An ocean of thoughts,earlier this blog was named as "Indian Sociology..my burst and commentary". This is because it was meant to express myself on some general observations clicking my mind about my milieu...the Indian milieu. Subsequently a realisation dawned on that it was surging more as some breaking magma within . Arguments gave the heat to this molten hot matter which is otherwise there in each of us. Hence the renaming.
केजरीवाल ने त्यागपत्र का रास्ता ही क्यों चुना? ..एक विचार
बहोत सारे लोग केजरीवाल से यह उम्मीद कर रहे थे और आज भी कर रहें हैं की केजरीवाल को जन सेवा के वास्ते पद पर कायम रहना चाहिए था और ऐसा करने से उन्हें पद-अनुभव भी मिलता और जनता में योग्यता भी सिद्ध होती।
इस प्रशन के उत्तर में पहले हमें "जन सेवा" के भावार्थ को भी समझना होगा। तर्क निरक्षण के लिए एक प्रश्न करना होगा क्या शीला दीक्षित जी की कांग्रेस सरकार जन सेवा नहीं कर रही थी? सही, एक संतुलित आंकलन में, जन सेवा तो सब ही सरकारें कर रही होती हैं।
तब जन सेवा के प्रसंग से क्या भावार्थ हुआ ? यह की जो पिछली सरकार ने किसी कारणों से करने से मना कर दिया था वह यह सरकार कर देगी। इसमें वैध कारण और अवैध कारण पर एक नपी-तुली चुप्पी है और दोनों को मिला कर एक रूप, एक शब्द में "जन सेवा" कह दिया जा रहा है। किसी सिद्धांत प्रेरित जन सेवा का भाव नहीं है इसमें।
"आप" का उदय भ्रष्टाचार उन्मूलन की लड़ाई में हुआ है। सत्ता में रह कर यदि यह नियमों को अपनी आस्था के अनुरूप नहीं परिवर्तित कर सकेंगे तब "आप" वाले इसी भ्रष्ट-प्रोत्साहन व्यवस्था में अपनी योग्यता सिद्ध करने की दौड़ में दिखाई पड़ेंगे। यह कुछ ऐसा ही होता की एक बिना किसी नियम-नियंत्रण वाली स्पर्धा में एक अपाहिज, बिना हाथ वाले व्यक्ति को दौड़ा दिया गया हो। यानी, प्रतिस्पर्धी भ्रष्टाचार में लिप्त, कुछ भी दोष करे, मगर "आप" उनको उनके ही सिक्कों में जवाब दे तो यह सन्देश होगा की "आप" भी भ्रष्टाचारी हो गयी है। ऐसी दौड़ों के नतीजे स्पष्ट, पूर्वानुमानित होते हैं। "आप" को "जन सेवा"(अवैधता के कारणों से जो मांगे पिछली सरकारों ने नहीं पारित किया) के दौरान अयोग्य ही साबित होना पड़ता या फिर की "वही पुरानी जैसी पार्टियों के जैसी, कोई बेहतर नहीं।"
कोंग्रेस का समर्थन इसी समझ पर था की जनलोकपाल विधेयक पारित होगा। बिना इस कानून के तो सिद्धांतों और उसूलों की रस्सी से बंधी "आप" को लकड़ी का सहारा भी नहीं है। और विरोधी किसी जन-जातीय कबीलाई की भाँती ख़ुशी मना रहे हैं कि अच्छा, आसान शिकार मिला है।
"आप" के प्रयोग से यह पार्टियां एक अनन्त काल के लिए स्थापित निष्कर्ष यह निकलवाती की "मजबूरियां बहोत हैं, वरना सख्त कानून तो हम भी चाहतें हैं"। इधर "आप" इस गोल-चक्र पहेली, 'मजबूरी-से-भ्रष्टाचार' और 'भ्रष्टाचार-से और-अधिक-भ्रष्टाचार-की-मजबूरी' , का समाधान देना चाहती है -
एक सुदृढ़ राजनैतिक इच्छा ।
'Dynasticism in a democracy : a logical tangle which a democracy must solve out for its sustenance"
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Let us think in a little logical manner about the problems and challenges of dynasticism in a democracy. In a fair and just world it is wrong,both, to deny someone an opportunity,or, to unfavourably extend someone an opportunity for reasons of his birth. It applies to everyone- the rich and the poor people. Then how do we ensure that the worthy people , no matter a dynast or of a commoner birth, are reached their rightful place.
It is this question which gives the cover of legitimacy to a crooked dynasticism to walk into the democratic system. There comes an unresolved ambiguity of whether a person reached (/failed to reach) a position by virtue of his merit, or, by virtue of his birth ,--an ambiguity which a sustaining Democracy MUST resolve in order to continue to sustain itself.
Without a check on the dynastic politics in place in a democracy, an incentive is created for the rulers of a democracy to change the laws in their personal favours, the fruits of which shall be borne by them in the form of LIFELONG personal benefits to themselves and their progeny.
The better way to resolve this problem is either by way of putting some kind of limit cap on the number of times a person may take charge of a public office -
the US sytle where a person can contest the presidential elections ony two times,and can hold office only for two terms;
or,
the UK style where the monarchy has been permanently established separated from the democratic institution called the Parliament, and has been allowed dynasticism, rather been supported on it through a law on the 'line of succession' ,and this all with a simple condition tag that the royals may not contest elections to the 'House of Common'.(they can be nominated to the 'House of Lords').
Our country India has it's own serious challenges of resolving the problem of dynasticism. Unfortunately we have no mechanism to resolve the ambiguity of the Dynast/Merit tanglement.
As a proposed solution , now that we are a Republic nation, bringing back in the monarchy will be rather tedious. Therefore we are left with only one type of solution - viz., putting some kind of prohibition law on the number of times a person may contest elections, and may hold a public/constitutional office.
