाहिए | प्रखर के वैज्ञानिक अभियान समूचे मानव जाती के लिए एक चुनौती का विषय होते हैं, उनको मानव मस्तिष्क से ही उपजे एक पदार्थ- मुद्रा , और अर्थशास्त्र का बंधक बना लेना कोई बुद्धिमानी नहीं होती | तब फिर इस अभियान का सस्ता होना कोई श्रेय का विचार नहीं, मूर्खता का चिन्हक है की सस्ता-सुविस्ता ही करना था तब फिर पहले आर्थिक समस्याओं और मानसिक बन्धनों से स्वयं को मुक्त करो | बंधक मस्तिष्क खोजी सफलता कम प्राप्त करते हैं |
    अंतरिक्ष के अभियानों के विषय में एक पुराना तर्क यह रहा है की मानव जाती कोई भी खोजी अभियान अपनी समस्याओं के हल की तलाश में करती है , न की अपनी समस्याओं को और अधिक क्षेत्रफल में प्रसारित करने के लिए |  ऐसे में यह आवश्यक रहेगा की हम भारतीय अपनी गरीबी, दरिद्रता, पिछड़ेपन, और अन्धकार-मई विचारों से उपजी समस्याओं को भारतीय सीमा क्षेत्र में ही सुलझा ले, उन्हें अंतरिक्ष और मंगल गृह तक न ले कर जाएँ |

