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Showing posts from December, 2016

Subjectivity is the root of the evil of Discrimination

Subjectivity is the root of troubles. Subjective standards provide the inroads to ARBITRARINESS and DISCRETION to play havoc on RATIONALISM. Subjectivity leads to loss of Reasonability. People are unable to make out the why's and how's behind the action. The Rule is lost. Do we realize how all the Discrimination, the Color apartheid, the religion discrimination,  Caste discrimination, the Nepotism, the Favoritism walked into administration and governance ? The answer is Subjectivity. Coupled with Power of Discretion. It gives freedom to act whimsical and arbitrary , protected under the  guise of law. Yet the Human Resource Managers of modern times are not equipped to eliminate or even reduce the Subjectivity in evaluation of Ability. Mechanism as Interviews, use of immeasurable parameters for performance evaluation keep bringing the unexplained, irrational results. We want to end the Reservation Policy; we want the Able and Worthy people , yet we have no agreeable, imparti

Why 'Whatsapp forwards' by the BJP IT cell

the BJP IT Cell has a good reason why it prefers WHATSAPP over FACEBOOK . It is because the Whatsapp is not intelligently designed for any debate or discussions.  As the experienced users of the two social media platform can compare and detect, in FB one can make a response to what he does not agree with. Infact each *Post* has a chain of *comments* following and  each comment can have a chain on *Reply*. This way a lively discussion can happen leading to unraveling of the *sophistication, entanglements and the lies *. _ Free flowing_ *_Debates and Discussions_* have a natural property of disclosing the truth about any matter. More, if it is *crowd-sourced* .However the Truth is the greatest enemy of the liar *propagandist*. *Whatsapp* platform does not have these features. Over here, the unintended recipients will feel troubled by any debate or discussion they may not be interested in. The platform does not have features to show disagreements and cross-examine and scrutinise

तैमूर की कहानी

चंगेज़ तो शमम धर्म का अनुयायी था। काफी सारे लोग उसे मुस्लमान समझते है। एक हिंदी फ़िल्म में भी यही जताया है। मगर ऐसा नहीं है। हाँ, आगे की कहानी किसी मनमोहन देसाई की फ़िल्म जैसी है...मानो "अमर , अकबर, एंथोनी"   । क्योंकि चंगेज़ खान के मरने के बाद उसका साम्राज्य उसके चारों बेटों ने संभाला था। इसमें चंगु खान और मंगू खान से पूर्वी साम्राज्य संभाला, और चीन में राजधानी बनाई --- खान बालिक नाम से। यही शहर आगे बन कर आधुनिक बीजिंग बना। वहां इन्होंने चीन की प्रसिद्ध मिंग वंशावली की नीव डाली थी। और बड़ी बात, एक मनमोहन देसाई की फ़िल्म जैसी, यह थी की यह भाई बुद्ध धर्म के अनुयायी तब्दील हो गए। और चंगेज़ खान के दूसरे दो लड़के, हगलु खान के साथ पश्चिमी छोर से अपने पिता चंगेज़ खान का साम्राज्य संभाला। और यह लोग मुस्लमान धर्म के अनुयायी बन गए। है न मनमोहन देसाई की फ़िल्म जैसी वास्तविक कहानी !! एक ही पिता के चार बेटे -- दो हिन्दू, और दो मुस्लमान । तैमूर लंग एक मंगोल सिपाही था जो चंगेज़ खान की फ़ौज़ के साथ पश्चिमी राज्य समरकंद में आया था। वह मंगोल था इसलिए खुद को चंगेज़ का ही वंशज बताता था । उसे भविष्य में

