JNU की राजनीति बनाम उत्तर प्रदेश की छात्र राजनीति
हालांकि JNU में हुई छात्र दलों की झड़प की घटना के बाद हुए वाराणसी के संस्कृत विश्वविद्यालय के छात्र संघठन चुनावों में abvp की शिकस्त हुई है,
मगर निर्मोह में विचार मंथन किया जाये तो उत्तर प्रदेश की छात्र राजनीति में आदर्शों और मानकों के प्रति संघर्ष निम्म है, बल्कि समूचा संघर्ष ही शक्ति हरण का होता है - प्रशासनिक शक्ति को व्यक्तिगत मनमर्ज़ी से भोग करने का संघर्ष।
उत्तर प्रदेश की विधान सभा की राजनीति में भी नेताओं में आदर्शों के प्रति झुकाव कमज़ोर है। यहां की राजनीति जाति के संघर्ष की है - कि फलां-फलां जातियों को शक्ति सम्पन्न होने से रोकना है। और जातियों की पहचान कुलनाम के प्रयोग से ही है, किसी ख़ास किस्म के चारित्रिक , सांस्कृतिक या आदर्शों के पहचान से नही है।
यह सब ही समझा सकता है की क्यों यह प्रदेश बद से बदत्तर हुआ जा रहा है, तथा यह कि क्यों प्रदेश का राजनैतिक मुद्दा प्रशासनिक व्यवस्था - law and order का है। यह सब बाकी अन्य सम्पन्न आर्थिक राज्यों से काफ़ी भिन्न है, जहां की विधान सभा की राजनीति होती है व्यापारिक अंश को कब्ज़ा करने के, सरकारी ख़ज़ाने से बड़े मूल्यों के business contracts को छेकने की ।
उत्तर प्रदेश में घोटाले भी होते हैं तो किस किस्म के ? -- पुलिस में भर्ती के, अध्यापक नियुक्ति के, सरकारी नौकरी पाने के। !!
यह सब पिछड़े पने के लक्षण हैं। आर्थिक सम्पन्न राज्यों में घोटाले होते है किसी सार्वजनिक कार्य के सरकारी contract को छेक कर अपने से संबंधित निज़ी कंपनी को देने के। तो फिर इन प्रदेशों में private नौकरियों का चलन होता है, और जिसमे उच्च कीमत नौकरियां, या मुनाफ़ा भी खूब मिलता है।
उत्तर प्रदेश की छात्र राजनीति कोई विशेष सामाजिक झुकाव को नही प्रदर्शित कर सकती है। क्योंकि इसमें आदर्शों का संघर्ष नही है, और इस लिए इसमे बड़ी आबादी को प्रभावित और प्रोत्साहित करने के गुण नही है। यहां लोगों की मानसिकता अभी भी राज-पाठ जैसे प्रशासनिक व्यवहार पर बंधी हुई है। न तो नागरिकों में अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता है, और न ही प्रशासन में उनके अधिकारों को सुरक्षा और संरक्षण देने के अपने उत्तरदायित्व का बोध है। सब कुछ एक राजा-प्रजा वाले संबंध पर चलता है। राजनेता अपने को जनता के विचारों का प्रतिनिधि नही मानते है, बल्कि जनता को उनके शक्ति सम्पन्न होने का साधन समझते हैं। इसलिये छात्र राजनीति का उद्देश्य मात्र यह है की शक्ति शाली "गुंडों" को जन्म देती रहे, जिसके माध्यम से नेता लोग शक्ति सम्पन्न हो सकें। न कि यह की छात्र राजनीति कोई राजनीतिक आदर्शो के संघर्षो की भूमि प्रदान करे, तर्कों के शस्त्र प्रदान करे।
यह सब दिल्ली विश्वविद्यालय की छात्र राजनीति और JNU की छात्र राजनीति से बिल्कुल ही अलग सा है। वहां संघर्ष होता है आदर्शों और मानकों के प्रति । इसलिये वह छात्र राजनीति जनमानस को अधिक प्रभावित करती है। वहां के छात्र आज देश के कई सारे प्रभावशील पदों पर बैठे हुए हैं। वह अच्छा वाचन करते है, प्रभावकारी तर्कों से लैस है, ज़्यादा मनभावक बातों से लबालब है। ज़्यादा motivating तरहों से जन संवाद करते दिखाई पड़ते है।
जबकि उत्तर प्रदेश में छात्र राजनीति शायद सिर्फ सेक्स , power और पैसे का संघर्ष ही है। इसलिये यहां अमानवीय हिंसा अक्सर होती है -क़त्ल , बकैती, अभद्रता , वग़ैरह। यही वह छात्र राजनीति का संस्करण है जिसके प्रति जनमानस में उदासीनता है, लोग छात्र और विश्वविद्यालयों की भीतर की राजनीति के महत्व को ही देखना- समझना भूल गये हैं। बल्कि छात्र राजनीति के संग संग विश्वविद्यालय के भीतर वैश्विक मंथन से उत्पन्न राजनीति को भी धिक्कार देते रहते हैं। क्योंकि छात्र राजनीति और वैश्विक मंथन के मध्य फांसले बहोत कम होते हैं, साधारण जनमानस दोनों को ही एक रूपी देखता है, और दोनों को ही नापंसद कर देता है।
Abvp की वाराणसी के विद्यालय में हुई शिकस्त ज़्यादा कुछ नही दर्शाती है। पिछड़े , ग़रीब राज्य की छात्र राजनीति मात्र एक बहती गंगा में बहता कचरा है, यह खुद में कोई धारा नही है। इस राजनीति से सामाजिक संसाधनों का विध्वंस ही किया जा सकता है, किसी भी आवश्यकता को पूर्ण करने का निर्माण नहीं हो सकता है।
