दिल्ली विधानसभा चुनाव : पहचानिए , कौन है असली देश के गद्दार
आधुनिक प्रजातंत्र व्यवस्थाएं बहोत आगे निकल चुकी है राष्ट्रीय सुरक्षा संकट के दौरान आने वाले राजनैतिक सत्ता प्राप्ति के संघर्षों के प्रति। प्रजातंत्र व्यवस्थाओं की हमेशा से यह आलोचना होती आयी है कि जब राष्ट्र पर संकट आया है तब इन्ही प्रजातंत्रों से जन्म लिए नेता - Politicians - देश की सीमाओं से बहोत भीतर अपने सुरक्षित घरों में बैठे हुए सत्ता प्राप्ति की सौदेबाज़ी में व्यस्त रहते हैं, सैनिकों को आवश्यक संसाधनों पर सांप की कुंडली बनाये खुद के लिए सत्ता पाने की जुगत लगाते रहते हैं।
यह आलोचना आम्रपाली जैसे प्रकरणों से सामने आती है जब अजातशत्रु आसानी से मगध राज्य को परास्त कर देते हैं। पश्चमी में 300 spartans नामक फ़िल्म में उनके इतिहास में घटी ऐसी त्रासदी को दर्शाया गया है।
हालांकि आलोचना अमान्य नही है, और इसलिये प्रजातंत्र व्यवस्थाओं ने politicians की इन मैली हरकतों से जन्म ले रही समस्याओं के निवारण के लिए बहोत प्रबंध करे हुए हैं। ब्रिटेन में पश्चमी विचारकों द्वारा यह जो द्विस्तरीय संसद (BiCameral Legislator) का निर्माण व्यवस्था थी, वैसे यह भी इसी समस्या के निवारण के लिए ही करि गयी थी। संसद के भीतर एक सदन प्रतिनिधत्वि करता था मनमोहक जनभावना का, और एक सदन प्रतिनिधत्वि करता था उचित, विवेकपूर्ण ज्ञान का। Popular Choice और Right Choice के बीच अन्तर के ज्ञान को जाना जाता रहा है, और इस अन्तर से उत्पन्न संकट को पहचान लिया गया था। आरम्भ में इसीलिये ही ऊपरी संसद में देश के गणमान्य , प्रसिद्ध , उच्च शिक्षित लोगों को निर्वाचित किया जाता रहा है। हालांकि वर्तमान में politicians ने दोनों ही संसद भवनों को प्रदूषित कर दिया है और हर जगह politicians ही बैठा दिये है, नियामो में tweak कर-कर के।
अमेरिका में दो सदनों को निर्माण का उद्देश्य ब्रिटेन की इस व्यवस्था से अलग तर्कों पर आधारित रही है।
तो संघ शायद यह कहता है कि वह प्रजातंत्र के प्रशासनिक संकल्प को अपने "राष्ट्र" में निभाये गया तो, मगर सिर्फ "देशभक्त" लोगों से ही पूछा जाया करेगा। संघ का "जनमानस" केवल "राष्ट्र भक्त" लोगों से बनता है, और राष्ट्रभक्त की शिनाख़्त देने का कार्य संघ खुद से खुद को ही दे देता है !!
अब यह हमे और आपको सोचना है कि राष्ट्र भक्त की पहचान कैसे करवानी है? क्या यह बात संघ निर्धारित करेगा, या कि यह प्रश्न भी प्रजातंत्र के जीव "जनमानस" के हवाले छोड़ी जा सकती है, यह समझते हुए की प्रजातंत्र व्यवस्था में प्रावधान हैं कि "जनमानस" को अवसर मिल सके राष्ट्रभक्त से राष्ट्रद्रोही को अलग कर देने के?
