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Showing posts from January, 2019

Why human brain loves Logic

Human brain seeks Logic . Logic is the simplest , sweetest thing a human brain can comprehend. Compare Logic with various Beliefs and the evaluation of artists subjects . The latter vary so abruptly from person to person. The brain faces its greatest upheaval in comprehending them. Logic , on the other hand, is homogeneous, streamlined, can become complicated at times and yet it can be simplified, and most importantly it doesn't ever fall in conflict with our Emotions . Hence it is the simplest and the sweetest of all the kind of the thoughts that a human brain nurtures on. Justice therefore seeks to establish Logic in the verdicts. This ensures a homogeneous, unbiased or a least unadulterated compliance. The one reason why comparisons are made between two similar-looking choices of action a single person has made is to figure out the logic in it. Because , Logic thereafter ensures a broad , general homogeneous compliance. Logic ensure a broad censure of the law. It remov

नौकरशाही की चारित्रिक पहचान क्या होती है?

भले ही आप उन्हें सूट ,टाई और चमकते बूटों  में देख कर चंकचौध हो जाते हो, और उनकी प्रवेश परीक्षा की कठिनता के चलते आप पहले से ही उनके प्रति नत्मस्तक हो चुके हों, पर वास्तव में नौकरशाही की भूमिका जनप्रशासन से उत्पन्न शक्तियों के विषय मे एक little demon (शैतान बौने) के जैसे होती है। जी हां, अब क्योंकि आप हमेशा उनकी तारीफ़ के लेख ही पढ़ते आये हैं, लोक सेवा आयोग के कठिन और चतुर प्रश्नों के मोह से भ्रमित हो कर ही जिये हैं, इसलिए यह शैतान बौने वाला दृष्टिकोण शायद आपके मनमस्तिष्क से औझल हो चुका है। किसी भी तंत्र में उसकी वास्तविक शक्ति उसके कानून लिख देने से नही, बल्कि कानून के उच्चारण और उसके व्यवहारिक अनुपालन (implementation) में होती है। यह वो काम है जो कि पूरी तरह नौकरशाही के ही काबू में रहता है। राजा (या कोई अन्य विधान का मूल रचियता) कभी भी खुद से देश मे हर जगह, हर पल, हर एक कालखंड में उपस्थित हो कर जांच तो कर नही सकता है कि क्या उसका बनाया कानून वास्तव में वैसे ही लागू हो रहा है जैसी की उसकी मंशा थी। लिखित और मौखिक भाषा आज भी उच्चरण की तम्माम कमियों से भरी हुई है। ऐसे में कानून के व्यवह

FB page kya hota hai, kyon banaya jata hai, aur kaise banaya jata hai ba...

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"आम आदमी" से क्या अभिप्राय है-- एक चिंतन

Original post on FB, dated 03Jan2014 असल में "आम आदमी" शब्द एक पर्याय है एक ऐसे समाज के व्यक्तियों के लिए जिसकी चारित्रिक विशेषताएं यही हैं जो नीचे लिखी हुई हैं । इसमें कोई शक नहीं है। शेक्स्पेअरे ने इन्हें "प्लेबेइअन"(= निचले तबके के लोग) कह कर बुलाया था और प्राचीन रोमन साम्राज्य में भी इन्हें ऐसे ही पहचाना गया था । मेरी समझ से समाज अपनी बौद्धिक जागृती और नैतिकता के आधार पर दो प्रकार से प्रकट होते हैं : 1) आत्म-जागृत समाज conscietious society , और 2)अनुपालक समाज compliant society।  इन दोनों प्रकारों में अंतर और विशेषताएं क्या हैं?  क्रमिक विकास की दृष्टि से अनुपालक समाज एक पिछड़ा स्वरुप है एक आत्म जागृत-समाज का । अनुपालक समाज किसी नेता, किसी स्वामी, किसी राजा के आदेशों का पालन करना चाहता है। वह स्वयं से, अपने अंतःकरण के आधार पर नैतिकता के विषयों को नहीं तय करता है। ऐसे समाज में नियम कोई अन्य लिखता है और जनता का कार्य होता है कि नियम को जान कर उसका पालन करे। यहाँ नियम-कानून साधारण ज्ञान का विषय नहीं है  जो की आप स्वयं अपने अंतःकरण की आवाज़ से स्वयं ही प्राप्त कर