समाचार लेखन में न्याय के आधारभूत सिद्धांतों की आवश्यकता
Read more at: http://www.firstpost.com/blogs/us-never-warned-india-about-devyani-khobragades-arrest-1391935.html?utm_source=ref_article
प्रमाण के सिद्धांतों में यह विषय सर्व-स्वीकृत रहा है की अत्यंत सूक्षमता की हद्दों तक जाने वाले प्रमाण की बाध्यता नहीं रखी जाएगी | यदि किसी व्यक्ति ने किसी को बन्दूक की गोली से मार कर हत्या करी है -- तब इस हत्या के प्रमाण में हत्या के मंसूबे, हथियार और हत्या करने वाले वाले संदेह्क का हथियार से सम्बन्ध -- इतना अपने आप में पूर्ण प्रमाण माना जायेगा की हत्या किस व्यक्ति ने करी है | बचाव पक्ष के अभिवाक्ताओं को यह प्रमाण माँगने का हक नहीं होगा की यदि "रमेश ने गोली चलाइये भी, तब भी--, चलिए मान लिया की बन्दूक पर रमेश की उँगलियों के निशान भी मिले, रमेश के पास वजह भी थी , --तब भी प्रमाणित करिए की मोहन की मृत्यु उसी गोली से हुयी जिसे रमेश ने चलाया था |"
प्रमाण के लिए यह कभी भी आवश्यक नहीं माना जाता है की "चश्मदीद होना चाहिए जिसने देखा की रमेश ने ही बन्दूक का घोडा दबाया था, और यह भी देखा की गोली अपने निशाने पर मोहन को ही लगी थी|" सूक्षमता और अत्यंत दीर्घता से पैदा किया जा सकने वाले भ्रमों से बचना प्रमाणिक क्रिया का ही एक हिस्सा है | अत्यंत सूक्ष्मता का प्रमाण, या अत्यंत दीर्घता का प्रमाण असल में न्याय को भंग कर देने की साज़िश होते हैं |
बन्दूक से निकलता धुआं प्रमाण में स्वीकृत होता है | गोली को बन्दूक की नाल से निकल कर निशाने पर सटीकता से लगते देखने वाले चश्मदीद की आवश्यकता नहीं होती है , क्योंकि इस हद तक प्रमाण उपलब्ध होना संभव ही नहीं होता है |
न्यायायिक विषयों पर समाचार लेखन करने वालों को न्याय विषय की मूलभूत सिद्धांतों की जानकारी होनी ही चाहिए | अब साथ में सलग्न समाचार विषय को देखिया | यह भारतीय राजदूत सम्बंधित विषय से सम्बद्ध समाचार है | समाचार लेखक का मानना है की चुकी अमेरिकी राज्य प्रशासनिक विभाग ने अपने पत्राचार में सटीकता से यह नहीं लिखा था की वह भारतीय राजदूत को आने वाले दिनों में हिरासत में लेंगे , इसलिए यह माना जाना चाहिए की अमेरिकी प्रशासनिक विभाग ने भारतीय दूतावास को उनके द्वारा करी जा रही भारतीय राजदूत की जांच की जानकारी उपलब्ध *नहीं* कराई थी |
इस पूरे प्रकरण में भारतीय मीडिया , भारतीय न्यायलय और विदेश मंत्रालय --बड़ा संदेहास्पद कर्म कर रहे दिख रहे हैं | पीडिता गृह-सहायक को तो भारतीय भी नहीं माना जा रहा है |
भ्रष्टाचार वाली अर्थव्यवस्था का जन-प्रशासन पर प्रभाव - जनकल्याण के ध्येय का परित्याग
अर्थशास्त्र विषय का मूलभूत सिद्धांत है की अर्थ , यानी पैसा , हमेशा गोल चक्र में चलता है | यह केन्द्रीय बैंक से चालू होता है और वापस बैंक में लौटता है | रास्ते भर यह जितने लोगों के हाथों से गुज़रता है , वह सूचकांक होता है की देश में उतना व्यापार हो रहा है, जो की फिर एक प्रतिक्रिया में सूचकांक है की देश में कितना विकास और कितनी खुशहाली है | इसे जीडीपी कहते हैं |
यदि हमारे देश का कोई अमीर आदमी अपने रहने के लिए आलिशान महंगा-सा महल बनवाता है तो इसमें सब लोग जलन भाव में क्यों आ जाते है , इर्ष्या क्यों करने लगते हैं | भई, अपना महल बनवाने में उस अमीर आदमी ने मजदूरों को उनकी मजदूरी के पैसे तो दिए ही होंगे न ? कोई हाथ तो नहीं कटवा दिया होगा| देश में सरकारी श्रमिक विभाग तो है न जो की सुनिश्चित करेगा की मजदूरी का भाव क्या होगा और उचित श्रमिकी दी जाए |
कम से कम अमीर आदमियों का उंगली उठाने वालों पर इलज़ाम तो यही है की एक मनोचिकित्सीय इर्ष्या की वजह से उनके महलों पर ताने कसे जाते हैं |
अकसर कर के मैं ये अर्थशास्त्र के सिद्धांतों से समझने का प्रयास करता रहा हूँ की अमीरों के महल बनने से बाकी लोगों को क्या दिक्कत है; या की दिक्कत होनी चाहिए या की नहीं, -- और नैतिकता की दृष्टि से यह दिक्कत का भाव उचित भाव और प्रतिक्रीय है या की नहीं | बात जब मनोवैज्ञानिक विकृत वाले भाव "इर्ष्या" पर आती है तब सोचना पड़ जाता है की यह "इर्ष्या" है, की वाकई में कुछ बल है इस शिकायत में की "अमीर ने महल कैसे बनवा लिया "|
एक सभ्य समाज में हमे किसी की सफलता से इर्ष्या भाव रखना उचित नहीं होता है | "इर्ष्या" एक मनोविकृति होती है और यह सभ्यता के लिए नाशक होती है| मगर फिर सोचता हूँ की क्या यह शिकायत तब भी "इर्ष्या" ही रह जाती है जब देश में करोड़ों लोग भुखमरी का शिकार हो रहे होते हैं , महंगाई आसमान छू रही होती है और भ्रष्टाचार चरम पर होता है ?
मेरी समझ में ऐसे हालात में अमीरों के नए-निर्मित महल सूचक होते हैं की देश में कही कुछ बहोत ज्यादा गड़बड़ है | अमीरों के महल इसका सूचक होते हैं की पैसा का चक्र असल में वैसे नहीं चल रहा होता है जैसा की सरकारी व्यवस्था ने इसे जन-कल्याण में चलाने की घोषणा करी होती है |
भ्रष्टाचार से प्राप्त काला धन भी कहीं न कहीं "निवेश" करने की आवश्यकता होती है | मौजूदा भारतीय अर्थव्यवस्था में यह एक निवेश स्थल है "रियल इस्टेट" (अचल सम्पति) का क्षेत्र | "रियल इस्टेट" एक ऐसा क्षेत्र है जहाँ फायदे के तौर पर यह भ्रम भी पैदा होता है की विकास हो रहा है , और साथ में यह भीड़ भी इक्कठी कर रही होती है जिससे की नव-निर्मित भवनों को खरीदने के लिए खरीदारों की भीड़ बढे | साथ ही में यह गोपनीय गठबंधन में लगे राजनेताओं को भी मौका देता है यह कहने का की उन्होंने "देश का विकास " कर दिया है | बाकी आज कल तो सभी राजनेता यह कहते ही फिर रहे हैं की "(आम चुनाव का )मुद्दा विकास का होना चाहिए|"
