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Why human brain loves Logic

Human brain seeks Logic. Logic is the simplest , sweetest thing a human brain can comprehend. Compare Logic with various Beliefs and the evaluation of artists subjects. The latter vary so abruptly from person to person. The brain faces its greatest upheaval in comprehending them. Logic, on the other hand, is homogeneous, streamlined, can become complicated at times and yet it can be simplified, and most importantly it doesn't ever fall in conflict with our Emotions. Hence it is the simplest and the sweetest of all the kind of the thoughts that a human brain nurtures on.
Justice therefore seeks to establish Logic in the verdicts. This ensures a homogeneous, unbiased or a least unadulterated compliance. The one reason why comparisons are made between two similar-looking choices of action a single person has made is to figure out the logic in it. Because , Logic thereafter ensures a broad , general homogeneous compliance.
Logic ensure a broad censure of the law. It removes scope of bias made hidden in a law.

नौकरशाही की चारित्रिक पहचान क्या होती है?

भले ही आप उन्हें सूट ,टाई और चमकते बूटों  में देख कर चंकचौध हो जाते हो, और उनकी प्रवेश परीक्षा की कठिनता के चलते आप पहले से ही उनके प्रति नत्मस्तक हो चुके हों,
पर वास्तव में नौकरशाही की भूमिका जनप्रशासन से उत्पन्न शक्तियों के विषय मे एक little demon (शैतान बौने) के जैसे होती है।

जी हां, अब क्योंकि आप हमेशा उनकी तारीफ़ के लेख ही पढ़ते आये हैं, लोक सेवा आयोग के कठिन और चतुर प्रश्नों के मोह से भ्रमित हो कर ही जिये हैं, इसलिए यह शैतान बौने वाला दृष्टिकोण शायद आपके मनमस्तिष्क से औझल हो चुका है।

किसी भी तंत्र में उसकी वास्तविक शक्ति उसके कानून लिख देने से नही, बल्कि कानून के उच्चारण और उसके व्यवहारिक अनुपालन (implementation) में होती है। यह वो काम है जो कि पूरी तरह नौकरशाही के ही काबू में रहता है। राजा (या कोई अन्य विधान का मूल रचियता) कभी भी खुद से देश मे हर जगह, हर पल, हर एक कालखंड में उपस्थित हो कर जांच तो कर नही सकता है कि क्या उसका बनाया कानून वास्तव में वैसे ही लागू हो रहा है जैसी की उसकी मंशा थी। लिखित और मौखिक भाषा आज भी उच्चरण की तम्माम कमियों से भरी हुई है। ऐसे में कानून के व्यवहारिक अनुपालन सिर्फ एक खेल बन जाता है राजा के इन सेवकों का , जिनके पास अक्सर करके राजा की तरफ से खुल्ली छूट होती है अपनी मनमर्ज़ी से कानून का उच्चारण करके अपनी ही तरह से उसे लागू करते रहें।

प्राचीन समय से ही एक विशेष कानून हमेशा से सभी अन्य कानूनों का चौखटा बन कर कार्य करता रहा है- कि, राजा या उसके मुलाज़िम कभी भी, किसी भी ग़लत के जिम्मेदार नही माने जाते हैं ।

अब अगर यह सच ही होता तो फिर प्रजातन्त्र किस तरह प्रकट हो पाता? यहां इसका समाधान यह रखा गया कि जनता के चुने हुए प्रतिनिधि ही कानून बनायेगे और तमाम विभागों के शीर्ष रह कर उनके व्यवहारिक कार्यपालन की देखरेख करेंगे। मगर यदि कुछ भी गलत हो गया तो फिर नौकरशाहों को जिम्मेदार नहीं माना जायेगा!
अब सवाल था कि ऐसे में जवाबदेही ही क्या रह जाती है? यह सवाल ही वास्तविक मानदंड बन गया कि देश मे वास्तव में कोई व्यवहारिक प्रजातन्त्र है, या की मात्र एक तमगा लगा है प्रजातन्त्र का जबकि व्यवाहरिक तौर पर *नौकरशाहों की ज़मीदारी* (bureaucratic feudalism) ही देश का भूमितल का सत्य है।

