भाग 2 : पश्चिम का 'सेकुलरिज्म' और भारत का 'सेकुलरिज्म'

       पश्चिमी देशों में प्रयुक्त 'सेकुलरिज्म' , इधर भारत में अभ्युक्त सेकुलरिज्म से और भी कई मायनों में अलग है | वहां के मुख्य ईश पंथ, Protestantism में ही सेकुलरिज्म के वो बीज हैं जो समूची सभ्यता को स्वतंत्र-अभिव्यक्ति  को प्रयुक्त करने का रास्ता खोलते हैं| ऐसे में सेकुलरिज्म प्रजातंत्र से गठ-जोड़ कर कर लेता है , क्योंकि स्वतंत्र-अभिव्यक्ति प्रजातंत्र का मूल स्तम्भ है | और फिर सेकुलरिज्म खुद भी प्रजातंत्र का एक भौतिक गुण बन जाता है | Protestantism में मनुष्य और उसके इश्वर के बीच में नए सम्बन्ध, स्वतंत्र और व्यक्तिगत संपर्क माध्यम के चलते वहां का प्रत्येक व्यक्ति अपने आस-पास, बगल में किसी भी दूसरे विचार के व्यक्ति को खुल के रहने की आजादी देता है | इसमें नास्तिकता और वैज्ञानिकता के विचार वाले व्यक्ति भी शामिल हैं,जो की बिना सेकुलरिज्म के विधर्मी  (heresy) और ईश निनादायी (blasphemes) सुनाई देने लगेंगे |
       इधर भारत में सेकुलरिज्म को हिन्दू-मुस्लिम राजनैतिक एकता में देखा जाने लगा है | एक धर्म का हो कर दूसरे के वस्त्र पहन लेना , दूसरे की भाषा बोलना, दूसरे धर्म के व्यक्ति से शादी करना , इस दूसरे के त्यौहार में व्यंजन खाना, शुभकामनाएं देना -- यह सब "सेकुलरिज्म" के कर्म काण्ड माने जाते है | मगर इसमें कहीं भी सत्यता , वैज्ञानिकता , और स्वतंत्र-विचार के लिए जगह नहीं है | साहित्य , फिल्में, कला, इत्यादि पर "भावनायों को आहत किया " के नाम पर पाबंदी लग जाना, और  सांप्रदायिक झगड़े, दंगे , कट्टर पंथता -- यह सब भारत में आम घटनाएं है |  गहराई से विचार करें तब लगेगा की "भावनायों को आहत होना " का व्यवधान तो वही कैथोलिक विचारधारा वाले विधर्म और ईशनिंदा के आरोपों के समकक्ष है, बस नाम बदल लिया है |  Protestant सेकुलरिज्म में इस प्रकार के आरोप ही खुद अवैधानिक होते है |
          एक दूर के तर्क से भारत में जिन क्रियाओं को सेकुलरिज्म का सूचक मान लिया गया है, वह इतने गलत तो नहीं है -- क्योंकि , जब हम किसी के विचारों से सहमत होते है तब ही तो उसकी भाषा को स्वीकारते हैं, या शादी के सम्बन्ध बनाते हैं -- मगर असल में हम मात्र सूचक से काम चला लेते हैं, भ्रमित हो जाते हैं-- वास्तविक गुण को भुला बैठते हैं | हमारी मौजूदा सभ्यता में एक छिछला-पन है , एक पाखण्ड हैं , --जो हमारी भ्रमित बौधिक विकास , और हमारी आस-पास की सभ्यता के कारणों से स्वतः उत्पन्न होता है | हम सूचक को ही गुण मान लेने की भूल कर देते हैं , या फिर सूचक को प्रमाण मान लेते हैं |
   प्रजातंत्र में स्वतंत्र-अभिव्यक्ति को मूल गुण माना गया है | स्वतंत्रता और अधिकार एक-समान विचार नहीं है | स्वतंत्रता तब है जो कोई नियंत्रण करने वाली संस्था है ही नहीं,- जब सिर्फ प्रकृति ही एक कारक और नियंत्रक होती है ; अधिकार तब अस्तित्व में आते है जब कोई नियंत्रण संस्था स्थापित होती है -- जो अधिकार प्रदान करने अथवा नहीं प्रदान करने का निर्णय लेती है | प्रजातंत्र में राज्य शासन , अथवा सरकार , एक संस्था होती है -- मगर इसके कार्य दो लोगों की स्वतंत्रता में उत्पन्न टकराव को रोकने के होते हैं, प्रत्येक व्यक्तियों को कुछ करने अथवा न करने के अधिकार देने का नहीं | संविधान में दिए गए मूल-भूत स्वतंत्रता राज्य-शाशन के आधीन नहीं होते | न ही वह किसी उत्तरदायित्व, किसी कर्तव्यों के प्रतिफल होते है | अधिकारों को अक्सर कर्तव्यों और उत्तरदायित्व के प्रतिफल के रूप में देखा जाता है |
   
 
 
         
 

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