कभी-कभी सोचता हो की कहीं यह कथनी इन राजनेताओं की प्रयोक्ति भरी अपने पापों की आत्म-स्वीकारण तो नहीं है की "मैंने एक "रियल इस्टेट" वाले से गोपनीय गठबंधन कर लिया है |"
जब भी कहीं भ्रष्टाचार का काल धन वापस लाने की बात होती है तब व्यवहारिक समझ में ऐसा ख़याल आता है की मानो कुछ हज़ारों-लाखों बोरों में बंद कर के रुपया देश में हवाई जहाजों से वापस लाया जायेगा |
मगर व्यवहारिक ज्ञान और सिद्धांत के ज्ञान में अंतर होता है | देश और व्यवस्था सिद्धांत के ज्ञान से चलाये जाते हैं, व्यवहारिक ज्ञान से नहीं |"व्यवाहरिक ज्ञान" तो खुद ही एक प्रयोक्ति है "अज्ञानता" के लिए , " सिद्धांतों के ज्ञान का अभाव " के लिए |
कालाधन के ब्याज-वृद्धि के लिए एक अन्य स्थल खुद निवेष बाज़ार होता है | यानि स्टॉक मार्किट| हमारे देश में जहाँ फॉरेन इन्वेस्टर (विदेशी निवेशकों ) के लिए बाज़ार लगातार खोले जा रहे हैं , यह खुला-पन इन्ही राजनेताओं का एक तरीका होता है अपने काला धन को वापस एक विदेशी रस्ते से भारतीय अर्थव्यवस्था में डाल कर वृद्धि करने का | फॉरेन इन्वेस्टर के लिए बाज़ार खोलने को कुछ जायज़ कारण भी है | मगर फिर खेल तो हमेशा जायज़ कारणों के नीचे नाजायज़ फायदा उठाने का ही होता है |
भ्रष्टाचार से भी पैसे कहीं छिपा कर इक्कठा नहीं होता है | भई जब यह ब्याज-वृद्धि के कारणों से कालाधन भी वापस अर्थबाज़ार में लौट ही रहा है तब यह कम से कम अर्थशास्त्र के मूल सिद्धांतों के अनुसार तो चल ही रहा होता है | बस दिक्कत यह है की कालाधन का यह पैसा जन-कल्याण को पराजित कर के अपने मन-माफिक , फायदेमंद क्षेत्रों में अधिक कारनामे करने लगता है और ज़रूरत के क्षेत्रों को खाली, भूखा, और मकान-विहीन ही छोड़ देता है | यानी नागरिकों की आर्थिक स्वतंत्रता को ख़त्म कर देता है की वह अपनी स्वतंत्र मन से अपने चाहत के क्षेत्रों में कार्य कर सकें | यदि उनके मन के प्रिय क्षेत्रों में बाज़ार भाव कम होगा तब उसमे कोई निवेश नहीं करेगा और वह अपना जीवन यापन कैसे करेंगे | दूसरी तरफ, जहाँ यह पैसा ज़रुरत से अधिक निवेश होगा और अपना ध्येय से अधिक निवेश होगा , यह ब्याज-वृद्धि नहीं करेगा |तब बाज़ार में मंदी आएगी और फिर सरकारे इस मंदी में डूबती हुयी कंपनियों के लिए "पैकज" देने लगेगी | सरकार जब भी "पैकज" देती है तब इसका भार नागरिकों पर ही आता है और कर और चुंगी के द्वारा वसूली बढाती है | नतीजों में महंगाई भी बढ़ने लगती है |
आधे-अधूरे निर्मित पुल , फ्लाई-ओवर , सड़कें इत्यादि यह सब संकेत होते हैं की भ्रष्टाचार चरम पर आ चुका है और अब जन-कल्याण को सरकार का एक ठगी मकसद ही रह गया है | राजनैतिक पार्टियां फिर जनता के वोट खरीदने के लिए लुभाव वादे और तोहफों के भेंट देने लगती हैं | अंत में यह सब किसी काम के नहीं होते हैं क्योंक भ्रस्टाचार का कुचक्र गति पकड़ चुका होता है और वसूली वापस जनता से ही होनी होती है |
हम्मम्मम्म.. सिद्धांत और भी हालत बयान करते हैं | आस-पास की राजनैतिक घटनाओं के पीछे की तार्किक समझ देते हैं |
भारत अपने स्वतंत्रता के ६६ सालों में आज उसी कुचक्र का शिकार हो चुका है और बिगड़ते हालात झेल रहा है | यह मात्र अर्थव्यवस्था का सवाल नहीं रह गया है | यह हज़ारों सालों की इस संस्कृती और सभ्यता पर प्रशन चिन्ह खड़ा कर रहा है की कहीं हमने स्वतंत्रता से जीने की क़ाबलियत ही तो नहीं खो दी हैं |
बिगड़ती प्रजातान्त्रिक व्यवस्था का उपचार - शक्तियों का संतुलन
संविधान के निर्माताओं ने यहाँ पर एक बहोत बड़ी भूल कर दी लगती है | आयरलैंड और अमरीका के संविधान से अनुकृत हमारे संविधान ने लोकतंत्र के ठीक वही पेंच गायब कर दिए है और एक भ्रमकारी, आभासीय प्रतिस्थानक लगा दिया है जिससे के प्रजातंत्र एक मुर्ख-तंत्र में परिवर्तित हो जाए |
हम में से अधिकाँश व्यक्ति हमारे भारतीय प्रजातंत्र की कमियों को महसूस करते है --और इसका दोषी हमारी अंधभक्त, अल्प-शिक्षित जनसँख्या को मानते है | मगर एक अनभ्यस्त तर्क में समझे तो पता चलेगा की प्रजातंत्र का निर्माण ही अशिक्षा और गरीबी को मिटाने के लिए हुआ था ! यानी हम जिसे हमारे प्रजातंत्र की असफलता का कारक मान रहे है, इलाज तो उसी का करना था ! मर्ज को ही दवा की असफलता का कारक मान लेंगे तब फिर इलाज किस चीज़ का कर रहे थे !?? या तो दवा गलत ले रहे है या मर्ज बहोत प्रचंड है | भाई जब कहने वाले कहते है की भारतियों में सक्षमता तो बहोत है मगर कभी सफलता नहीं मिलिती है -- तब अर्थ साफ़ है -- कि दवा ही गलत ली जा रही है | मेरी समझ से हम भारतीय लोग नकली दवाइयों का शिकार हो रहे है -- अर्थात, यह प्रजातंत्र है ही नहीं , हालाँकि बेचने वाले इसे 'प्रजातंत्र' के कर ही हम नागरिकों में यह तंत्र बेच रहे हैं | यह 'राजनेता तंत्र' है -- जहाँ सब का सब राजनेता के हाथों में सरक चूका है |
अमरीका में राष्ट्रपति की नियुक्ति सीधा चुनावों द्वारा होती है, और उधर ब्रिटेन में राजशाही बनाम संसद में शकित्यों का संतुलन है | अमरीका में फिर भी 'फ़ेडरल रिज़र्व' नामक संस्था उनके संसद , 'कांग्रेस" के विरुद्ध शक्ति-संतुलन का कार्य निभाती है | हमारे यहाँ भारत में कुछ भी स्वतंत्र नहीं बचा शक्ति-संतुलन के नाम पर | यदि सर्वोच्च न्यायलय, निर्वाचन आयोग , नियंत्रक लेखा निरक्षक और लोक सेवा आयोग को भारतीय संविधान ने 'स्वतंत्र' बनाने का प्रयास भी किया है तो भी ढांचा ऐसा रच गया है की राजनेता इन सभी पर भी एक दूर का अप्रत्यक्ष नियंत्रण कर ही लेते है | यह बार-बार होने वाली संवैधानिक त्रुटियाँ, घटनाएं इत्यादी इसी की और इशारा कर रही हैं की हमारा संवैधानिक ढाचा सही से रचा हुआ नहीं रह गया है | दैनिक घटनाओं को देखें तब पता चलेगा की प्रक्रियाओं में पर्याप्त प्रमाण है की यह राजनेताओं द्वारा नियंत्रित तंत्र बन चुका है |
