नौकरशाही की चारित्रिक पहचान क्या होती है?

भले ही आप उन्हें सूट ,टाई और चमकते बूटों  में देख कर चंकचौध हो जाते हो, और उनकी प्रवेश परीक्षा की कठिनता के चलते आप पहले से ही उनके प्रति नत्मस्तक हो चुके हों,
पर वास्तव में नौकरशाही की भूमिका जनप्रशासन से उत्पन्न शक्तियों के विषय मे एक little demon (शैतान बौने) के जैसे होती है।

जी हां, अब क्योंकि आप हमेशा उनकी तारीफ़ के लेख ही पढ़ते आये हैं, लोक सेवा आयोग के कठिन और चतुर प्रश्नों के मोह से भ्रमित हो कर ही जिये हैं, इसलिए यह शैतान बौने वाला दृष्टिकोण शायद आपके मनमस्तिष्क से औझल हो चुका है।

किसी भी तंत्र में उसकी वास्तविक शक्ति उसके कानून लिख देने से नही, बल्कि कानून के उच्चारण और उसके व्यवहारिक अनुपालन (implementation) में होती है। यह वो काम है जो कि पूरी तरह नौकरशाही के ही काबू में रहता है। राजा (या कोई अन्य विधान का मूल रचियता) कभी भी खुद से देश मे हर जगह, हर पल, हर एक कालखंड में उपस्थित हो कर जांच तो कर नही सकता है कि क्या उसका बनाया कानून वास्तव में वैसे ही लागू हो रहा है जैसी की उसकी मंशा थी। लिखित और मौखिक भाषा आज भी उच्चरण की तम्माम कमियों से भरी हुई है। ऐसे में कानून के व्यवहारिक अनुपालन सिर्फ एक खेल बन जाता है राजा के इन सेवकों का , जिनके पास अक्सर करके राजा की तरफ से खुल्ली छूट होती है अपनी मनमर्ज़ी से कानून का उच्चारण करके अपनी ही तरह से उसे लागू करते रहें।

प्राचीन समय से ही एक विशेष कानून हमेशा से सभी अन्य कानूनों का चौखटा बन कर कार्य करता रहा है- कि, राजा या उसके मुलाज़िम कभी भी, किसी भी ग़लत के जिम्मेदार नही माने जाते हैं ।

अब अगर यह सच ही होता तो फिर प्रजातन्त्र किस तरह प्रकट हो पाता? यहां इसका समाधान यह रखा गया कि जनता के चुने हुए प्रतिनिधि ही कानून बनायेगे और तमाम विभागों के शीर्ष रह कर उनके व्यवहारिक कार्यपालन की देखरेख करेंगे। मगर यदि कुछ भी गलत हो गया तो फिर नौकरशाहों को जिम्मेदार नहीं माना जायेगा!
अब सवाल था कि ऐसे में जवाबदेही ही क्या रह जाती है? यह सवाल ही वास्तविक मानदंड बन गया कि देश मे वास्तव में कोई व्यवहारिक प्रजातन्त्र है, या की मात्र एक तमगा लगा है प्रजातन्त्र का जबकि व्यवाहरिक तौर पर *नौकरशाहों की ज़मीदारी* (bureaucratic feudalism) ही देश का भूमितल का सत्य है।

अच्छे प्रजातन्त्र देशो में यहां से ही प्रेस की भूमिका महत्वपूर्ण हो चली थी। प्रेस मीडिया को इस लिए ही "चौथा स्तंभ" पुकारा जाने लगा। चुने ही प्रतिनिधियों के पास parliamentary immunity होती है, ग़लत करने पर बच कर निकलने के लिए, नौकरशाहों के पास sovereign duty के सदाबहार बचाव तर्क होते हैं ग़लत करने पर सज़ा से बचने के, और judiciary के पास भी अपने independence judiciary के तर्क होते है, किसी भी जाँच या सज़ा से बचने के लिए।
ऐसे में प्रजातन्त्र व्यवस्था मात्र एक तमगा ही बन कर रह जाती है यदि उसको व्यवहारिकता से लागू करवाने का जिम्मा जनता खुद से न उठाये तो।