क्या है 'राजनैतिक महत्वाकांक्षा' - एक विचारविमर्श

मोदी जी के भाषणों को टीवी पर लगभग सभी समाचार चेनल , हिंदी और अंग्रेजी , 'सीधा प्रसारण' में दिखा रहे हैं । इसलिए मेरे जैसे दर्शक अपनी इच्छाओं से दूर हट कर भी इन्हें सुन ही बैठते हैं । इनको सुनते-सुनते मोदी के आलोचकों के विचार भी सुनाई दे ही जाते हैं । मोदी के आलोचकों का एक प्रमुख आरोप "राजनैतिक महत्वाकांक्षा" का है ।
 क्या सन्दर्भ है इस आरोप का - "राजनैतिक महत्वाकांक्षा", और इसमें क्या गलत है ?
सभी व्यक्तियों को जीवन में एक न एक लक्ष्य तो रखना ही चाहिए । लक्ष्य के बिना तो जीवन व्यर्थ हो सकता है , बिलकुल किसी आवारा की भाँती । तब फिर 'जीवन के लक्ष्य' और 'महत्वाकांक्षा' में क्या भेद हुआ ?
'जीवन का लक्ष्य' और 'महत्वाकांक्षा' के बीच का अंतर एक मनोवैज्ञानिक दर्शन के माध्यम से ही समझा जा सकता है । हर व्यक्ति अपने जीवन के लक्ष्य का चुनाव अपनी स्वयं की क़ाबलियत के एक आत्म-ज्ञान के आधार पर ही करता है । वैसे विचारों और इच्छाओं पर कहीं कोई अंकुश नहीं होता , मगर इसका यह मतलब नहीं है की एक स्वस्थ मानसिक अवस्था के व्यक्ति को अपने 'जीवन का लक्ष्य' कोई पक्षी बन कर हवा में उड़ने का रखना चाहिए । अर्थात , 'जीवन के लक्ष्य' के चुनाव में एक छिपे और जटिल आत्म-ज्ञान का प्रयोग करना ही होता है । अब यह ज्ञान कितना आत्मीय और कितना बहाय होता है यह प्रत्येक व्यक्ति के जीवन शैली पर भी निर्भर करता है । अक्सर कर के व्यक्ति के क़ाबलियत का एक ज्ञान थोडा बहाय हो कर उसके मित्रों में , उसके समाज में भी समां जाता है ।
अपनी हद्दो के बाहर जा कर जीवन के लक्ष्यों का चुनाव कोई कुतर्की बात नहीं है । आखिर मनुष्य का विकास -- आर्थिक , वैचारिक और सामाजिक -- तभी होता है जब वह अपने आस-पास की सीमाओं को तोड़ कर बाहर आता है । मगर जब वह अपने लक्ष्यों को अपनी वर्तमान सीमाओं के बहोत दूर ले जाता है , तब उसे महत्वकांक्षी कहा जाता है ।
महत्वकांक्षी व्यक्ति के लक्ष्य तक पहुचने में असफल होने होने के बहोत आसार होते हैं । कभी-कभी वह 'महत्वकांक्षी'-लक्ष्य तक पहुचने में कुछ 'लघु-पथ' अपनाने में गलत मार्गों को पकड़ ले सकता है । 'महत्वकांक्षी'-लक्ष्य तक पहुचने में अपने साथियों , अपने मित्रों को पीछे छोड़ देते हैं । अपनी स्वयं की प्रतिबिम्ब थोडा बड़ा देखने लगते हैं , और अपना व्यवहार अपने वास्तविक आकार से बड़ा समझ कर बदल लेते है , जो हास्यास्पद और अशोभनीय हो जाता है । इस प्रकार के लक्षणों को "महत्वकांक्षी" कहा जाता है ।
"राजनैतिक महत्वकांक्षा" का अर्थ थोडा सा और विस्तृत होता है । अंग्रेजी नाटककार शेकस्पेयर के एक नाटक "मैकबेथ" में एक सिपहसलार ,मैकबेथ, को "राजनैतिक महत्वकांक्षा" पालते हुए बहोत सजीव चित्रण किया गया है । मैकबेथ की पत्नी उसे राजा बनने की "प्रेरणा" देती है , तब जब की राजा कोई अन्य है । और बाद में , तीन जादूई महिलाएं (चुड़ैल ) , मैकबेथ को "राजा " का संबोधन देकर उसमे राजा बनने की महत्वकांक्षा को और पेन कर देती है । फिर वह मैकबेथ को राजा बनने की अपनी 'भविष्यवाणी' भी सुनाती है , जो की हो सकता है की वह अपनी संबोधन वाली त्रुटी को छिपाने या दबा देने के लिए कर रहीं हो , मगर मैकबेथ इस भविष्यवाणी ही मान कर इसे पूरा करने के मकसद पर काम करने लगता है । --( ="अपना व्यवहार अपने वास्तविक आकार से बड़ा समझ कर बदल लेते है। ") फिर मैकबेथ अपने राजा की हत्या भी कर देता है ।
यही है "राजनैतिक महत्वकांक्षा" का चित्रण , और भविष्य भी ।
"राजनैतिक महत्वकांक्षा" की वाणी ऐसी होती है की मानो वह आपके सारे दुखों का निवारण अपने राजा बनते ही तुरंत कर देगा । -- भ्रष्टाचार , गरीबी , अशिक्षा , महंगाई , आतंकवाद सब कुछ । वह आप का मित्र दिखाई देगा, जब वह आपको भावुक क्षणों के बारे में बतलायेगा । जनता को भावनाओं से ही बेवकूफ़ बनाया जाता है । कुछ एक व्यक्ति तो विवेकसंगत और तर्कसंगत हो सकते , मगर जनता यदि अशिक्षित और गरीब हो तब वह भावुक होती है । भावुक व्यक्ति समूह , जिसे 'जनता' भी कहते है , एक बहोत ही तर्क-हीन और विवेक-हीन व्यक्ति समूह होता है । ऐसे में उन एक-दो विवेकसंगत और तर्कसंगत व्यक्तियों की बातें तो पता नहीं किन-किन भावुक नारों में दब जाती है ।
राजनैतिक महत्वकांक्षा वाले नेताओं का आगे भविष्य में तानाशाह बन जाने का भी भय होता है । अभी अपने वर्त्तमान सरकार व्यवस्था को ही लीजिये । यह जितने शालीनता से पेश आ रहे थे , अपने घोटालों के पोल-खोल के बाद उतने ही तानाशाह हरकतें कर रहे हैं । कभी स्वतंत्र अभिव्यक्ति पर अंकुश , तो कभी एकदम बेतुके बयान । राजनैतिक महत्वकांक्षा के आरंभिक लक्षण ऐसे ही होते हैं की व्यस्ताविक हालत , और रिश्तों को जरूरत के मुताबिक़ छिपा या दबा देते हैं । या उभार देते है । बाद में जब वह कामयाब हो जाते हैं, फिर वह अपने वादों पर खरा नहीं उतर सकने की हालत में एकदम तानाशाही पर उतर आते हैं ।