नेता लोग मन-ही-मन यहाँ की जनता को असक्षम समझ कर मन मर्ज़ी करते है , सिद्धांतो के अनुसार कार्य व्यवस्था नहीं रखते हैं | और इधर हमारी जनता दिन-रात नेताओं पर क्रोध निकलती रहती है की उन्होंने देश को बर्बाद कर दिया है |
इस पहेली के इलाज़ में हमे सर्वप्रथम एक पूरी तरह से राजनेताओं से स्वतंत्र संस्था बनाने पड़ेगी जहाँ से शक्तियों का संतुलन हो सके | विकल्प के रूप में या तो हमे राष्ट्रपति का निर्वाचन सीधा-चुनाव द्वारा करवाने की प्रक्रिया लेनी होगी, बजाये किसी संसदीय दल के द्वारा |
शक्तियों का संतुलन बिगड़ जाना हमारे देश के समस्या का जड़ दिखाई पड़ रहा है | कहीं कोई एक है जो सब ही पर हावी हो रहा है| स्पष्ट है की वह वर्ग राजनेताओं का वर्ग है जो की सभी पर नियंत्रण का शिकंजा कसे हुआ है |
नए स्वतंत्रता संग्राम का मक्साद यही होना चाहिए की एक स्वतंत्र संस्था की स्थापना हो --जो की राजनेताओं से मुक्ति दिलाये और शक्तियों को फिर से संतुलन में डाले की उनका आपस का मुकाबला बराबर का हो सके, किसी एक की हक में पहले से ही ज़मीन झुकी न हो |
सोशल मीडिया , जन सुनवाई और जन-कल्याणकारी विचार
सामाजिकता का प्रथम सूत्र न्याय है। जो सही होगा, जो उपयुक्त होगा उसको ही सब लोग स्वीकार करेंगे, और जो सही नहीं होगा उसको बहिष्कार करेंगे। मगर समाज में यह कहीं भी तय नहीं होता है की क्या-क्या सही माना जायेगा और क्या-क्या गलत माना जायेगा। समाज में जो तय है वह यह है कि सही और गलत का न्याय सभी लोग मिल कर करेंगे। यानी की न्यायायिक प्रक्रिया तय हो जाती है कि जन-सुनवाई का प्रयोग होगा। जन-सुनवाई(Public hearing) न्यायायिक प्रक्रिया का सर्वोच्च सूत्र है।
अन्तराष्ट्रीय कानूनों और मानवाधिकारों में जन सुनवाई का कई बार उल्लेख है। न्यायालयों का दरवाजा खुला रखने के पीछे की मंशा यही से ही निकलती है कि कोई भी व्यक्ति कभी भी अन्दर आ कर प्रमाण परीक्षण क्रिया को देख सकता है और स्वयं को संतुष्ट कर सकता है कि सब कुछ यथास्थिति है कि नहीं। इसी सन्दर्भ से न्यायालयों का सामाजिक सम्मान स्थापित होता है।
एक वैकाल्पिक तर्क में लोग ऐसा समझ लेते हैं कि न्यायालयों का दरवाजा खुला होना का अर्थ है कि कोई भी कभी भी न्याय मांगने जा सकता है। यह इतना गलत तर्क नहीं है , हालाँकि यह केन्द्रीय विचार नहीं है। केन्द्रीय विचार पारदर्शिता से सम्बद्ध है।
पश्चिम के देशों में संसद और न्यायालयों दोनों का सीधा प्रसारण समूचे देश में दिया जाता है।
जनसुनवाई एक अनिवार्य न्यायिक कसौटी नहीं है, हालाँकि आवश्यक ज़रूर है। आपसी पारिवारिक मसले, बलात्कार इत्यादि ,राष्ट्रिय सुरक्षा सम्बंधित मसले इत्यादि पर जन-सुनवाई से रियायत मिलती है। मगर फिर यहाँ भी न्यायायिक प्रक्रियाओं ने तरीके इजाद कर लिए हैं की जन सुनवाई से वंचित होने की आवश्यकता नहीं पड़े। मूक साक्ष्य नियम( silent witness rule) इसी प्रकार कि एक पद्वति है जब राजकीय गोपनीय वस्तु को जन-सुनवाई देते हुए भी संरक्षित किया जा सकता है। इसमें आवश्यक सरकारी अफसरों से सिर्फ हाँ या ना के उत्तरों में साक्ष्य लिया जाता है। इसी तरह साक्ष्यों का कोड नामकरण एक तरीका है बलात्कार इत्यादि मसलों में जन सुनवाई करते हुए संरक्षण देने का।
जन-सुनवाई इतनी आवश्यक है कि जहाँ रियायत मिलती है तब भी वहां भी इससे वंचित होने से बचा जाता है।
सोशल मीडिया भी अनजाने में एक जन-सुनवाई की क्रिया ही निभाता है। इसलिए यदि आपके विचार सामाजिक न्याय के विपरीत हैं तब आप यहाँ असंतुष्ट, असहमत, या आरामदेह नहीं महसूस कर सकते है। साधारणतः लोग सोशल मीडिया पर जोक्स, चुटकुले, अपनी स्थिति, या कोई अलंकृत कथन 'शेयर' करते हैं। मूल सृजन की संरचनाएं बहोत कम मिलेंगी क्योंकि अधिकाँश लोग किसी अन्य की संरचना को सांझा(share) कर के ही काम काम चलाते हैं। 'शेयर' करने के अपने लाभ हैं जिसमे कि मूल सृजन के दौरान हुयी गलतियों की सामाजिक भर्त्सना से बचने का लाभ भी आता है। 'शेयर' में स्वयं के मस्तिषक का प्रयोग नहीं होता है बस अपनी भावना के लक्षण प्रसारित किये जाते हैं। फेसबूक का 'लाईक' विकल्प भी यही मकसद पूरा करता है।
-बल्कि शेयर और लाईक बटनों ने फेसबुक की आधी से आधिक आय प्राप्त करी होगी। यदि मूल सृजन ही एक मात्र विकल्प रह जाता तब तो सोशल मीडिया की दूकान ही नहीं चलती।
बरहाल बडा विचार है "जन सुनवाई"।
जन-सुनवाई से अभिप्राय कतई भी 'आम आदम' के बौद्धिक स्तर से समझे जाने वाले 'कल्याण' का नहीं है। 'आम आदमी' का अपना चरित्र दोष होता है और वह जीवन को भोजन, निंद्रा और मैथुन से प्रेरित प्रसंग में ही समझता है।
आम आदमी और जन-कल्याण में अंतर मानवीय भाव की उत्कृष्ट समझ का है। आम आदमी के बीच में इन्हीं से आये ऐसे व्यक्ति भी होते हैं जो संप्रत्यय(conceptual, abstract) में देखते हैं और सिद्धांतों की तलाश करते रहते हैं।
सिद्धांतों द्वारा प्राप्त किये गए विचार व्यवहारिकता से प्राप्त समझ से भिन्न होते हैं। व्यवहारिकता की समझ में सूर्य धरती की परिक्रमा करता है क्योंकि मनुष्य के चक्षु इसी सत्य का दर्शन करते हैं। बौद्धिकता से प्राप्त सिद्धांत में धरती सूर्य की परिक्रमा करती है। यह चक्षु से प्राप्त सत्य के ठीक विपरीत है। जीवन पर नियंत्रण और सुधार सिद्धांतों सइ प्राप्त ज्ञान से होता है, व्यवहारिकता के ज्ञान से नहीं। व्यवहारिकता के ज्ञान में बारिश ऊपर बादलों से बरसती है और बादलों में पानी कहाँ से आया यह अबूझ हो जाता है। बौद्धिकता से प्राप्त ज्ञान वर्षा-जल-चक्र का ज्ञान देते हैं की बारिश का पानी उन्हीं स्रोतों से आता है जिन्ह पर वह बरस रहा होता है। जल संचय इसलिए आवश्यक क्रिया होती है।