आधुनिक काल में यह बिल्कुल संभव है कि विदेशी आक्रमणकारी लोग न सिर्फ सैनिकिया तौर पर , बल्कि आर्थिक और वाणिज्य मार्गों से आपके जनमानस को दूषित करके आपको ग़ुलाम बना लें। आज कल के युग में देश एक दूसरे पर सैनिकिया हमलों से कहीं अधिक वाणिज्य आक्रमण करते हैं। और फ़िर multi national coporations तो राष्ट्रवाद के भी परे निकल चुके हैं। वह तो सिर्फ मुनाफों के लिए लड़ते हैं, और इनमें वह लोग सरकारों को खरीद कर उसको जनमानस के ख़िलाफ़ प्रयोग करने लगे हैं।
सवाल है की क्या संघ इस प्रकार के संघर्ष के प्रति जागृत है या नही? सवाल है की मोदी सरकार की नीतियां कही भारत के जनमानस को गरीबी, महंगाई, शोषण से बचाव दे सकने प्रति वचन बद्ध है या नही? जिस तेज़ी से वह निजीकरण कर रहे हैं, वह देश वासियों को तो "विदेशी ताकत" और "पाकिस्तान" में उलझा दे रहे हैं, जबकि खुद भीतर से सब कुछ outsource कर दे रहे हैं। देश के श्रमिक कानून आज की तारीख में इतने सशक्त नही है , न ही देश के न्यायालयों में उद्योगिक अनुभव वाले उचित न्यायधीश विराजमान है जो कि देश की बड़ी आबादी को private sector में होने वाले शोषणों से बचाव दे सके। मोदी सरकार उसी शोषण कारी ताकतों की agent बन गयी है, और बचावकारी ताकतों को "वामपंथी" नामक किसी "बदनाम" शक्ति केह कर दुत्कार रही है। आज railways में होने वाले श्रमिक शोषण के प्रति खुद CAG ने तक माना है। private कंपनियां मुनाफ़ा कमाने के लिये कम लोगों को नौकरी पर रखती है, श्रमिक कानूनों का उलंघन करते हुए, और उनसे श्रमिक मानकों से कहीं अधिक काम वसूलती है। जबकि वह railways से ठेके की कीमत बराबर श्रमिक मानकों के अनुसार वसूलती है।
मोदी सरकार वास्तव में "राष्ट्र" के नाम पर देश वासियों को अभी भी सैनिकिय हमले के प्रति उलझाये हुए है, जबकि खुद private sector की एजेंट बनी हुई देश वासियों को श्रमिक शोषण में झोंकों जा रही है।
यह वह राष्ट्र के प्रति आक्रमण है जिसमे खुद मोदी सरकार ही "देश भक्त" नही है, बल्कि देशद्रोही है। वह नही चाहती है की जनमानस उनके देशद्रोह को देख ले।
यह आलोचना आम्रपाली जैसे प्रकरणों से सामने आती है जब अजातशत्रु आसानी से मगध राज्य को परास्त कर देते हैं। पश्चमी में 300 spartans नामक फ़िल्म में उनके इतिहास में घटी ऐसी त्रासदी को दर्शाया गया है।
हालांकि आलोचना अमान्य नही है, और इसलिये प्रजातंत्र व्यवस्थाओं ने politicians की इन मैली हरकतों से जन्म ले रही समस्याओं के निवारण के लिए बहोत प्रबंध करे हुए हैं। ब्रिटेन में पश्चमी विचारकों द्वारा यह जो द्विस्तरीय संसद (BiCameral Legislator) का निर्माण व्यवस्था थी, वैसे यह भी इसी समस्या के निवारण के लिए ही करि गयी थी। संसद के भीतर एक सदन प्रतिनिधत्वि करता था मनमोहक जनभावना का, और एक सदन प्रतिनिधत्वि करता था उचित, विवेकपूर्ण ज्ञान का। Popular Choice और Right Choice के बीच अन्तर के ज्ञान को जाना जाता रहा है, और इस अन्तर से उत्पन्न संकट को पहचान लिया गया था। आरम्भ में इसीलिये ही ऊपरी संसद में देश के गणमान्य , प्रसिद्ध , उच्च शिक्षित लोगों को निर्वाचित किया जाता रहा है। हालांकि वर्तमान में politicians ने दोनों ही संसद भवनों को प्रदूषित कर दिया है और हर जगह politicians ही बैठा दिये है, नियामो में tweak कर-कर के।
अमेरिका में दो सदनों को निर्माण का उद्देश्य ब्रिटेन की इस व्यवस्था से अलग तर्कों पर आधारित रही है।
तो संघ शायद यह कहता है कि वह प्रजातंत्र के प्रशासनिक संकल्प को अपने "राष्ट्र" में निभाये गया तो, मगर सिर्फ "देशभक्त" लोगों से ही पूछा जाया करेगा। संघ का "जनमानस" केवल "राष्ट्र भक्त" लोगों से बनता है, और राष्ट्रभक्त की शिनाख़्त देने का कार्य संघ खुद से खुद को ही दे देता है !!
