सेवा और व्यवसाय के मध्य अन्तर करने की बौद्धिक जागृति चाहिए भारत के समाज को

शायद महाभारत काल से लेकर आजतक भारतीय समाज मे सेवा और व्यवसाय के मध्य भेद कर सकने की बौद्धिक प्रवीणता आजतक विकसित नही हो सकी है।
यह सवाल महाभारत काल मे भी उठा था कि महाराज भरत के दत्तक पुत्र शांतनु के उपरांत आने वाली पीढ़ी में ऋषि व्यास के दोनों पुत्रों में अगला महारज किसे बनाना चाहिए - बड़े पुत्र, धृतराष्ट्र को जो कि अंधे थे, या की छोटे पुत्र पांडु को, जो कि अनुज थे।
राजा की योग्यता का सवाल यही से उठा था की महाराज बनने की योग्यता क्या होनी चाहिए। *मगर लगता है कि इस सवाल के समुन्द्र मंथन में से निकलते तमाम सिद्धांत आज भी भारत के जनगण को उचित बौद्धिकता नही दे सके है।*

भारत की जनता आज भी *सेवा* और *व्यवसाय* के भेद और उसके महत्व को समझ नही सकी है।

*योग्यता* का प्रश्न महाराज बनाये जाने की विषय मे ही प्रधान होता है, न कि किसी चर्मकार की संतान को अगले चर्मकार बनाये जाने के विषय मे। या की किसी ग्वाल के पुत्र को अगले ग्वाल बनाये जाने के विषय मे।
क्यों? क्या चर्मकार या ग्वाल बनने के लिए *योग्यता* की आवश्यकता नही महत्वपूर्ण होती है।
क्यों हम महाराज नियुक्त किये जाने के विषय मे यह तर्क और सिद्धांत नही लगा सकते हैं कि जैसे किसी चर्मकार की संतान स्वतः चर्मकार ही बनती है, तो फिर राजा की संतान को ही अगला नरेश बनाया जाना चाहिए। या कि नेता के पुत्र को अगले पुत्र ?
कारण है कि बाकी अन्य कार्य व्यापारिक प्रवृत्ति के होते हैं - बाज़ार की स्वेच्छा पर निर्भर करते है। यदि किसी खरीदार को कोई उत्पाद पसंद नही है, तब वह दूसरी दुकान पर जा कर दूसरा कुछ खरीद सकता है। मगर नरेश या महाराज का पद बाजार वाले तर्ज़ पर नही चलता है। दूसरा, की उसके पास राजदंड होता है - जिससे वह किसी भी ग़लत करने वाले को दंड देने का अधिकारी बन जाता है।

ऐसे में कोई नरेश का योग्य होना आवश्यक है कि वह उचित अन्तर्मन , उचित न्याय, उचित भाव से जन सेवा करेगा।
मगर बाकी किसी भी व्यक्ति - कौशल कार्य के पास यह सब कर्तव्य नही होते है। न तो राजदंड होता है, न ही उसे न्याय करने के उत्तरदायित्व का निर्वाहन करना होता है।

तो ज़ाहिर है कि राजा या नरेश की नियुक्ति को इस उपमा पर करने का तर्क अपर्याप्त है कि मात्र क्योंकि उसके पिता भी नरेश थे, इसलिए वही अगला नरेश माना जाना चाहिए, जिसके पास आवश्यक योग्यता होगी।
स्मरण करें कि रामायण काल के दौरान भी यही सवाल राजा राम और भरत के  अयोध्या नरेश नियुक्त किये जाने के समय मंथन हुआ था। राम ने वनवास पर जाने से पूर्व भारत के नरेश नियुक्त किये जाने के विषय मे उनकी योग्यता के प्रति जन समूह को यही समझाया था। किष्किंधा नरेश बाली के वध से पूर्ण उनके छोटे भाई सुग्रीव को नियुक्त करने पर यही मंथन फिर हुआ था। बाली ने नरेश रहते हुए सुग्रीव की पत्नी को हर लिया था, जो कि एक नरेश के पद को शोभा नही देता था।
और रावण के वध के उपरांत उसकी राजपाठ और प्रशासनिक कौशल पर यह योग्यता का प्रश्न दुबारा सामने आया था।

*सेवा* और *व्यवसाय* में अन्तर होता है। *योग्यता* का प्रश्न सेवादार कार्यों और पदों के प्रति महत्वपूर्ण होता है, न कि व्यवसाय के विषय मे।
और इसलिए नरेश की नियुक्ति उस तर्क पर नही करि जा सकती है जिस तर्क पर व्यावसायिक कौशल में होता है।

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