तो जन कल्याण आवश्यक नहीं की वही है जो आम आदमी को चाहिए। इसमें बौद्धिकता - बुद्धि और इन्द्रियों के विशेषीकृत मिलन से प्राप्त सिद्धांत- भी अपना प्रभाव देते हैं।
संभव है की आपके विचार इस तरह के कई जन कल्याण सिद्धांतों से अनभिज्ञ होने की वजह से जन कल्याणकारी न हों। और इसलिए आपके विचारों पर सहमती नहीं बन सक रही हो। यह समझाना आवश्यक है की विचारों की अभिव्यक्ति पर रोक नहीं है, मगर आपके विचारों पर आम सहमति बन जाए यह भी आवश्यक नहीं है। विचारों के घर्षण के दौरान सिद्धांत और व्यवहारिकता आपस में संगर्ष में आते हैं। इसमें किसी का परास्त होना साधारण निष्कर्ष है।
यदि आप अपने विचार समाज में व्यक्त करने से ही कतरा रहे हैं तब यह आपका व्यक्तिगत चुनाव है। अभिव्यक्ति स्वतंत्र है। चुनाव आपका है की आपको प्रयोग करना है कि नहीं। यदि आपकी अन्तर्ध्वनि ही आपको विचार व्यक्त करने से रोक रही है तब शायद आप जन-कल्याणकारी विचार नहीं रखते हैं।
जन-सुनवाई (Public Hearing) का महत्व , and regarding the two-faced laws in India which effectively make the application of law a discretionary work , not a logical consequence.
जन-सुनवाई सत्यापन का सर्वोच्च मानदंड है | आज यह सीधा प्रसारण पर रोक लगा कर यही प्रमाणित हुआ है की देश में प्रजातंत्र सिर्फ एक आभासीय वस्तु है -- जनता को भ्रमित कर के विभाजित रखने की एक साज़िश , जिसम की असली फायदा सिर्फ नेता लोगों को ही हो रहा है | आधी जनता कहेगी "यह सही है" , बाकी आधी कहेगी "यह गलत है" | जनता के आपस के इस मतभेद में नेता जी लोग फायदा लेंगे और ऐसे ही सत्यापन को बिफर देंगे |
Reference the latest episode of appointment of Additional Director of the CBI by the Prime Minister's Office, the people of India should look at the way the rules are formulated - often with an in-built mechanism of flouting ,or, prone to flouting with a small twist of logic .
Action-A : requires that the CVC Should be consulted prior to appointing a person on the post.
Action-NOT-A : says that appointment can be made WITHOUT regard for the consultation given by the CVC ,by taking advice from the law ministry!
Reading the above statement of facts, Can a person tell when and why should the the CVC be consulted for the appointment on the post? Or rather is it only for a joke that the PMO should consult or to not the consult the CVC at all !
Welcome to the Govt of India - an agency operated by the third class people.
आम आदमी पार्टी की आर्थिक और विदेश नीतियों पर एक विचार
आर्थिक नीतियों पर तो छोटी पार्टियों की निति तो एक शब्द में समझा जा सकती है - भ्रष्टाचार |
यह सारी नीतियाँ किसी फिल्मी प्रभाव में उत्पन्न है , किसी मूलभूत अध्ययन से निकले सिद्धांत पर नहीं आधारित हैं | संक्षेप में कहें तो -- जिसकी जैसी भावना, वही उसकी निति है | तथ्यों का संग्रह और अध्ययन किसी ने नहीं किया है |
आम आदमी पार्टी का उद्गम भ्रष्टाचार निवारण के आन्दोलन से हुआ है और वही यह तय कर देता है की इसका मुख्य ध्यान-केंद्र आर्थिक और सामाजिक न्याय पर ज्यादा है | इससे आर्थिक नीतियों की दिशा भी तय हो सी जाती है | यानी जो भी अध्ययन से प्राप्त सिद्धांत पर करना होगा , वही निति मानी जाएगी | योजना आयोग और वित्त मंत्रालय इत्यादि में कोई कमी नहीं है शैक्षिक व्यक्तियों की | और न ही आम आदमी पार्टी में कोई कमी है उच्च शैक्षिक व्यक्तियों की जो अध्ययन से प्राप्त विचारों को समझ नहीं सके| अब 2G/3G प्रकरण या फिर कोयला आवंटन का प्रकरण को ही देखिये | नौकरशाही में उच्च शिक्षा प्राप्त सचिवों की कमी नहीं थी, न ही उनमे से कईयों ने अपने विचार प्रकट करने में कमी रखी थी | मगर सुनने वाले यूपीए के मंत्रियों के मन में ही जब भ्रष्टाचार भरा हुआ था तब कौन रोक सकता है नीलामी के स्थान पर मन-वांछित कोयला आवंटन करने से ! योजना आयोग ने तो तय कर ही दिया था की निजीकरण होना है |
चुनावी पार्टियों को अगर कोई ख़ास कारण न हो तो अपनी स्वयं की आर्थिक निति की आवश्यता भी नहीं होती | प्रकृत को देखिये की यही भूमि का सत्य भी है | किसी चुनावी पार्टी की अपनी खुद की कोई ख़ास निति नहीं है | मगर आम आदमी पार्टी एक ख़ास वस्तु ज़रूर दे रही है जो की तय कर देगा की "आप" बाकी सभी पार्टियों से अलग है | वह वस्तु आम आदमी पार्टी का विशिष्ट प्रेम "जन लोकपाल विधेयक " है | -- देश के शैक्षिक और चयनित लोगों को राजनीतिज्ञों से आज़ादी दिलवाना | एक ऐसी संस्था जिसे राजनैतिक प्रभाव से मुक्त कर के रखा जा सके और देश में फिर से चुनावी और चयनित लोगों के मध्य में शक्ति का संतुलन कायम किया जा सके | देश में घटे यह सारे घोटाले बहोत भीतर के प्रशासनिक दर्शन में एक शक्ति के असंतुलन की वजह से हुए थे-- चयन और चुनावी प्रक्रिया से आये लोगों के बीच में | जब आर्थिक नीतियों को 'चुनावी प्रक्रिया से आये लोग'(यानी राजनेता ) - गरीबी हटाओ इत्यादि का बहाना दे कर अपने पक्ष में कर लेंगे तब कौन क्या कर लेगा भ्रष्टाचार रोकने से | चयनित प्रक्रिया की संस्थान -- CAG से लेकर कितने ही सचिवों ने पत्र लिखे की आवंटन यथास्तिथि नहीं हुए मगर उनकी सुनता कौन ! भाई निति के अनुसार तो काम हुआ ही -- जब निति ही यथास्तिथि नहीं थी तब गलत हुआ ही क्या ! कपिल सिब्बल ने इसी तर्क पर तो शून्य नुक्सान की थ्योरी दे दी थी !
