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Showing posts from January, 2020

Sharjeel Islam should NOT be stopped from presenting his views, it is his fundamentally guaranteed freedom -

Sharjeel Islam is B Tech and M Tech from IIT Bombay Actually he should always be allowed to speak , no matter he talks of breaking India into pieces. Back in 2009, during my Ship Master course , there was a topic on Piracy and Terrorism which we had to study in our curriculum Our curriculum is made from, largely,  the study of laws  - LAWS AT SEA. And Sea area is generally covered by UNITED NATIONS through internationally agreed laws, for the formation of any applicable law. To deal with acts of terrorism  a sea , there is one law known as the SUA Convention (Suppression of Unlawful Activity ) In the SUA , we have a question , * what is the internationally agreed definition of Terrorism? * And the answer we get to read is that THERE IS NONE. After this, there is long note , we read , as to why there could be no definition. The long note says that because One MAN'S TERRORIST is ANOTHER MAN'S FREEDOM FIGHTER . Now ,  There is the troubl

उत्तर भारत की छात्र राजनीति के विषय में

छात्र राजनीति पर एक और गंभीर बात है, जो की हमें "sir" या फ़िर "हाँसिल" जैसी फिल्मों से देखने को मिलती है। वह ये कि बहोत बड़ी आबादी राजनीति में असल में दिलचस्पी के नाम पर नशा कर रही होती है ! राजनीति में दिलचस्पी एक प्रकार का नशा होता है, यह जानकारी बहोत कम लोगों को है। राजनीति करने में इस किस्म की kick यानी नशे का आनंद का प्रभाव मिलता है मस्तिष्क को, और जो की युवाओं में बहोत पसंद किया जाता है -पुरुष और महिलाएं, दोनों ही। अपने प्रतिद्वंदी को तमाम तिकड़मों में हराने की कोशिश करते रहने में कुछ वैसा ही नशा मिलता है जैसा की सत्यजीत रे की फ़िल्म "शतरंज के खिलाड़ी" में दोनों नवाबों को शतरंज खेलने से मिलता था। यह वो आवश्यक आत्मज्ञान है, जो की लोगों के चिंतन से विलुप्त है। ये वो लोग हैं, बहोत बड़ी संख्या में, जो राजनीति को समाज और प्रशासन के साधन की तौर पर नही देखते-बूझते हैं , आर्थिक विकास को प्राप्त करने के लिए, या फिर की समाज के आसपास उचित नैतिकता और अध्यात्म का प्रभाव क्षेत्र निर्मित करने के लिए, उचित उदाहरण प्रस्तुत करके। यह आबादी विश्वविद्यालयों के य

To advocate Insulation is a devious way to ask people not to change their opinion.

Opinionated are the people who believe that by insulating away themselves from the left and the right, they can form an opinion which would serve best, either themselves or society. The most competitive and progressive Opinions are not truly FORMED, rather they are DISCOVERED. And the best place where one can make their discovery is the stream of conversation emerging from the conflict of ideologies. Therefore to form the most progressive and competitive opinion, people sho uld stay in the stream of running conversation. To advocate insulation to form your own best opinion is a clever way to ask people to become either the leftist or the rightist. And the rest, as it rightly goes, the greatest damage to peace and the progress have been done by those who have chosen to remain insulated and ignorant, thereby letting themselves to fall for "the leftist" or "the rightist". To advocate insulation is a devious way to ask people not to be overcome by another comp

