दिल्ली विधानसभा के चुनाव :- क्या है वैचारिक मूल मुद्दा इस चुनावो में ?
दिल्ली के विधानसभा चुनावों में ideological स्तर पर देखें तो फिर मुद्दा है संविधान बनाम राष्ट्र । भाजपा बार-बार "राष्ट्र" के इर्द-गिर्द जनमानस के भाव विभोर करने की कोशिश कर रही है , जबकि आआपा , कांग्रेस , और बाकी कई सारे दल बारबार अपील कर रहे हैं की मोदी शासन में संविधान संकट में है, यानी देश को प्रजातांत्रिक मूल्यों से चलाने के संकल्प का पालन नही किया जा रहा है।
तो यह लड़ाई इस समय "राष्ट्र' बनाम "प्रजातंत्र" की मानी जा सकती है।
और दिल्ली चुनाव में जो भी पक्ष विजयी होगा , उसके अनुसार संदेश या जनादेश तय हो जायेगा की देशवासियों( या कहें तो कम से कम दिल्ली वासियों) को क्या चाहिए - "राष्ट्र" या फिर "प्रजातंत्र" ?
संघ घराने की यह वैचारिक धारा रही है कि सबसे प्रधान होता है "राष्ट्र" , न कि उसको चलाने वाला मूल्य- वह आपसी संकल्प। यह एक विचारधारा आचार्य चाणक्य के जमाने से रही है कि जब अलक्षेन्द्र (यानी alexander) ने भारत पर हमला किया था, तब तय यह करना था इस भूमि के निवासियों को की क्या वह एक जुट होंगे इस "राष्ट्र" की रक्षा के लिए। दिक्कत यह थी की तत्कालीन जनमानस "राष्ट्र" के विचार को बूझने लायक बौद्धिक प्रवीण नही था। मगर तब भी चाणक्य वह व्यक्ति थे जिन्होंने तय कर लिया था वह "राष्ट्र" की रक्षा करेंगे। और अकेले ही उन्होंने मौर्य समाज के एक बालक - चंद्रगुप्त- को संग लेकर उसे तैयार किया था तत्कालीन नंद वंश के नालायक शासकों को परास्त करके उसके स्थान पर मौर्य वंश के शासक को विराजमान करके अलक्षेन्द्र की सेना से लोहा लेने का।
आगे का इतिहास सब जानते है, मगर महत्वपूर्ण बिंदु है कि चाणक्य ने यह सब "राष्ट्र" नामक वैचारिक बौद्ध के आवेश में आ कर प्राप्त किया था, और समाज को चलाने के लिए आवश्यक जनकल्याणकारी अर्थनीति के अविष्कार किया जो की आज तक लोगों की स्मृति पर क़ायम है।
हालांकि चाणक्य के काल में "प्रजातंत्र" नामक विचार इतना प्रबल नही था। जन व्यवस्था चलाने के लिए जो भी नीति होती थी, वह जनता से पूछ कर तय नही होती थी, बल्कि राजभवन के भीतर यूँ ही बना दी जाती थी, वंश व्यवस्था से उत्पन्न राजाओं और उनकी सभा के द्वारा। दावा (या आरोप ) यह था कि जिस जनमानस को "राष्ट्र" का बौद्ध नही था, जो विदेशी आक्रमण पर भी एकजुट नही हुआ है, तब वह इस क़ाबिल है ही नही की कोई भी नीति बनाने के लिए उसकी अनुमति ली जाये, या उससे पूछा जाये।
वर्तमान काल तक संघ घराने में यही विचारधारा चलती आई है की "राष्ट्र" ही प्रधान होता है, तथा नीति निर्माण के लिए जनमानस की अनुमति लेना बेकार का झंझट होता है क्योंकि जनमानस की बौद्धिक क़ाबलियत इस लायक होती ही नही है।
अगर 'JNU बनाम मोदी' सरकार का झगड़ा देखें, या फिर 'liberal बनाम भक्त' का झगड़ा समझें तो इनके केंद्र में यही विवाद दिखाई पड़ेगा - की प्रधान क्या है - "राष्ट्र" या फिर "प्रजातंत्र"।
गौर करें की चाणक्य आज से तीन हज़ार वर्षों पहले की घटना है, जब देशो पर साशन राजा महाराजाओं का हुआ करता था, जो की वंश व्यवस्था से नियुक्ति लेते थे। चुनाव करवा कर गणराज्य व्यवस्था से राजा की नियुक्ति की व्यवस्था नही थी। यह चलन सिर्फ भारत में ही नही, समूची दुनिया में हुआ करता था।