बरहाल , मोदी जी दस सालों से एक मुख्यमंत्री हैं , इसलिए अब प्रधानमंत्री पद का सपना उनके लिए एक राजनैतिक महत्वकांक्षा का पद नहीं माना जाना चाहिए । वह एक प्रभावशाली वाचक हैं । बस यही वह लक्षण हैं जो संदेह पैदा करता है की उस राज्य का मुख्य मंत्री , जहाँ से देश के कई बड़े औद्यगिक घराने आते हैं, जिन पर देश को लूटने का , भ्रष्टाचार का और महगाई का पूरा दारोमदार जाता है , वह हो-न-हो एक बड़े 'खिलाडी ' ही होंगे जनता को 'फिर से' बेवक़ूफ़ बनाने के खेल में ।

Really! a case of Indiscipline and Disrespect ??

Acts of 'Indisciple' and 'Disrespect' are two accusations which in themselves are deprived of any logical substance to sustain themselves. What is 'indiscipline' and what is 'disrespectful' or 'insulting' in an action is never revealed by the use of word itself. Where one person will judge 'indiscipline' in an action, the other person may still see discipline while negotiating hard to change a culture towards the deliverance of the justice. Given the manner these words are used, it can be said that the parameters of 'discipline' and 'indiscipline' are very much subjective and particular to the cultural environment of the claimant and the organisation.
  More often than not, the claims of a perceived 'indiscipline' or a 'disrespect','insult' comes as a front for the suppression of Free-speech , or to overthrow what ought to be the course of Justice in a given case. It is very common to see the claim of 'indiscipline' and 'disrespect' coming from people who are very much traditionalists, who are not adept in the managerial skills, human resource management, practice the rudimentary cultural outlook, and refusing to adopt to modern outlook. One will frequently notice the regular pattern of behaviours of dislike for the young, the new 'ideas', and dislike for the technically advanced subordinate whereever the claims of 'indiscipline' and/or 'disrespect' are being invoked.
The most fundamental truth observable in these accusations is that these accusations are purely ONE-WAY allegations, as if to mean that these claims are a special prerogative of any senior in an organisation against his junior. Have we ever seen a claim of 'indiscipline'and/or 'disrespect' by a junior against his senior? And that too being successfully upheld? !!!
Indian culture is typically a culture of subjugation and compliance, against the other prevailing thought of awakened-ness, the conscitiousness, or self-awareness in other 'developed' cultures. One has regularly heard of how questioning anything, the enquiry of human mind is suppressed in the very basic Education System of India. All the other prevailing social ills when contrasted against the technical background of India, speak of a serious 'doping' of the two immiscible things. While we boast of our exclusive achievements in the IT, the space, the medicine, we hear at a regular run the news reports of extremely obnoxious and contrarian social conducts by those class professionals whom one should expect to be excelling in these highly advanced fields of sciences. India's religion thought has managed to rob away the difference that the sciences traditionally have with the vast span of human beliefs in their ignorance, which are represented by the 'religion'. The religion has 'transformed', in a true sense 'masqueraded to deceive the people', the achievements and awakening brought by the sciences as something a 'gift of the religious pursuits'.Thereof, we have demolished forever the endeavor of humans around us to come into the light of self-knowledge and conscitiousness. In these circumstances of the culture, the 'indiscipline' and the 'disrespect' have come as a potent tool, which while they remain inexplicable in the analytical terms, yet they find the understanding of there causation in the light of traditions and the culture. These claims, then, serve their claimants to do what has been regularly being done irrespective of the call of the Justice.

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