दिल्ली विधानसभा चुनाव : पहचानिए , कौन है असली देश के गद्दार

आधुनिक प्रजातंत्र व्यवस्थाएं बहोत आगे निकल चुकी है राष्ट्रीय सुरक्षा संकट के दौरान आने वाले राजनैतिक सत्ता प्राप्ति के संघर्षों के प्रति। प्रजातंत्र व्यवस्थाओं की हमेशा से यह आलोचना होती आयी है कि जब राष्ट्र पर संकट आया है तब इन्ही प्रजातंत्रों से जन्म लिए नेता - Politicians - देश की सीमाओं से बहोत भीतर अपने सुरक्षित घरों में बैठे हुए सत्ता प्राप्ति की सौदेबाज़ी में व्यस्त रहते हैं, सैनिकों को आवश्यक संसाधनों पर सांप की कुंडली बनाये खुद के लिए सत्ता पाने की जुगत लगाते रहते हैं। यह आलोचना आम्रपाली जैसे प्रकरणों से सामने आती है जब अजातशत्रु आसानी से मगध राज्य को परास्त कर देते हैं। पश्चमी में 300 spartans नामक फ़िल्म में उनके इतिहास में घटी ऐसी त्रासदी को दर्शाया गया है। हालांकि आलोचना अमान्य नही है,  और इसलिये प्रजातंत्र व्यवस्थाओं ने politicians की इन मैली हरकतों से जन्म ले रही समस्याओं के निवारण के लिए बहोत प्रबंध करे हुए हैं। ब्रिटेन में पश्चमी विचारकों द्वारा यह जो द्विस्तरीय संसद (BiCameral Legislator) का निर्माण व्यवस्था थी,  वैसे यह भी इसी समस्या के निवारण के लिए ही करि गयी थी।

दिल्ली विधानसभा के चुनाव :- क्या है वैचारिक मूल मुद्दा इस चुनावो में ?

दिल्ली के विधानसभा चुनावों में ideological स्तर पर देखें तो फिर मुद्दा है संविधान बनाम राष्ट्र । भाजपा बार-बार " राष्ट्र " के इर्द-गिर्द जनमानस के भाव विभोर करने की कोशिश कर रही है , जबकि आआपा , कांग्रेस , और बाकी कई सारे दल बारबार अपील कर रहे हैं की मोदी शासन में संविधान संकट में है , यानी देश को प्रजातांत्रिक मूल्यों से चलाने के संकल्प का पालन नही किया जा रहा है। तो यह लड़ाई इस समय " राष्ट्र ' बनाम " प्रजातंत्र " की मानी जा सकती है। और दिल्ली चुनाव में जो भी पक्ष विजयी होगा , उसके अनुसार संदेश या जनादेश तय हो जायेगा की देशवासियों( या कहें तो कम से कम दिल्ली वासियों) को क्या चाहिए - " राष्ट्र " या फिर " प्रजातंत्र " ? संघ घराने की यह वैचारिक धारा रही है कि सबसे प्रधान होता है " राष्ट्र " , न कि उसको चलाने वाला मूल्य- वह आपसी संकल्प। यह एक विचारधारा आचार्य चाणक्य के जमाने से रही है कि जब अलक्षेन्द्र (यानी alexander) ने भारत पर हमला किया था, तब तय यह करना था इस भूमि के निवासियों को की क्या वह एक जुट होंगे इस " राष्ट्

Modern man and his knowledge societies

Knowledge-based society is producing its own kind of devils. Knowledge is being collected and being stored by people. The better use they are making use of this knowledge is somewhat like to play a quiz show to make great money. Knowledge is hardly being used to advance human societies, to take one more step forward towards the perfection, to search more values, the change the quality of our living. Knowledge is creating Intelligent people, those who can quickly store and quickly recall the vast pieces of knowledge, nomatter the selectively chosen knowledge or the mutually conflicting knowledge. The intelligent ones recall at their desire when 'prevention is better than the cure', and when they choice, 'the fore-warned is fore-armed'. The intelligent ones cannot do justice as to which to apply when. The intelligent ones are not at peace with themselves due to the immense mutually-conflicting knowledge repoitre they have developed. The intelligent ones are more egoist, m

Logic और भक्त

अरे भाई deductive logic  भी तो कोई चीज़ होती है , कि नहीं? अगर केह दिया गया है कि ' सूरज सर पर चमक रहा है ', तो क्या * deductive logic * को इंकार करते हुए यह बहस करोगे कि ' किसने कहा कि दिन हो रहा है ??' उसी तरह CAA कानून और उनके संशोधन के अभिप्राय, * deductive logic * सभी को समझ आ रहे हैं। बेकूफों जैसे बहस मत करते दिखो की किसने कहा कुछ वर्ग/धर्म के लोगों की नागरिकता ख़त्म होने का संकट है ! Deductive logic कुछ तो होती है। या कि पूरी दुनिया को ही ' * भक्त * ' * mental ability * समझते हो?