जनता जहां अपनी शक्ति को प्रतिनिधि चुन कर लगती है, वही एक कमी रह जाती है। यह कि अगर उसके चुने हुए प्रतिनिधि शैक्षिक और बौद्धिक तौर पर प्रबुद्ध न हों, तो वह आसानी से नौकरशाही के द्वारा नियंत्रित कर लिए जाते हैं, आपसी-मिलिभगति के शिकार बना लिए जाते हैं और फिर यह दोनों ही टैक्स और भ्रष्टाचार के द्वारा मिलबांट कर खाने के काम मे लग जाते हैं, बजाए की देश को एक सुचारू जनकल्याण व्यवस्था दे सकें।

यहाँ हमें नौकरशाही का शैतान बौने वाला चरित्र दिखई पड़ सकता है। नौकरशाही ही वह अंग होता है जिसके पास किसी भी आपराधिक मामले की जांच के संसाधन और शक्ति होती है। नौकरशाही ही वह अंग होती है जो कि तमाम विभागों की फाइलों को क्रियान्वित होने के लिए टेबल से टेबल लेती-जाती रहती है। यही वह छोटे-छोटे मगर महत्वपूर्व कदम होते हैं जिसमे वास्तव में प्रशासनिक शक्ति का निवास होता है। यदि यह शक्ति बेकाबू हो जाये तो वह ऐसे व्यवहार करने लगती है जब कोई बहोत बड़ा दार्शनिक एक मेज़ पर बैठा कोई बड़ा विशिष्ट लेख लिख कर समाप्त ही किया हो, और अचानक से एक छोटे मासूम से दिखने वाले बच्चे-नुमा इंसान ने आ कर मेज़ को नीचे से हिला कर स्याही की दवात को गिरा दिया हो और लेख को बहती स्याही से अपढ़ बना दिया हो।

नौकरशाही की भूमिका भी उसी छोटे मासूम से दिखने वाले बौने की तरह होती है - *little devil.* कानून के अनुपालन के समय आने वाली तमाम मुश्किलों को लागू करने में इनको ही कई सारे नियम (rules) बनाने की शक्ति होती है। यहां पर यह लोग वही स्याही बहाने वाले अपने चिर-परिचित कारगुजारियां करते रहते हैं। नियमों को ऐसा पेंचीदा बना देते हैं की वह अंततः अपढ़ बन जाता है और कोई भी जनता का इंसान आसानी से कुछ भी मांग कर ही नहीं सकता है। उसे नियमों के जंजाल में ऐसा बांध देते हैं कि यदि कुछ ग़लत हुआ हो तब फिर वह भुगतभोगी खुद ही उसका जिम्मेदार नज़र आने लगता है।

भारतीय प्रजातन्त्र की दिक्कत यही पर है। जनता उचित शिक्षिक और बौद्धिक क्षमता वाले प्रतिनिधि को आसानी से न तो पहचना कर सकती है, और न ही चुनाव कर पाती है। नतीज़ों में जो भी प्रतिनिधि शासन में आसीन होता है, वह इन्ही छोटे बौनों के ऊपर निर्भर हो जाता है प्रशासन देने में। क्षेत्रीय पार्टियों के साथ यह त्रासदी तो और भी आसानी से घटती है। उनके नेता तो और भी आसानी से नौकरशाही के काबू में आ जाते हैं क्योंकि केंद्रीय कानून, रक्षा विभाग , विदेश विभाग , इत्यादि कई विभागों की आवश्यकता को यह नेता सिर्फ नौकरशाही के माध्यम से ही निभा सकते है।

तो अन्तःत इन नेताओं की जरूरतें सिमट कर सिर्फ अपनी जेब भरने तक ही रह जाती है, क्योंकि बाकी कुछ भी जनकल्याण देने वाला प्रशासन उनके बस की बात नही रह जाता है।
अब नौकरशाही और चुने प्रतिनिधि , दोनों ही मिल कर "परस्पर सहयोग" में आ जाते है- जनता के जमा कराए टैक्स के माध्यम से विलासपूर्ण जीवन शैली जीने में। अगर कोई व्यापारी भी संग आ जाये तब यह लोग भ्रष्टाचार पर उतर आते है।

यह शैतान बौना ही नौकरशाही की सही चारित्रिक पहचान होती है।

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