चुनावी व्यक्ति (=लोकप्रियता से आये व्यक्ति ) , चयनित व्यक्ति (=प्रमाणित योग्यता के व्यक्ति ) से अधिक प्रभाव शाली हो गयें हैं | इससे शक्तियों का संतुलन बिगड़ गया है | देश की सारी सन्स्थाएं -- राष्ट्रपति के पद से लेकर सर्वोच्च न्यायलय के न्यायधीश -- सब के सब इन्ही राजनीतिज्ञों द्वारा ही "चयनित" हो रहे हैं | यही त्रासदी का कारक बन गयी है |
देश में यूपीए और एनडीए ने कार्यक्रम तो बहोत चलाये -- मगर सब में "मनरेगा" और "स्वस्थ्य घोटाला " ही तो हुआ है | आभी प्रथम आवश्यकता योजनाओं से अधिक घोटाला रोकने के प्रबंधन करने की है | वैसे ऊपर-ऊपर सभी भ्रष्टाचार से लड़ाई का दिखावा कर रहीं हैं -- मगर यह राजनीतिज्ञों से पूर्ण आज़ादी वाली एक संस्था का निर्माण किसी को भी नहीं भा रहा है | यही पोल खोलता है की कौन कितना सामाजिक और आर्थिक न्याय के मन से पक्ष में है |
Lack of Legal Expertise cannot hide the freedom and the duty to communicate, unless ofcourse "lacking Legal Expertise" is a cover for linguistics and semantics inabilities.
One of the greatest quality of human existence is their ability to communicate - their thoughts and their desires. The immense conquest of humans over the other species of life came with the help of their brain skills. Communication in the USP of humans. Written communication served the purpose of preserving the knowledge found and discovered by one generation for transfering to the next generation. Each generation contributed to the enhancement of the common knowlwdge bank, instead of re-discovering what the old ones had already discovered.
Written communications made the original terms and conditions of the contract permanent- preserved for a life time, and served as evidence for everyone to see.
That what everyone in the society could come and see for himself, witness by his own senses came to be known as EVIDENCE. When a specialised logical process- the consideration of the enormous possibilties of it existence- begins to be applied to an evidence to make sense of it, thereof to produce a story, a theory, the evidence becomes a LEGAL EVIDENCE.
All this specialised processing of the written form of communication couldn't have deprived the writing ability of purpose of its origin-- to express the human thoughts and desires. Specialisation knows the foundational truth of its own works, the limitation of its existence. Specialisation cannot overthrow the general view; rather, specialisation finds the seeds of its birth from general view. Even the law recognises the truth and therefore seeks to depend on the intentions of the law instead of mere words. Words have their limitations and cannot comprehensively express all that the vast earth , all the lives on it, and cover all the three phases of times-- everyone recognises this truth.
Therefore the fear of the specialised "legal" processing is a bogey of the unawakened humans. Were it really so real then perhaps all the businesses would have been headed by the lawyers instead of the specialists of pertinent fields. Invoking a "legal expert" or even a lawyer for simple human communications often times hides in it the linguistics and semantics inabilities of the people. While it stands true that the specialised processing of the written words aften invites intense, hair-splitting scrutinising by the lawyers, but often THE ANTI-DOTE TO IMMENSE SPECIALISATION IS THE GENERALISED VIEW ITSELF.
The soul of communication is the intentions and desires, words are the mere carriers of it.
Democratic freedoms are meant for a better solution-finding, not to fizzle out the solution itself.
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MS
When the winds of change start to blow they don't follow the old tracks. Change don't run in a competitive race on the same old race courses. Why would they be a change if they too do the same. ________________________________________________________________
VD: The whole idea sounds as if its a genetic disease and they will replace it with purer genetic pool.
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MS
haha..A Paulo Coelho puzzle about a king in whose kingdom a magician a put some potion in the well from which everyone in the town drinks the water. The potion makes everyone dumb headed and behave foolish. Every one has gone bonkers except the king himself. What do you think the king should do now. Should he also drink away the water? How should he cure his ill subjects? Or, is there any other option for the king ? Vineet Dubey: Watch a movie Idiocracy , and read about its review in Wikipedia.
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VD: If someone believes that only he is correct and everyone else is wrong then we know who needs (mental) help.
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MS
That's where the typical idiocy of Indian gene shows up!! That , which you just said ! Eventually the idea of democratic freedom, the freedom of speech, idea, belief and opinion is NOT to fizzle out the right and the just ! The whole purpose of the Democratic freedom is described by the "Marketplace of Ideas" the purpose of which is to help reach the RIGHT AND THE JUST CONCLUSION WITH MORE ACCURACY ! You worked it the other way, Dear VD. It is a typical error an indian mentality makes , most likely under the influence of the Hindu culture one is brought up in . We believe in a thousand crore gods and have a syncretic culture. We allow for the "A" and "Not-A" to co-exist. It is not feasible and not in the better mental health of the followers of this system unless they have a mechanism of sorting out how to live in the oxymoron's world ! You see, in the past the culture originally was based on the idea of Knowledge (Sanskrit root word Vid , meaning Knowledge.) possibly because of this very reason. Knowledge (technical specialisation, dhyan (meditation, immense thinking), yoga, pramaan(evidencing laws), tark (logical reasoning), nyay-sutra, shastrath (dialectic reasoning) , Charvak school of thoughts) that is way emerged from this very religion. It is because of these process that a Hindu could survive in his oxymoron's world. Or else he is destined and doomed to become a confused person, and an Idiot in the least. These are the attributes which contribute towards giving this vedic religion its USP of the Dharma. Dharma is a connotation for Nyay(the Justice) and Honest, public welfare policy-making. Without these attribute A Hindu is nothing but a fool. Anyways, another observed truth, I hold, is that Hindu will be naturally be more prone to behave a confused idiotic self in a democracy unless he learns to find the Solutions and then make policies and laws which are Uniform, homogenous and unambiguous. Only then, a law court and a government can do the right things. Watch out, your words justify Confusion, Idiocy, ambiguity and inequality. That's what the government of today is behaving like. !
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VD: Thats ur standard line of argument. u find it easier to strike at people than to counter the idea.