ज़ाहिर है की ऐसे काल में , जब जनता का राज्य की शासन प्रणाली में अधिक ज्ञान नही था, तब फिर उनको अपनी मनमर्ज़ी बताने का भी कोई महत्व नही हुआ करता था। जनता को राज्य की व्यवस्था के प्रति आवश्यक ज्ञान आता भी तो कहां से? तब न तो कोई liberal arts स्कूल व्यवस्था थी, न ही कोई सार्वजनिक सरकारी office।
प्रजातंत्र का उत्थान, समय काल रेखा पर बहोत बाद में, और बहोत दूर के देश, greece में हुआ जो की alexander की ही मातृभूमि थी। और यह प्रबल हुआ europe में england पहुंच कर। भारत में यह विचार पहुंचा था आज़ादी की लड़ाई के दौरान जब तत्कालीन बंगाली civil servants और बाकी देश से आये barristers ने अपने परीक्षा और पढ़ाई इत्यादि के दौरान इंग्लैंड का दौरा करते समय इसको england में देखा-सुना था।
गांधी जी जैसे लोगों ने अंग्रेज़ो से लड़ाई के दौरान सबसे बड़ी उप्लाधि यही दी थी कि भारत भूमि के जनमानस, जो की आज भी राज व्यवस्था से अलग थलग रहता बस चुपचाप टैक्स ही देता था, उसको गांधी ने अपनी तमाम आंदोलनों से झकझोर कर जागृत कर दिया था शासन नीति के प्रति शामिल होने के लिए। जनता ने गांधी की अगुवाई में पहली बार दांडी पद मार्च करके टैक्स देने से इंकार किया था - जो की नमक जैसे साधारण मगर आवश्यक और सहज़ उपलब्ध वस्तु पर ज़बरन उल्टे-पुल्टे कानून बना कर वसूला जा रहा था। जब नमक यूँ ही गुजरात के तटों पर प्रकृति से निर्मित हो ही रहा था, तब फिर कैसे कोई सरकार उसको उठाने के ख़िलाफ़ प्रतिबंध कानून बना कर फिर उसे बेच कर टैक्स वसूली कर सकती थी? यह कहां का न्याय हुआ?
मगर भारत का सीधा-साधा ग्रामीण जनमानस इस प्रकार की स्वचेतना तक नही रखता था कि उनके संग कुछ ग़लत कर रही है "सरकार"। वह तो बस चुप-चाप कानून का पालन करते हुए लगान(tax) पर लगान देता ही रहता था। यह तो गांधी के आंदोलन ही थे जिसने जनता को एक जुट किया था , और फिर जिस एकजुटता के बदौलत वह क्रूर, जालिम और चतुर सामर्थ्य वाली सरकार के ख़िलाफ़ लोहा ले सके थे।
मगर संघ तो हमेशा से गांधी का विरोधी ही रहा है। जैसे वह गांधी को नही मानता है, वैसे ही वह "प्रजातंत्र" को भी प्रधान सामाजिक मूल्य नही मानता है। उसके अनुसार आज भी जनमानस इस लायक बौद्धिक क़ाबिलियत नही रखता है कि उसको शासन नीति के निर्माण में शामिल किया जाये। संघ liberal arts education की आवश्यकता को स्वीकार करने को तैयार नही है कि कैसे liberal arts और इसके विद्यालय तर्कों के शोध की भूमि होते हैं, जहां से श्रेष्ठ सामाजिक और मानव नीतियां जन्म लेती है। JNU उसी liberal arts का प्रतिनिधित्व करता है, जो की किसी भी प्रजातंत्र के जन्म लेना का और उसके सफ़ल होने का मार्ग प्रदान करवाते हैं।
तो मोदी सरकार की JNU से जो लड़ाई है , जिसमे एक तरफ़ संघ घराने के लोग"राष्ट्र" की भावना को कुरेद कुरेद कर जनता से वोट की अपील आकर रहे हैं, वह यही है कि "राष्ट्र" को प्रधान माना जायेगा या की राष्ट्र को चलाने वाले मूल्य - सामाजिक संकल्प - प्रजातंत्र - को ?