अच्छे प्रजातन्त्र देशो में यहां से ही प्रेस की भूमिका महत्वपूर्ण हो चली थी। प्रेस मीडिया को इस लिए ही "चौथा स्तंभ" पुकारा जाने लगा। चुने ही प्रतिनिधियों के पास parliamentary immunity होती है, ग़लत करने पर बच कर निकलने के लिए, नौकरशाहों के पास sovereign duty के सदाबहार बचाव तर्क होते हैं ग़लत करने पर सज़ा से बचने के, और judiciary के पास भी अपने independence judiciary के तर्क होते है, किसी भी जाँच या सज़ा से बचने के लिए।
ऐसे में प्रजातन्त्र व्यवस्था मात्र एक तमगा ही बन कर रह जाती है यदि उसको व्यवहारिकता से लागू करवाने का जिम्मा जनता खुद से न उठाये तो।

जनता जहां अपनी शक्ति को प्रतिनिधि चुन कर लगती है, वही एक कमी रह जाती है। यह कि अगर उसके चुने हुए प्रतिनिधि शैक्षिक और बौद्धिक तौर पर प्रबुद्ध न हों, तो वह आसानी से नौकरशाही के द्वारा नियंत्रित कर लिए जाते हैं, आपसी-मिलिभगति के शिकार बना लिए जाते हैं और फिर यह दोनों ही टैक्स और भ्रष्टाचार के द्वारा मिलबांट कर खाने के काम मे लग जाते हैं, बजाए की देश को एक सुचारू जनकल्याण व्यवस्था दे सकें।

यहाँ हमें नौकरशाही का शैतान बौने वाला चरित्र दिखई पड़ सकता है। नौकरशाही ही वह अंग होता है जिसके पास किसी भी आपराधिक मामले की जांच के संसाधन और शक्ति होती है। नौकरशाही ही वह अंग होती है जो कि तमाम विभागों की फाइलों को क्रियान्वित होने के लिए टेबल से टेबल लेती-जाती रहती है। यही वह छोटे-छोटे मगर महत्वपूर्व कदम होते हैं जिसमे वास्तव में प्रशासनिक शक्ति का निवास होता है। यदि यह शक्ति बेकाबू हो जाये तो वह ऐसे व्यवहार करने लगती है जब कोई बहोत बड़ा दार्शनिक एक मेज़ पर बैठा कोई बड़ा विशिष्ट लेख लिख कर समाप्त ही किया हो, और अचानक से एक छोटे मासूम से दिखने वाले बच्चे-नुमा इंसान ने आ कर मेज़ को नीचे से हिला कर स्याही की दवात को गिरा दिया हो और लेख को बहती स्याही से अपढ़ बना दिया हो।

नौकरशाही की भूमिका भी उसी छोटे मासूम से दिखने वाले बौने की तरह होती है - *little devil.* कानून के अनुपालन के समय आने वाली तमाम मुश्किलों को लागू करने में इनको ही कई सारे नियम (rules) बनाने की शक्ति होती है। यहां पर यह लोग वही स्याही बहाने वाले अपने चिर-परिचित कारगुजारियां करते रहते हैं। नियमों को ऐसा पेंचीदा बना देते हैं की वह अंततः अपढ़ बन जाता है और कोई भी जनता का इंसान आसानी से कुछ भी मांग कर ही नहीं सकता है। उसे नियमों के जंजाल में ऐसा बांध देते हैं कि यदि कुछ ग़लत हुआ हो तब फिर वह भुगतभोगी खुद ही उसका जिम्मेदार नज़र आने लगता है।