Dilip Chandra Mandal जी के नाम खुला पत्र

"जाति तू क्यों नहीं जाती" @Dilip C Mandal जी, मुझे लगता है कि इस देश में आरक्षणवादी भी उतने ही बड़े ढकोसले वाले हैं जितना की आरक्षण-विरोधी। अगर किसी आरक्षण-विरोधी बॉस के जमीदारी के व्यवहार से आप परेशान हैं और फिर उसके स्थान पर कोई आरक्षण समर्थक आ जाये तो आप कतई यह अपेक्षा मत रखियेगा की अब आप को जमीदारी और सामंतीय व्यवहार से मुक्ति मिल जायेगी । बॉस आपका जैसा भी हो -- चाहे आरक्षण-विरोधी हो, चाहे आरक्षण-समर्थक हो, रहता वह जमीदारी दिमाग वाला ही है । कारण यह है कि आरक्षण समर्थकों को भी खुद असल में आरक्षण चाहिए "बॉस" के पद तक पहुँचाने के लिए। ताकि फिर वह लोग अपनी तरह का जमीदारी का डंडा चला सके। मगर चलेगा जमीदारी पना ही। इस देश में जमीदारी पने यानि सामंतवाद का असल में विरोधी तो कोई है ही नहीं। अतीत काल में सवर्ण लोगों ने जिस तरह के तर्क और व्यवहार करके समाज में भेदभाव , ऊँच-नीच फैलाया, तब उससे त्रस्त होकर उससे मुक्ति माँगने वालों ने आरक्षण का दामन पकड़ा। मगर अब खुद आरक्षण के भरोसे "बॉस" बनने पर वापस वही जमीदारी वाला तर्क और व्यवहार ही करते हैं। और फिर जब आरक्ष

व्यक्तिनिष्ठता और आत्ममुग्धता के बीच का जोड़

व्यक्तिनिष्ठता और आत्ममुग्धता में भी एक जोड़ है। सामंत लोग अक्सर करके आत्ममुग्धता मनोरोग (Narcissism Personality) से पीड़ित होते थे। आत्ममुग्ध मनोविकार से पीड़ित लोग अच्छा सामाजिक संपर्क नहीं रख सकते है। क्योंकि वह बात बात में खुद को केंद्र रख कर ही विचारों का मुआयना करते है। उनके लिए वह सही है जो उनको लाभ दे, और वह गलत है जो उनको हानि करे। वह दूसरों की दृष्टि से किसी कृत्य का मुआयना नहीं कर सकते हैं। आत्ममुग्धता एक प्रकार का austism disorder है, जब बाल्य अवस्था की मैं- मेरा-मुझे ( I-me-myself) से इंसान बाहर नहीं निकल पाता है। ऐसा व्यक्ति empathy नाम की मानव गुण को विक्सित नहीं कर पता क्योंकि वह दूसरों की दृष्टि से मुआयना नहीं करना जनता। और न्याय की दुविधा यह है की न्याय का जन्म होता है "don't do unto others, what you would not do unto yourself" के सिद्धांत से ("दूसरे पर वह मत करिये जो आप अपने साथ होना नहीं देखना चाहते")। autism शब्द का मूल अर्थ भी "आत्म केंद्रित" है। आत्म-मुग्धता यानि narcissism का अभिप्राय भी "आत्म केंद्रित" से जुड़ा हुआ है।

कलयुग में झूठ की marketing

Marketing क्या है ?? Marketing  एक बेहद अलंकृत शब्द है कलयुग में जनता को बुद्धू बना कर झूठ, फरेब, नुक्सानदेहक , नशीली वस्तु को बेचने का, एक "अवैध" वस्तु के व्यापार करने का। वास्तव में marketing का अर्थ अपने मूल भाव में था किसी  दुर्लभ, अपर्याप्त, मगर वैध व्यापारिक वस्तु की सहज बिक्री और व्यापार हेतु उस वस्तु को जनता के बीच पहुचाने का logistical क्रम बनाना, जिससे उस वस्तु की आसान उपलब्धता से उसकी सहज बिक्री को प्राप्त किया जा सके। जाहिर है की marketing के प्रासंगिक अर्थो में promotion और advertising भी आता है, क्योंकि जब कोई वस्तु दुर्लभ और अपर्याप्त होती है तब उसकी जन सूचना और जनता के बीच उसकी जानकारी भी कम होती है। इस बाधा को पार लगाने के लिए जिस पद्धति को उपयोग में लाया जाता है उसे promotion और advertising कहते है। मगर वर्तमान में marketing के मायनो में वह "दुर्लभ और अपर्याप्त" व्यापार की वस्तु एक "अवैध पदार्थ" है, जिसके व्यापार पर आरंभिक दिनों में प्रतिबन्ध माना गया था। आधुनिक जानकारी युग की  वह अवैध व्यापारिक वस्तु क्या है ? -- "एक बेबुनिया