मगर निर्मोह में विचार मंथन किया जाये तो उत्तर प्रदेश की छात्र राजनीति में आदर्शों और मानकों के प्रति संघर्ष निम्म है, बल्कि समूचा संघर्ष ही शक्ति हरण का होता है - प्रशासनिक शक्ति को व्यक्तिगत मनमर्ज़ी से भोग करने का संघर्ष।
उत्तर प्रदेश की विधान सभा की राजनीति में भी नेताओं में आदर्शों के प्रति झुकाव कमज़ोर है। यहां की राजनीति जाति के संघर्ष की है - कि फलां-फलां जातियों को शक्ति सम्पन्न होने से रोकना है। और जातियों की पहचान कुलनाम के प्रयोग से ही है, किसी ख़ास किस्म के चारित्रिक , सांस्कृतिक या आदर्शों के पहचान से नही है।
यह सब ही समझा सकता है की क्यों यह प्रदेश बद से बदत्तर हुआ जा रहा है, तथा यह कि क्यों प्रदेश का राजनैतिक मुद्दा प्रशासनिक व्यवस्था - law and order का है। यह सब बाकी अन्य सम्पन्न आर्थिक राज्यों से काफ़ी भिन्न है, जहां की विधान सभा की राजनीति होती है व्यापारिक अंश को कब्ज़ा करने के, सरकारी ख़ज़ाने से बड़े मूल्यों के business contracts को छेकने की ।
उत्तर प्रदेश में घोटाले भी होते हैं तो किस किस्म के ? -- पुलिस में भर्ती के, अध्यापक नियुक्ति के, सरकारी नौकरी पाने के। !!
यह सब पिछड़े पने के लक्षण हैं। आर्थिक सम्पन्न राज्यों में घोटाले होते है किसी सार्वजनिक कार्य के सरकारी contract को छेक कर अपने से संबंधित निज़ी कंपनी को देने के। तो फिर इन प्रदेशों में private नौकरियों का चलन होता है, और जिसमे उच्च कीमत नौकरियां, या मुनाफ़ा भी खूब मिलता है।
उत्तर प्रदेश की छात्र राजनीति कोई विशेष सामाजिक झुकाव को नही प्रदर्शित कर सकती है। क्योंकि इसमें आदर्शों का संघर्ष नही है, और इस लिए इसमे बड़ी आबादी को प्रभावित और प्रोत्साहित करने के गुण नही है। यहां लोगों की मानसिकता अभी भी राज-पाठ जैसे प्रशासनिक व्यवहार पर बंधी हुई है। न तो नागरिकों में अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता है, और न ही प्रशासन में उनके अधिकारों को सुरक्षा और संरक्षण देने के अपने उत्तरदायित्व का बोध है। सब कुछ एक राजा-प्रजा वाले संबंध पर चलता है। राजनेता अपने को जनता के विचारों का प्रतिनिधि नही मानते है, बल्कि जनता को उनके शक्ति सम्पन्न होने का साधन समझते हैं। इसलिये छात्र राजनीति का उद्देश्य मात्र यह है की शक्ति शाली "गुंडों" को जन्म देती रहे, जिसके माध्यम से नेता लोग शक्ति सम्पन्न हो सकें। न कि यह की छात्र राजनीति कोई राजनीतिक आदर्शो के संघर्षो की भूमि प्रदान करे, तर्कों के शस्त्र प्रदान करे।
यह सब दिल्ली विश्वविद्यालय की छात्र राजनीति और JNU की छात्र राजनीति से बिल्कुल ही अलग सा है। वहां संघर्ष होता है आदर्शों और मानकों के प्रति । इसलिये वह छात्र राजनीति जनमानस को अधिक प्रभावित करती है। वहां के छात्र आज देश के कई सारे प्रभावशील पदों पर बैठे हुए हैं। वह अच्छा वाचन करते है, प्रभावकारी तर्कों से लैस है, ज़्यादा मनभावक बातों से लबालब है। ज़्यादा motivating तरहों से जन संवाद करते दिखाई पड़ते है।
जबकि उत्तर प्रदेश में छात्र राजनीति शायद सिर्फ सेक्स , power और पैसे का संघर्ष ही है। इसलिये यहां अमानवीय हिंसा अक्सर होती है -क़त्ल , बकैती, अभद्रता , वग़ैरह। यही वह छात्र राजनीति का संस्करण है जिसके प्रति जनमानस में उदासीनता है, लोग छात्र और विश्वविद्यालयों की भीतर की राजनीति के महत्व को ही देखना- समझना भूल गये हैं। बल्कि छात्र राजनीति के संग संग विश्वविद्यालय के भीतर वैश्विक मंथन से उत्पन्न राजनीति को भी धिक्कार देते रहते हैं। क्योंकि छात्र राजनीति और वैश्विक मंथन के मध्य फांसले बहोत कम होते हैं, साधारण जनमानस दोनों को ही एक रूपी देखता है, और दोनों को ही नापंसद कर देता है।
Abvp की वाराणसी के विद्यालय में हुई शिकस्त ज़्यादा कुछ नही दर्शाती है। पिछड़े , ग़रीब राज्य की छात्र राजनीति मात्र एक बहती गंगा में बहता कचरा है, यह खुद में कोई धारा नही है। इस राजनीति से सामाजिक संसाधनों का विध्वंस ही किया जा सकता है, किसी भी आवश्यकता को पूर्ण करने का निर्माण नहीं हो सकता है।
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