I know we do not have a meeting ground on ideas but that does not mean I denigrate every discussion.
As far as logic is concerned the person who believes that he has more and generalises the opposite idea as "Indian mentality" etc is usually wrong. You are not alone. There r many left leaning pseudo intellectuals who will rubbish vedic culture and then quote from it. I will prefer confused democracy over nazi school of pure bred holier than thou crusaders.
Apologies I had to stoop down to ur standard of name calling and generalising which u mistake for debate.
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MS
I hope and pray that a self-awakening comes around some day. may the wisdom prevail , the self-knowledge come high.
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VD: Amen to that
दो-मुहि नियम व्यवस्था से केजरीवाल का इस्तीफ़ा
अच्छा खेल मात्र किसी एक खिलाडी के अच्छा खेलने से नहीं हो सकता है | खेल के नियम भी उस खेल को अच्छा खेलने के लिए प्रेरित करने वाले होने चाहिए |
मात्र तेंदुलकर यदि अच्छा खेल खेले मगर यदि मैच पहले से ही फिक्स्ड था तो कोई आनंद नहीं है उस मैच को देखने में | आत्म-जागृति के साथ स्वयं को मुर्ख नहीं बना सकते हैं | आत्मा को खोखला नहीं कर सकते हैं |
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बहोत समय तक मैं श्री श्री रविशंकर जी के विचार पर मंथन करता रहा। श्री श्री का मानना है कि अरविन्द को त्यागपत्र नहीं देना चाहिए था क्योंकि देश में भ्रष्टाचार निवारण के और भी कानून हैं और यदि अरविन्द सत्ता में कायम रहते तब उन कानूनों का प्रयोग करके भ्रष्ट राजनेताओं से देश को मुक्ति दिला सकते थे।
श्री श्री एक महंत व्यक्ति हैं और संभवतः प्रशासन व्यवस्था तथा न्यायायिक प्रक्रियों के मिलन से निर्मित इस जटिल निति-निर्माण प्रणाली के गहरे पेंचों का स्पष्टता से नहीं समझ रहे होंगे।
असल में यह निति निर्माण के जंजाल को न समझ पाने कि दिक्कत सिर्फ श्री श्री की है , बल्कि हम सभी नागरिकों कि ही है। हम सब इसे आभास तो कर रहे हैं कि कहीं कुछ गड़बड़ है मगर स्पष्टता से समझ नहीं सकने के कारण इस गड़बड़ को शब्दों में व्यक्त नहीं कर पा रहे हैं।
भारतीय नियम कानूनों में खुद भी एकाग्रता ( stream line) नहीं होना तो अब स्पष्ट हो चूका है। यही दिल्ली विधान सभा में विधयक नहीं ला सकने कि संवैधानिक दुविधा हाल के दिनों की दूसरी घटना है जिसने हमारे शाशन प्रणाली की पोल खोल दी है की हम भारतियों ने एक साथ नियम-'अ' तथा नियम-'नहीं-अ' वाली व्यवस्था बड़ी मूढ़ बुद्धि से विक्सित कर ली है।
अभी तक तो आम आदमी को ही नहीं पता होता था की इस व्यवस्था में काम कराने के लिए करना क्या है , मगर आज सरकार और संविधान विशेषज्ञों को भी नहीं पता है - यह खुलासा हुआ है। बहोत मुर्खता पूर्ण हास्य है कि संविधान विशेषज्ञों में भी खुद एक राय नहीं है ! यानी, पैसे कि ताकत और मर्ज़ी की बात है - जो चाहे कर लो - संवैधानिक विशेषज्ञता की राय तो जैसी चाहिए बाज़ार में मिल जाएगी।
मुर्खता से निर्मित इस व्यवस्था में अरविन्द का ज्यादा दिन सत्ता में रहना उनके चरित्र और छवि के लिए सुरक्षित नहीं था। "आप" यहाँ खेल के नियम बदलने आई है , इस मौजूदा नियमावली में खेल खेल कर स्वयं को सर्वश्रेष्ट प्रतिस्पर्धी प्रमाणित करने के लिए नहीं। वैसे भी यह नियमावली भ्रष्टों, असक्षम, बुद्धिहीन और अपराधियों के बचाव के लिए परिवर्तित हो चुकी है। इमानदार, भावुक मानवीयता और अधिक योग्यता वाले व्यक्ति यहाँ "अशोक खेमका" हो रहे हैं।
ऐसे में अरविन्द जी को मुख्य मंत्री बने रह कर खुद अपनी ही इमानदारी का शिकार हो जाते - यह इस मौजूदा निति व्यवस्था के तय नतीजे थे। इस नतीजे के लिए कहीं कोई साज़िश कोई कुकृत्य नहीं करना होता । महज एक इंतज़ार कि कब अरविन्द एक शिकार बन कर स्वयं से निति व्यवस्था के जाल में फंसे।
विपक्ष की पार्टियां इस निति-तथा-न्याय व्यवस्था की इस प्रकृति को जानती है और इसी लिए अधिक सीट जीतने के बावजूद "आप" की मौजूदगी में सरकार नहीं बना रही हैं। यदि अरविन्द नियम क़ानून नहीं बदल सकते हैं तब उनके लिए मौजूदा नियम व्यवस्था के आधीन अधिक दिन खेलते रहना उचित नहीं था।
50% power bill waiver by the AAP's Delhi Government to those who protested against the inflated bills: WHAT IS THE LOGIC OF MEDIA IN MAKING CLAIMS OF PROPRIETY ?
Back in time, a propriety issue had risen when the AAP has called on people to protest by not paying up their Electricity Bills. The moralists asked the AAP to give back something in return to such people who would be supporting their call. It came as a due moral obligation on the AAP to give back , to share away, the fruits of the protest they all suffered.
Therefore the propriety issue of why should the AAP benefit its supporters is a question of Morality, and is well answered.
The second question related to the propriety could be about from which funds should this subsidy be borne?? From the AAP's personal funds, or the State's fund??
Is the second question really so difficult to answer? It HAS TO BE the State's fund. The funds of AAP are the common collection of the people itself and meant to bear only the election expenses. The protest was against the Delhi's erstwhile govt and therefore the cost will naturally have to come on those people. The cross-scrutiny of this issue against those who paid their bills, while not conforming to the AAP's call, is answered by the fact that those people, in logic, never suffered. Neither then, nor now. So, there cannot be a propriety to share the rewards with those who did.
In simple words,
When the freedom war against the British had been won, everyone shared the fruits of freedom. But everyone was not entitled to become the freedom fighter. Only those who did the active fight became entitled to the Freedom Fighter status.
It seems that the logic of the news media is that : Either make everyone a freedom fighter who were living before the independence happened, OR make none.
!!
Therefore, once the fruits of the court room battles against the DisComs are won by the Kejriwal govt, if it comes that the receipts should be disbursed back to the people , then the appropriation will be made to the entire people of delhi nomatter they supported the AAP's call or not.