अब यह हमे और आपको सोचना है कि राष्ट्र भक्त की पहचान कैसे करवानी है? क्या यह बात संघ निर्धारित करेगा, या कि यह प्रश्न भी प्रजातंत्र के जीव "जनमानस" के हवाले छोड़ी जा सकती है, यह समझते हुए की प्रजातंत्र व्यवस्था में प्रावधान हैं कि "जनमानस" को अवसर मिल सके राष्ट्रभक्त से राष्ट्रद्रोही को अलग कर देने के?
आधुनिक काल में यह बिल्कुल संभव है कि विदेशी आक्रमणकारी लोग न सिर्फ सैनिकिया तौर पर , बल्कि आर्थिक और वाणिज्य मार्गों से आपके जनमानस को दूषित करके आपको ग़ुलाम बना लें। आज कल के युग में देश एक दूसरे पर सैनिकिया हमलों से कहीं अधिक वाणिज्य आक्रमण करते हैं। और फ़िर multi national coporations तो राष्ट्रवाद के भी परे निकल चुके हैं। वह तो सिर्फ मुनाफों के लिए लड़ते हैं, और इनमें वह लोग सरकारों को खरीद कर उसको जनमानस के ख़िलाफ़ प्रयोग करने लगे हैं।
सवाल है की क्या संघ इस प्रकार के संघर्ष के प्रति जागृत है या नही? सवाल है की मोदी सरकार की नीतियां कही भारत के जनमानस को गरीबी, महंगाई, शोषण से बचाव दे सकने प्रति वचन बद्ध है या नही? जिस तेज़ी से वह निजीकरण कर रहे हैं, वह देश वासियों को तो "विदेशी ताकत" और "पाकिस्तान" में उलझा दे रहे हैं, जबकि खुद भीतर से सब कुछ outsource कर दे रहे हैं। देश के श्रमिक कानून आज की तारीख में इतने सशक्त नही है , न ही देश के न्यायालयों में उद्योगिक अनुभव वाले उचित न्यायधीश विराजमान है जो कि देश की बड़ी आबादी को private sector में होने वाले शोषणों से बचाव दे सके। मोदी सरकार उसी शोषण कारी ताकतों की agent बन गयी है, और बचावकारी ताकतों को "वामपंथी" नामक किसी "बदनाम" शक्ति केह कर दुत्कार रही है। आज railways में होने वाले श्रमिक शोषण के प्रति खुद CAG ने तक माना है। private कंपनियां मुनाफ़ा कमाने के लिये कम लोगों को नौकरी पर रखती है, श्रमिक कानूनों का उलंघन करते हुए, और उनसे श्रमिक मानकों से कहीं अधिक काम वसूलती है। जबकि वह railways से ठेके की कीमत बराबर श्रमिक मानकों के अनुसार वसूलती है।
मोदी सरकार वास्तव में "राष्ट्र" के नाम पर देश वासियों को अभी भी सैनिकिय हमले के प्रति उलझाये हुए है, जबकि खुद private sector की एजेंट बनी हुई देश वासियों को श्रमिक शोषण में झोंकों जा रही है।
यह वह राष्ट्र के प्रति आक्रमण है जिसमे खुद मोदी सरकार ही "देश भक्त" नही है, बल्कि देशद्रोही है। वह नही चाहती है की जनमानस उनके देशद्रोह को देख ले।
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