अब एक सवाल यह है कि जब संघ सामाजिक संकल्प के विचार पर मूक खड़ा है तब फिर संघ का "राष्ट्र" वास्तव है क्या? क्या है वो ,जिसके लिए संघ सोचता है कि जनता को उसकी रक्षा के लिये अपने प्राणों का बलिदान देना चाहिये? क्या है वह और उसके शासन की बागडोर किसके हाथों में होगी? कौन होगा यहां का राजा , और कैसे नियुक्त किया जायेगा उसे? कैसे यहाँ पर सर्व कल्याणकारी नीति तय करि जायेगी?
संघ की विचाधारा यहां पर मूक हो जाती है। संघ का "राष्ट्र" कुछ और नही बल्कि "देश" का पर्यायवाची है, जो की भूमि से अभिप्राय रखता है। संघ घराने ने "राष्ट्र" में सामाजिक एकता और सामाजिक संकल्प की आवश्यकता को अभी चिन्हित नही किया है। संघ अपने "राष्ट्र" को प्राचीन वैदिक तौर तरीकों से चलाने पर अमादा है, शायद वही व्यवस्था जब राजा-महाराजा लोग जनता से पूछे बग़ैर ही राजभवन के भीतर कुछ भी नीति बना कर जनता पर थोप दिया करते थे, और टैक्स(लगान) वसूल-वसूल कर जनता का कचूमर बना देते थे।
वैसे वर्तमान मोदी सरकार ने संघ की उसी वैचारिक उपलब्धि का मुजाहिरा किया है। मॅहगाई ,टूटी हुई अर्थव्यवथा और जान कल्याणकारी नीतियों से कोसों दूर भटकती शासन नीति उसी संघी विचारधारा की देन दिखती है, जिसमे जनता को अयोग्य मान कर उससे पूछना फिज़ूल समझा जाता है, जहां liberal arts का महत्व और तर्कों के शोध की क्रिया के बारे में आत्मज्ञान आज भी नही है। जनता के आंदोलन को "विपक्ष का षड्यंत्र" या फिर "विदेशी ताकतों का षड्यंत्र" बता कर सरकारी संस्थाएं प्रयोग करि गयी है जनभावना को दमन करने के लिए। आख़िरकार संघ घराने ने तो हमेशा से जनमानस को अयोग्य ही माना है, और उसका सम्मान नही किया है।
तो यह लड़ाई इस समय "राष्ट्र' बनाम "प्रजातंत्र" की मानी जा सकती है।
और दिल्ली चुनाव में जो भी पक्ष विजयी होगा , उसके अनुसार संदेश या जनादेश तय हो जायेगा की देशवासियों( या कहें तो कम से कम दिल्ली वासियों) को क्या चाहिए - "राष्ट्र" या फिर "प्रजातंत्र" ?
संघ घराने की यह वैचारिक धारा रही है कि सबसे प्रधान होता है "राष्ट्र" , न कि उसको चलाने वाला मूल्य- वह आपसी संकल्प। यह एक विचारधारा आचार्य चाणक्य के जमाने से रही है कि जब अलक्षेन्द्र (यानी alexander) ने भारत पर हमला किया था, तब तय यह करना था इस भूमि के निवासियों को की क्या वह एक जुट होंगे इस "राष्ट्र" की रक्षा के लिए। दिक्कत यह थी की तत्कालीन जनमानस "राष्ट्र" के विचार को बूझने लायक बौद्धिक प्रवीण नही था। मगर तब भी चाणक्य वह व्यक्ति थे जिन्होंने तय कर लिया था वह "राष्ट्र" की रक्षा करेंगे। और अकेले ही उन्होंने मौर्य समाज के एक बालक - चंद्रगुप्त- को संग लेकर उसे तैयार किया था तत्कालीन नंद वंश के नालायक शासकों को परास्त करके उसके स्थान पर मौर्य वंश के शासक को विराजमान करके अलक्षेन्द्र की सेना से लोहा लेने का।
आगे का इतिहास सब जानते है, मगर महत्वपूर्ण बिंदु है कि चाणक्य ने यह सब "राष्ट्र" नामक वैचारिक बौद्ध के आवेश में आ कर प्राप्त किया था, और समाज को चलाने के लिए आवश्यक जनकल्याणकारी अर्थनीति के अविष्कार किया जो की आज तक लोगों की स्मृति पर क़ायम है।