आखिर क्या गड़बड़ है बीमारू राज्यों की छात्र राजनीति में

ये शायद उत्तर प्रदेश, बिहार , पश्चिम बंगाल जैसे बीमारू राज्य ही है जहाँ की घटिया, आपराधिक राजनीति समूची देश की जनता को प्रेरित करती है JNU मामले में यह कहने के लिए की छात्रों को राजनीति में नही, class room में होना चाहिए। अन्यथा तो राजनीति जिन प्रक्रिया से जन्म लेती है - वह प्रक्रिया तो छात्र जीवन का सबसे महत्वपूर्ण अंश होता है क्योंकि ज्ञान की तलाश और मूल उत्पत्ति भी वही से होती है -- जिस वजहों से राजनीति और छात्रों के बीच एक अकाट्य संबंध होता है। वह प्रक्रिया है - मंथन । मगर बड़ी ज्ञान की बात है कि मंथन के कई प्रकार होते है, जिसमे कि JNU और यह बीमारू राज्य एक दूसरे से भिन्न है। शायद आम आदमी, जनता इस बारीकी को नही समझती है, और वह सीधे सीधे उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल जैसे राज्यों की छात्र राजनीति, अपराध औऱ यौन शोषण को जानते-समझते हुए यही प्रस्ताव लेती है कि छात्रों को तो राजनीति में आना ही नही चाहिए। जबकि मंथन प्रक्रिया के तमाम पहलुओं में मद्देनज़र यह तो असंभव विचार है। खुद भाजपा के ही दिग्गज़ नेता दिल्ली विश्वविद्यालय की छात्र राजनीति की देन थे और है। सूची में बड़े नाम हैं, जैसे स्व.

JNU के प्रति जन विरोधी माहौल, और जीवन मे Liberal Arts विद्यालयों का महत्व

जब आप JNU जैसी liberal arts संस्थानों को अपमानित करेंगे तब आपके घरों में मूर्ख ,अड़ियल और अल्प बुद्धि सन्तानें ही जन्म लेगा, बौद्धिक नही। भाजपा घराने और मोदी जी खुद की सबसे जानी-मानी "खूबी" है कि करण थापर ने चार सवाल क्या पूछ लिए थे, पानी पीना पड़ गया था। यह लोग प्रश्न का उत्तर नही दे सकते हैं। अर्थात कि स्वतंत्र , स्वछन्द चिंतन नही है इनमें जो की समस्याओं के मूल कारक को सटीकता से पहचान कर के उसके समाधान दे।  यह लोग संसद में अपने सांसदों की उपस्थति कम होने पर उसे सज़ा तो देते हैं, मगर संसद के भीतर, बाहर कभी भी सवाल पूछने या तर्क- संवाद में शमल्लीत होने में भयभीत , व्याकुल हो जाते हैं। जबकि संसद और कोर्ट संस्थाएं बनाई ही गयी होती है तर्क-संवाद करने के लिए। तो यह लोग कुछ ऐसे है की सिर्फ इन्हें स्कूल जाना ही पसंद आता हैं, मगर स्कूल में होने वाली पढ़ाई लिखाई का काम पसंद नही !! तर्क की आवश्यकता मानव जीवन और समाज में महत्वपूर्ण है। तर्क ही मन को मोहित करते हैं, प्रेरणा देते हैं, व्याकुलता को शांत करते हैं, कर्म और निर्णय को दृढ़ बनाते हैं। तर्क से इंसान निष्पक्षता और न्याय करने के उच