भारतीय प्रजातन्त्र की दिक्कत यही पर है। जनता उचित शिक्षिक और बौद्धिक क्षमता वाले प्रतिनिधि को आसानी से न तो पहचना कर सकती है, और न ही चुनाव कर पाती है। नतीज़ों में जो भी प्रतिनिधि शासन में आसीन होता है, वह इन्ही छोटे बौनों के ऊपर निर्भर हो जाता है प्रशासन देने में। क्षेत्रीय पार्टियों के साथ यह त्रासदी तो और भी आसानी से घटती है। उनके नेता तो और भी आसानी से नौकरशाही के काबू में आ जाते हैं क्योंकि केंद्रीय कानून, रक्षा विभाग , विदेश विभाग , इत्यादि कई विभागों की आवश्यकता को यह नेता सिर्फ नौकरशाही के माध्यम से ही निभा सकते है।

तो अन्तःत इन नेताओं की जरूरतें सिमट कर सिर्फ अपनी जेब भरने तक ही रह जाती है, क्योंकि बाकी कुछ भी जनकल्याण देने वाला प्रशासन उनके बस की बात नही रह जाता है।
अब नौकरशाही और चुने प्रतिनिधि , दोनों ही मिल कर "परस्पर सहयोग" में आ जाते है- जनता के जमा कराए टैक्स के माध्यम से विलासपूर्ण जीवन शैली जीने में। अगर कोई व्यापारी भी संग आ जाये तब यह लोग भ्रष्टाचार पर उतर आते है।

यह शैतान बौना ही नौकरशाही की सही चारित्रिक पहचान होती है।

"आम आदमी" से क्या अभिप्राय है-- एक चिंतन


Original post on FB, dated 03Jan2014

असल में "आम आदमी" शब्द एक पर्याय है एक ऐसे समाज के व्यक्तियों के लिए जिसकी चारित्रिक विशेषताएं यही हैं जो नीचे लिखी हुई हैं । इसमें कोई शक नहीं है। शेक्स्पेअरे ने इन्हें "प्लेबेइअन"(= निचले तबके के लोग) कह कर बुलाया था और प्राचीन रोमन साम्राज्य में भी इन्हें ऐसे ही पहचाना गया था ।
मेरी समझ से समाज अपनी बौद्धिक जागृती और नैतिकता के आधार पर दो प्रकार से प्रकट होते हैं : 1) आत्म-जागृत समाज conscietious society , और 2)अनुपालक समाज compliant society।
 इन दोनों प्रकारों में अंतर और विशेषताएं क्या हैं?
 क्रमिक विकास की दृष्टि से अनुपालक समाज एक पिछड़ा स्वरुप है एक आत्म जागृत-समाज का । अनुपालक समाज किसी नेता, किसी स्वामी, किसी राजा के आदेशों का पालन करना चाहता है। वह स्वयं से, अपने अंतःकरण के आधार पर नैतिकता के विषयों को नहीं तय करता है। ऐसे समाज में नियम कोई अन्य लिखता है और जनता का कार्य होता है कि नियम को जान कर उसका पालन करे। यहाँ नियम-कानून साधारण ज्ञान का विषय नहीं है  जो की आप स्वयं अपने अंतःकरण की आवाज़ से स्वयं ही प्राप्त कर ले। अगर आप ऐसा करे करेंगे तब आपसे सवाल करा जायेगा- "तुमसे किसने कहा ?", "तुम्हे कैसे पता यह कहाँ लिखा है ?" , "तुम्हें किसने आजादी दी है अपनी मर्ज़ी से ऐसा करो?", इत्यादि।
 यहाँ के समाज का सत्य यह है की "भेजे की सुनेगा तो मरेगा कल्लू"।
आत्म जागृत समाज में साधारण विधि (common law) का न्याय चलता है ,और इस वजह से नियम का ज्ञान सभी को होता है। असल में नियम अंतःकरण के द्वारा स्वयं से भी प्राप्त करे जा सकते हैं और यह विधि न्यायालयों में मान्य होती है।
 आध्यातम और राजनैतिक विज्ञानं , दोनों, के ही समझ से एक आत्म जागृत समाज अधिक विक्सित होता हो। यह समाज अपने स्वभाव से प्रजातान्त्रिक होता है, और अंतःकरण की अधिक मान्यता के चलते इश्वर से अधिक नजदीक होता है। यह आवश्यक नहीं है की आदमी आस्तिक है या कि नास्तिक मगर यदि अंतःकरण की ध्वनि प्रबल है तो इस प्रशन की सार्थकता ही कम हो जाती है। फिर यह आराम से पंथ-निरपेक्ष भी हो जाता है। यह सत्य की अधिक तीव्रता से पहचानता है और स्वीकार करता है। यहाँ पाखण्ड न्यूनतम अथवा शुन्य होती है।
  हजारों सालों की  धर्मांध जीवन शैली जीने के बाद हमें यह तय करने की ज़रुरत है की हमे भविष्य में एक जागृत समाज निर्मित करना है या की एक अनुपालक समाज ही रह जाना है। स्वतंत्रता का अभिप्राय क्या होगा? मात्र यह की अंग्रेजो को धिक्कारना की उन्होंने भारत नाम की एक सोने की चिड़िया को लूट लिया ?
  वर्तमान के एक युवा राजनेता का मानना है की जनता को बहलाना अधिक आसान है , समझाना और निभाना मुश्किल। यह बात तो सही कह रहे हैं मगर चुनाव हमारा खुद का है की आसान काम करना है या मुश्किल।
प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक सिगमंड फेयुड के अनुसार maturity का अर्थ है दीर्घ-काल, विस्तृत लाभ के लिए छोटे,लघु लोभ का त्याग। चुनाव हमारा होगा की एक विस्तृत, सर्व-विकास के लिए क्या हम तुरत-लाभ को त्याग करने को तैयार हैं। हम आसान रास्ता लेते है या कि मुश्किल भरा । जनहित, या की भ्रष्टाचार ?
 