हालांकि चाणक्य के काल में "प्रजातंत्र" नामक विचार इतना प्रबल नही था। जन व्यवस्था चलाने के लिए जो भी नीति होती थी, वह जनता से पूछ कर तय नही होती थी, बल्कि राजभवन के भीतर यूँ ही बना दी जाती थी, वंश व्यवस्था से उत्पन्न राजाओं और उनकी सभा के द्वारा। दावा (या आरोप ) यह था कि जिस जनमानस को "राष्ट्र" का बौद्ध नही था, जो विदेशी आक्रमण पर भी एकजुट नही हुआ है, तब वह इस क़ाबिल है ही नही की कोई भी नीति बनाने के लिए उसकी अनुमति ली जाये, या उससे पूछा जाये।
वर्तमान काल तक संघ घराने में यही विचारधारा चलती आई है की "राष्ट्र" ही प्रधान होता है, तथा नीति निर्माण के लिए जनमानस की अनुमति लेना बेकार का झंझट होता है क्योंकि जनमानस की बौद्धिक क़ाबलियत इस लायक होती ही नही है।
अगर 'JNU बनाम मोदी' सरकार का झगड़ा देखें, या फिर 'liberal बनाम भक्त' का झगड़ा समझें तो इनके केंद्र में यही विवाद दिखाई पड़ेगा - की प्रधान क्या है - "राष्ट्र" या फिर "प्रजातंत्र"।
गौर करें की चाणक्य आज से तीन हज़ार वर्षों पहले की घटना है, जब देशो पर साशन राजा महाराजाओं का हुआ करता था, जो की वंश व्यवस्था से नियुक्ति लेते थे। चुनाव करवा कर गणराज्य व्यवस्था से राजा की नियुक्ति की व्यवस्था नही थी। यह चलन सिर्फ भारत में ही नही, समूची दुनिया में हुआ करता था।
ज़ाहिर है की ऐसे काल में , जब जनता का राज्य की शासन प्रणाली में अधिक ज्ञान नही था, तब फिर उनको अपनी मनमर्ज़ी बताने का भी कोई महत्व नही हुआ करता था। जनता को राज्य की व्यवस्था के प्रति आवश्यक ज्ञान आता भी तो कहां से? तब न तो कोई liberal arts स्कूल व्यवस्था थी, न ही कोई सार्वजनिक सरकारी office।
प्रजातंत्र का उत्थान, समय काल रेखा पर बहोत बाद में, और बहोत दूर के देश, greece में हुआ जो की alexander की ही मातृभूमि थी। और यह प्रबल हुआ europe में england पहुंच कर। भारत में यह विचार पहुंचा था आज़ादी की लड़ाई के दौरान जब तत्कालीन बंगाली civil servants और बाकी देश से आये barristers ने अपने परीक्षा और पढ़ाई इत्यादि के दौरान इंग्लैंड का दौरा करते समय इसको england में देखा-सुना था।
गांधी जी जैसे लोगों ने अंग्रेज़ो से लड़ाई के दौरान सबसे बड़ी उप्लाधि यही दी थी कि भारत भूमि के जनमानस, जो की आज भी राज व्यवस्था से अलग थलग रहता बस चुपचाप टैक्स ही देता था, उसको गांधी ने अपनी तमाम आंदोलनों से झकझोर कर जागृत कर दिया था शासन नीति के प्रति शामिल होने के लिए। जनता ने गांधी की अगुवाई में पहली बार दांडी पद मार्च करके टैक्स देने से इंकार किया था - जो की नमक जैसे साधारण मगर आवश्यक और सहज़ उपलब्ध वस्तु पर ज़बरन उल्टे-पुल्टे कानून बना कर वसूला जा रहा था। जब नमक यूँ ही गुजरात के तटों पर प्रकृति से निर्मित हो ही रहा था, तब फिर कैसे कोई सरकार उसको उठाने के ख़िलाफ़ प्रतिबंध कानून बना कर फिर उसे बेच कर टैक्स वसूली कर सकती थी? यह कहां का न्याय हुआ?