जय शाह का जादूई करिश्मा

जय शाह, अमित शाह का बेटा, ने क्रिकेट बोर्ड ,BCCI के कोषाध्यक्ष बनते ही एक और दैविक करिश्मा कर दिखाया है। रातों रात उन्होंने मात्र 27 followers से बढ़ते हुए 10000 से भी अधिक followers प्राप्त कर लिए, वह भी एक भी tweet किये बगैर ! और साथ ही में twitter की तरफ से प्रमाणिकता का चिन्ह - double tick का निशान भी प्राप्त कर लिया। यह जय शाह के पहले वाले दैविक करिश्मे से कम नही था जब उन्होंने विमुद्रिकारण वाले वर्ष में एक कंपनी बनाई मात्र 80 हज़ार रुपये में, और अगले ही साल 1600 करोड़ का कारोबार करके, मुनाफा देकर वह कंपनी कंगाल हो कर बंद भी हो गयी। दलित और पिछड़े वर्ग से आये एक जाने माने पत्रकार दिलीप चंद मंडल को भी ट्विटर ने प्रमाणिकता का चिन्ह से अभी तन नवाज़ा नही है, जबकि उनके लेख बीबीसी  पर आये दिन प्रकशित होते हैं। twirter दिलीप मंडल को इतने लेखों के बावजूद नही जानता, और जय शाह को एक भी tweet किये बगैर जान जाता है। यहाँ तक कि दिलीप मंडल के profile को कुछ दिन पहले twitter ने अवरोधित भी कर दिया था, हालांकि शिकायतें और पक्षपात के आरोप आने पर उसे जल्द ही अवरोध हटाने पड़े थे। Twitter के शीर्ष भारत

Project Artificial Democracy : Instigated is NOT same as the Agitated

* Instigated is NOT same as Agitated * I think that the Ruling party is conspiring to exploit a farcical "truth" that a protest should not be violent . The hidden misbelief that the Ruling party wants the common people to buy through this farcical "truth" is that all the protests that happen against the Government are basically MOTIVATED, and a result of the Opposition parties' conspiracy. BY ACCEPTING the farcical Truth , the common man sub-consciously begins to accept that violence during a protest is not a NATURAL reaction of the agitated masses BY THEIR OWN WILL , BUT NECESSARILY coming from the INSTIGATION they have received from handwork of the Opposition parties. And therefore , the common man falls prey to justifying the VIOLENCE action done by the state forces AGAINST the common man involved in a protest ,  BY ASSUMING that all the violence during a protest is always a SPONSORED event , and NEVER from the NATRUAL REACTION OF AN AGITATED CR

JNU की राजनीति बनाम उत्तर प्रदेश की छात्र राजनीति

हालांकि JNU में हुई छात्र दलों की झड़प की घटना के बाद हुए वाराणसी के संस्कृत विश्वविद्यालय के छात्र संघठन चुनावों में abvp की शिकस्त हुई है,  मगर निर्मोह में विचार मंथन किया जाये तो उत्तर प्रदेश की छात्र राजनीति में आदर्शों और मानकों के प्रति संघर्ष निम्म है, बल्कि समूचा संघर्ष ही शक्ति हरण का होता है - प्रशासनिक शक्ति को व्यक्तिगत मनमर्ज़ी से भोग करने का संघर्ष। उत्तर प्रदेश की विधान सभा की राजनीति में भी नेताओं में आदर्शों के प्रति झुकाव कमज़ोर है। यहां की राजनीति जाति के संघर्ष की है - कि फलां-फलां जातियों को शक्ति सम्पन्न होने से रोकना है। और जातियों की पहचान कुलनाम के प्रयोग से ही है, किसी ख़ास किस्म के चारित्रिक , सांस्कृतिक या आदर्शों के पहचान से नही है। यह सब ही समझा सकता है की क्यों यह प्रदेश बद से बदत्तर हुआ जा रहा है, तथा यह कि क्यों प्रदेश का राजनैतिक मुद्दा प्रशासनिक व्यवस्था - law and order का है। यह सब बाकी अन्य सम्पन्न आर्थिक राज्यों से काफ़ी भिन्न है, जहां की विधान सभा की राजनीति होती है व्यापारिक अंश को कब्ज़ा करने के, सरकारी ख़ज़ाने से बड़े मूल्यों के business contracts