केजरीवाल जी जब आम आदमी शब्द का प्रयोग करते हैं तब उनका अभिप्राय होता है वह व्यति जो की कोई राज नेता, कोई उच्च पदस्थ नौकरशाह, कोई बड़ा सेलिब्रिटी नहीं हो। इसमें आम आदमी को कोई बहुत गुणवान, चरित्रवान कहने का  का अर्थ नहीं होना चाहिए। सिर्फ उसकी योग्यता पर प्रकाश डालना है, कि आम आदमी थोडा अंतःकरण जीवित है। बाकी के लिए तंत्र को बचाव कार्य शुरू करना होगा।
  अनुपालक गुणों वाले भारतीय समाज का एक सत्य यह भी है कि यहाँ के जन-नायकों में भी कोई जागृति नहीं होती है। हालत यह है की यह उच्च-कुलीन खुद भी इतने ही बड़े तर्क-विहीन, अल्प-बौद्धिक लोग हैं जितना की यहाँ की जनता। बल्कि शायद आम जनता के लोगों में ज्यादा काबिल लोग है बनस्पस्त इस उच्च कुलीन लोगों के जो की मात्र अपनी जन्म की दुर्घटना से इन जन-नायक के सामाजिक हद तक पहुचें हुए हैं।
  जन नेत्रित्व करना कोई साधारण कार्य नहीं होता। यह समाज को दिशा देने का कार्य होता है। नेतृत्व करने में बहोत से व्यवहारिक गुणों की आवश्यकता होती है। इन गुणों में भाषा, संवाद , विचार, उदहारण से नेत्रित्व, इत्यादि - सब ही प्रयोग होते हैं। जनता का विश्वास जीतने के लिए पारदर्शिता की आवश्यकता होती है।
 क्या आपको लगता है की मौजूदा जन नायकों में यह गुण विद्द्यमान हैं - ख़ास तौर पर राजनेताओं में।
  इससे भी महतवपूर्ण बात यह है कि यह सब खुद भी नियमों का उतना ही उलंघन करते है जितना की अबोध अज्ञानी मुर्ख आम आदमी। फर्क यह है कि यह सब एक और नियम तोड़ कर या फिर तंत्र में भ्रष्टाचार ला कर खुद बच निकलते हैं और फसता मात्र यह आम आदमी ही है।
  संक्षेप में कहे तो यहाँ कोई भी नेत्रित्व हमारी सामाजिक अबोधता का निवारण करने का इरादा नहीं रखता है, सब इसका लाभ लेना चाहते हैं।

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