व्यक्तिनिष्ठता भरा मूल्यांकन और थल सेना अध्यक्ष की नियुक्ति

सोचता हूँ कि योग्यता नापने का तराज़ू कौन सा प्रयोग किया गया होगा? कौन सा वस्तुनिष्ट, objective, मापन थर्मामीटर है योग्यता नापने का ? वरिष्ठता का तो पैमाना होता है , मगर योग्यता क्या ? क्यों supersede करवाया गया सेना अध्यक्ष को ? व्यक्तिनिष्ठता , यानि subjectivity सामंतवाद युग वाली न्याय व्यवस्था का वह चरित्र है जो की सभी प्रशासनिक बर्बादियों का जड़ था। subjectivity मनमर्ज़ी के कानून को जन्म देती है। प्रमाण और साक्ष्यों को अपनी सुविधा और पसंद से स्वीकृत या अस्वीकृत करने का मौका देती है। discretion और arbitrariness को ही कानून बना देती है। फिर यही से भेदभाव जन्म लेता है। रंगभेद, लिंगभेद, परिवारवाद nepotism, क्षेत्रवाद , जातिवाद , सब कुछ पनपता है। समाज के 80 प्रतिशत आबादी को 15 की आबादी नियंत्रित करने लगती है। वैसी सामाजिक , राजनैतिक और प्रशासनिक परिस्थितियां बनती हैं जिनके सुधार के लिए आज़ादी के युग में आरक्षण सुधार व्यवस्था का जन्म होता है। पश्चिम के समाज में सामंतवाद की  व्यक्तिनिष्ठता वाली इसी बदखूबी को खत्म करने के लिए Dicey's  rule of law और Driot Administratiff का जन्म हुआ। बेह

सांस्कृतिक इतिहास की एक कहानी -- गणराज्य और प्रशासनिक सुधारों का जोड़

प्रशासनिक सुधारों के इतिहास के दृष्टिकोण से समझें तब आभास आता है की आज़ादी हमें जीत कर नहीं, बल्कि भीख में मिली है। असल में आज़ादी पाने के तरीके की बहस का माहौल राजनैतिक या सांस्कृतिक नहीं है। लोग अकसर इस बहस को नेहरू और गांधी वाद से जोड़ देते है, सुभाष चंद्र बोस को दूसरा सिरा बना कर पूरी बहस राजनैतिक उठा पटक में चली जाती है। जबकि इस बहस का वास्तविक कक्ष प्रशासनिक सुधार है। आज़ादी के बाद हमने भारत को जब गणराज्य बनाने का संकल्प लिया तब हमने अपनी खुद की वेदना के सांस्क़तिक इतिहास से कोई सबक नहीं लिया। बल्कि अंग्रेज़ जो छोड़ कर जा रहे थे, उसको वैसा ही अपना लिया, और तीन साल बाद जो संविधान भी रचा तो उनके सांस्कृतिक इतिहास के पाठ को बिना सोचे समझे नक़ल कर लिया। नतीजा यह है आज हमने सबसे बड़ा संविधान लिख डाला है, मगर हमारे यहाँ rule of law है ही नहीं, कोई  उस संविधान का पालन कर्ता और संरक्षक है ही नहीं। क्योंकि हम यह चिंतन कभी कर ही नहीं पाये की हमने गुलामी में जो पीड़ा , क्रूरता, निर्दायित देखि और सहन करी, उसके वास्तविक कारण क्या थे।अधिकांश भारतवासी तो गुलामी की पीड़ा दयाक इतिहास में बस मुस्लिम