JNU जैसे संस्थान क्यों ज़रूरी होते हैं प्रजातंत्रों के लिए

प्रजातंत्रों का अस्तित्व बिना liberal arts के उच्च गुणवत्ता विश्वविद्यालयों के सम्भव नही होता है। विश्वविद्यालय और उनके भीतर चलने वाली वाद-विवाद ही मंथन की वह प्रक्रिया होती है जिससे शोध होते हैं, अंतर्मन निखरता है, पैना बनता है, नए मानक तलाशता है। यह जो आज हमारा समाज जो सदियों की नारी दमन वाली परम्पराओं से होता हुआ समानता के अधिकारों तक पहुंचा है, जो ग़ुलामी और शोषण से मुक्त होता है वैश्वीकरण में गया है, -- यह सब यूँ नही हुआ है -- इसके लिये इंसानियत के नए मानक को निरन्तर तलाश यात्रा करनी पड़ी है समाज को , तब जाकर यह पर पहुंचे है। और यह सब तलाश मोदी जी ने नही करि है। पश्चिमी दुनिया के उच्च कोटि विश्वविद्यालयों ने करि है - oxford, harward, ivy league ने करि है। JNU हमारे देश का एक प्रयास था उसी मानक को भारत मे भारत मे भी प्राप्त करने का। अफसोस है कि भारतीय राजनैतिक व्यवस्था में political neutrality को सुनिश्चित करने के प्रबंध ही उपयुक्त नही है। मुझे पक्का विश्वास है कि बहोत बड़ी मूर्ख आबादी यह समझती है कि सोध का अभिप्राय बहोत सारे लोग -प्रायः भक्त वर्ग - विज्ञान और प्रयोद्योगिकी से सम

गदहे को hero कैसे साबित कर सकते हैं ?

भाई, भक्तों की तारीफ एक बात पर तो खुल कर करनी ही होगी। कि उन्होंने गदहे को hero साबित कर देने का जो challenge लिया था, उसको पूरा करने के लिए क्या खूब रणनीतियां चलाई थी और अभी तक दो बार लोकसभा चुनावों में जीत दर्ज़ कर चुके हैं। आप शांत मन से और सभी विरोध विचारो को समाप्त करके उनकी रणनीतियों, उनकी चाल की समीक्षा करें कि कैसे किया उन्होंने गदहे को हीरो साबित। गदहे के पारिवारिक इतिहास एकदम अमान्य था जिससे उनमे कुछ भी हीरो जैसा दिखाई पड़े। वह घर छोड़ कर भागा हुआ था, अपनी शादी के तथ्य को दुनिया से छिपाया हुआ था; वह कहीं किसी और स्त्री पर मुहँ मारी कर रहा था, वह स्कूली शिक्षा से महरूम रहा था, अनपढ़-गँवार था , और गुंडागर्दी, असामाजिक तौर-तरीकों में श्रेष्ठ । तो फिर कैसे साबित होता ऐसा परम नालायक गदहा, एक hero ? रणनीति के अनुसार सबसे प्रथम तो उसके सबसे बड़े विपक्ष के नेता को पप्पू की छवि - perception - में trap कर देना था। रणनीति का सिद्धांत साफ-साफ है - जब आप अपनी खींची लकीर को लंबा नही कर सकते हैं, तो दूसरे की लकीर को ही मिटाने की कोशिश करो !! (उल्टी-खोपड़ी उद्देश्यों की रणनीतिय