मगर भारत का सीधा-साधा ग्रामीण जनमानस इस प्रकार की स्वचेतना तक नही रखता था कि उनके संग कुछ ग़लत कर रही है "सरकार"। वह तो बस चुप-चाप कानून का पालन करते हुए लगान(tax) पर लगान देता ही रहता था। यह तो गांधी के आंदोलन ही थे जिसने जनता को एक जुट किया था , और फिर जिस एकजुटता के बदौलत वह क्रूर, जालिम और चतुर सामर्थ्य वाली सरकार के ख़िलाफ़ लोहा ले सके थे।
मगर संघ तो हमेशा से गांधी का विरोधी ही रहा है। जैसे वह गांधी को नही मानता है, वैसे ही वह "प्रजातंत्र" को भी प्रधान सामाजिक मूल्य नही मानता है। उसके अनुसार आज भी जनमानस इस लायक बौद्धिक क़ाबिलियत नही रखता है कि उसको शासन नीति के निर्माण में शामिल किया जाये। संघ liberal arts education की आवश्यकता को स्वीकार करने को तैयार नही है कि कैसे liberal arts और इसके विद्यालय तर्कों के शोध की भूमि होते हैं, जहां से श्रेष्ठ सामाजिक और मानव नीतियां जन्म लेती है। JNU उसी liberal arts का प्रतिनिधित्व करता है, जो की किसी भी प्रजातंत्र के जन्म लेना का और उसके सफ़ल होने का मार्ग प्रदान करवाते हैं।
तो मोदी सरकार की JNU से जो लड़ाई है , जिसमे एक तरफ़ संघ घराने के लोग"राष्ट्र" की भावना को कुरेद कुरेद कर जनता से वोट की अपील आकर रहे हैं, वह यही है कि "राष्ट्र" को प्रधान माना जायेगा या की राष्ट्र को चलाने वाले मूल्य - सामाजिक संकल्प - प्रजातंत्र - को ?
अब एक सवाल यह है कि जब संघ सामाजिक संकल्प के विचार पर मूक खड़ा है तब फिर संघ का "राष्ट्र" वास्तव है क्या? क्या है वो ,जिसके लिए संघ सोचता है कि जनता को उसकी रक्षा के लिये अपने प्राणों का बलिदान देना चाहिये? क्या है वह और उसके शासन की बागडोर किसके हाथों में होगी? कौन होगा यहां का राजा , और कैसे नियुक्त किया जायेगा उसे? कैसे यहाँ पर सर्व कल्याणकारी नीति तय करि जायेगी?
संघ की विचाधारा यहां पर मूक हो जाती है। संघ का "राष्ट्र" कुछ और नही बल्कि "देश" का पर्यायवाची है, जो की भूमि से अभिप्राय रखता है। संघ घराने ने "राष्ट्र" में सामाजिक एकता और सामाजिक संकल्प की आवश्यकता को अभी चिन्हित नही किया है। संघ अपने "राष्ट्र" को प्राचीन वैदिक तौर तरीकों से चलाने पर अमादा है, शायद वही व्यवस्था जब राजा-महाराजा लोग जनता से पूछे बग़ैर ही राजभवन के भीतर कुछ भी नीति बना कर जनता पर थोप दिया करते थे, और टैक्स(लगान) वसूल-वसूल कर जनता का कचूमर बना देते थे।
वैसे वर्तमान मोदी सरकार ने संघ की उसी वैचारिक उपलब्धि का मुजाहिरा किया है। मॅहगाई ,टूटी हुई अर्थव्यवथा और जान कल्याणकारी नीतियों से कोसों दूर भटकती शासन नीति उसी संघी विचारधारा की देन दिखती है, जिसमे जनता को अयोग्य मान कर उससे पूछना फिज़ूल समझा जाता है, जहां liberal arts का महत्व और तर्कों के शोध की क्रिया के बारे में आत्मज्ञान आज भी नही है। जनता के आंदोलन को "विपक्ष का षड्यंत्र" या फिर "विदेशी ताकतों का षड्यंत्र" बता कर सरकारी संस्थाएं प्रयोग करि गयी है जनभावना को दमन करने के लिए। आख़िरकार संघ घराने ने तो हमेशा से जनमानस को अयोग्य ही माना है, और उसका सम्मान नही किया है।
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