Terrorism cannot be stereotyped from the clothes or the religion of a person

Just wondering what do people understand from the word "Terrorist" ? As I see, some people seem to say that "Terrorist" word applies to person of some specific (or say, "listed") class and Religion. Others have different opinion In my thinking, "Terrorist" means only that persons who use the means of Violence against innocent(=unaware) masses  in order to achieve their political demands. The important point is that use of violence in certain cases is waived of- especially the case of DIMINISHED RESPONSIBILITY . Also , it must be highlighted that having a Political Demand TO SEPARATE AWAY from the state is not the wrong which should be resisted by any civilized society , but ONLY THE COMPONENT of PUBLIC VIOLENCE. Therefore , a political demand of any kind , INCLUDING THE SECESSION cannot be held invalid merely on the face of it . Because, otherwise, what will be the difference between an OCCUPATIONIST and a FREE COUNTRY . THEREFORE mere

सेवा और व्यवसाय के मध्य अन्तर करने की बौद्धिक जागृति चाहिए भारत के समाज को

शायद महाभारत काल से लेकर आजतक भारतीय समाज मे सेवा और व्यवसाय के मध्य भेद कर सकने की बौद्धिक प्रवीणता आजतक विकसित नही हो सकी है। यह सवाल महाभारत काल मे भी उठा था कि महाराज भरत के दत्तक पुत्र शांतनु के उपरांत आने वाली पीढ़ी में ऋषि व्यास के दोनों पुत्रों में अगला महारज किसे बनाना चाहिए - बड़े पुत्र, धृतराष्ट्र को जो कि अंधे थे, या की छोटे पुत्र पांडु को, जो कि अनुज थे। राजा की योग्यता का सवाल यही से उठा था की महाराज बनने की योग्यता क्या होनी चाहिए। * मगर लगता है कि इस सवाल के समुन्द्र मंथन में से निकलते तमाम सिद्धांत आज भी भारत के जनगण को उचित बौद्धिकता नही दे सके है। * भारत की जनता आज भी * सेवा * और * व्यवसाय * के भेद और उसके महत्व को समझ नही सकी है। * योग्यता * का प्रश्न महाराज बनाये जाने की विषय मे ही प्रधान होता है, न कि किसी चर्मकार की संतान को अगले चर्मकार बनाये जाने के विषय मे। या की किसी ग्वाल के पुत्र को अगले ग्वाल बनाये जाने के विषय मे। क्यों? क्या चर्मकार या ग्वाल बनने के लिए * योग्यता * की आवश्यकता नही महत्वपूर्ण होती है। क्यों हम महाराज नियुक्त किये जाने के

Cultural Sickness में से निर्मित भक्तों का भ्रमपूर्ण कुतर्क

हमारे एक भक्त-विरोधी मित्र बड़ा अटपटा सा आचरण करते देखे जा सकते हैं #CAA यानी नागरिकता संसोधन कानून के विषय मे। यह मित्र हैं तो किसी पिछड़ी या दलित आरक्षित जाति से ही, और अधिकांतः भक्तों और आरएसएस के विरोध में रहते हैं, मगर यहां #CAA में वह मोदी जी और भक्तों के पक्ष में मोर्चा थामे हुए हैं। ऐसे क्यों? क्या वज़ह है उनकी इस कानून को समर्थन देने के प्रति? जब यह सवाल मेरे ज़ेहन में आया तो भाग्यवश उत्तर ढूढंने का मार्ग इस बात से प्रशस्त हो गया कि वह मित्र बंधु एक लेख़क है और इसलिए सवाल का उत्तर सीधे मुंह-जबानी प्रशन के बजाए उनके लेखन में छिपे उनके विचारों में से ढूंढ सकने की संभावना मिल गयी। सीधे, मुंह जबानी जवाबों में अक्सर इंसान कुछ तुरंत प्रभावी विचार के आवेश में आ कर सटीकता से अपनी बात रख नही पाता है। इससे न तो अपनी अच्छे आत्मीय सपंर्क का उद्देश्य सधता है, न उत्तर पता चल पाता है। लंबे , दीर्घकालीन चलते आ रहे लेखी में ज़्यादा बेहतर अवसर मिलते हैं इंसान को जानने-समझने के। तो फिर भाग्यवश उस मित्र ने एक लेख इस विषय पर भी लिख ही दिया कि वह क्यो #CAA विषय पर मोदी जी के पक्ष में है