अधिकारीयों की गुप्त समीक्षा पद्धति और इसके सामाजिक प्रभाव
तर्क के एक सिद्धांत तो यह बताता ही है की यह दोनों तो मात्र सिरा है एक ऐसे हिम खंड का जिसमे नीच न जाने ऐसे कितने और व्यक्ति और अधिकारी होंगे जो की ज्यादा सक्षम अधिक प्रभाशाली और अधिक समग्रता से कर्तव्य निभानते होंगे , मगर हमारी जन प्रशासन व्यवस्था ने उन्हें ऐसे ही प्रताड़ित करा होगा | श्री संजीव चतुर्वेदी के केस में तो अभी कुछ दिन पहले सीधा राष्ट्रपति हस्तक्षेप के बाद कुछ परिवर्तन हुआ है | मगर हर कोई इतना भाग्यशाली नहीं होगा |व्यवस्था का दुर्गुण न जाने कितने और अभी भुगत ही रहे होंगे |
क्या कारण है और व्यवस्था का ऐसा कौन से तर्क है जिसमे यह प्रताड़ना संभव हो पाती है ?
समाचार पत्रों से मिली खबरों में टटोले तो उत्तर मिलता है की इस प्रकार की भ्रष्ट व्यवस्था का कारण है-- गुप्त समीक्षा रिपोर्ट (Annual Confidential Report) |
यह गुप्त समीक्षा रिपोर्ट जन-समस्या और भ्रष्टाचार निवारण की उद्देश्य में एक महतवपूर्ण विचार विषय होना चाहिए | जहाँ हम बार बार पर्दर्शित की बात करते हैं , नौकरशाहों की आपस में अंदरूनी बनी यह गुप्त कार्य व्यवस्था समूचे देश और समाज के लिए एक अभिशाप बनती जा रही है |
यह भारत जैसे पिछड़े देश में ही तर्क सुनने को मिलेगा जिसमे गुप्त समीक्षा रिपोर्ट को सही ठहराया जा सकता है | साधारणतः मानव संसाधन विशेषज्ञों में गुप्त समीक्षा वर्जित मानी जाती है | इसका कारण है की गुप्त समीक्षा प्राकृतिक न्याय के विरुद्ध कार्य प्रणाली विक्सित करती है | प्राकृतिक न्याय का एक सूत्र यह है की समीक्षा भी एक विचार गोष्टी के समान है --और दोनों पक्षों को बराबर का अवसर दिया जाना चाहिए | इसलिए किसी भी व्यक्ति की कार्य समीक्षा (अथवा मूल्यांकन ) उसके सामने , जानकारी में ही किया जाना चाहिए जिससे की निष्पक्षता बनी रहे | समीक्षा रिपोर्ट में समीक्षा करने वाले के साथ साथ , जिसकी समीक्षा करी गयी है --उसके भी टिपण्णी लेनी चाहिए |
गुप्त समीक्षा पद्दति इस प्राकृतिक न्याय की सिद्धांत के विरुद्ध कार्य करते हुए यह मान कर चलती है की समीक्षा करने वाला "बड़ा है ", यानी अधिक वरिष्ट पदस्थ है , इसलिए वही "सही है "| और इसलिए उसके "मौलिक अधिकार " है की वह अपने से अवर(कनिष्ट) पदस्थ की गुप्त समीक्षा लिख सके |
न्याय की यह समझ जिसमे यह पूर्वाग्रह है की वरिष्ट पदस्थ , कनिष्ट पदस्थ से अधिक ज्ञानवान है और 'सही है ' - एक त्रुटी पूर्ण न्याय व्यवस्था को स्थापित करता है , जिसे की अनुक्रमिक न्याय व्यवस्था कह सकते है (Hierarchical Justice system)| इस प्रकार की न्याय व्यवस्था में दोनों पक्षों को बराबर का अवसर दिया ही नहीं जाता है | यही वह जड़ है जहाँ से पूरे देश और पूरे समाज में भ्रष्टाचार फैलता है और सामाजिक समस्या बन जाता है |
भारत में न सिर्फ सरकारी विभाग बल्कि प्राइवेट सेक्टर भी भरे हुए है -- कुतर्क भरी ही चरम मुख व्यवस्था से |
साधारणतः किसी भी स्वस्थ समाज में यह माना जाता है की यदि कोई कम सक्षम और या त्रुटी करे तो उसके वही उसके सामने बता देना चाहिए | आखिर गलती इंसान से ही होती है | सामने के बात चीत वही का वही सुधार भी करवा देगी और यदि कोई मत भेद होगा तो प्रमाणों की तुरत उपलब्धता के चलते न्याय भी कर देगी की सत्य क्या था |
गुप्त समीक्षा का एक सिद्ध कारण यह माना जा सकता है की यदि कोई शत्रु देश में हो या सम्बन्ध रखता हो जहाँ की हमारे देश की न्याय व्यवस्था पहुँच नहीं सकती है -- तब हम उस व्यव्क्ति के प्रति गुप्त रिपोर्ट लिख सकते है | एक अन्य परिस्थिति जब गुप्त समीक्षा को सही माना जा सकता है -- वह है , जब कोई व्यक्ति किसी प्रकार के संभावित मनोविकार से पीड़ित है जिसमे की वह सामने सामने किसी त्रुटी पर विचार कर सकने के मानसिक योग्यता में न हो -- यानि की त्रुटी बताये जाने पर वह कोई संभावित गुप्त तरीके से क्षति कर सकता है |
मगर इस दूसरे परिस्थिति में मानदंड यह है की गुप्त समीक्षा में संभावित मनोविकार पर ही विचार होना चाहिए, यह समझते हुए की यह समीक्षा पर प्राकृतिक न्याय अभी बाकी है --जिसके दौरान यह गुप्त समीक्षा उस समीक्षा लिखने वाले पर भी रोशनी डालती है |
समीक्षा लेखन का एक विचार वस्तु है "performance"| यह एक अबोध्य विचार है जिसके आगे-पीछे यह समीक्षा का विचार घुमाता है | performance की स्पष्ट परिभाषा और नाप तौल का जरिया न होने की वजह से यह लोग अपने तर्कों में यह गुप्त समीक्षा का विचार उत्त्पन्न करते है| और अन्धकार-मई बुद्धि से यहाँ तक आ पहुंचाते है --जब वह प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों को तोड़ देते है और समाज और देश को प्रदूषित कर देते हैं |
न्याय एवं जन सुनवाई का महत्त्व
इस प्रश्न का उत्तर है -- जन सुनवाई (Public Hearing) |
"नागरिक एवं राजनैतिक अधिकारों से सम्बंधित अंतर्राष्ट्रीय प्रतिज्ञापत्र " (International Covenant on Civil and Political Rights) के अनुबंध १४ में यह प्रतिज्ञा रही है की सभी नागरिकों का अधिकार रहेगा की उन्हें एक जन सुनवाई प्रदान करवाई जाए -- जिससे की यदि उनके साथ न्यायायिक कार्यवाही के दौरान कोई त्रुटी अथवा कोई अन्याय हो रहा हो तब वह जन समुदाय से सहायता मांग सके | इस अनुबंध का सीधा अर्थ यह है की सभी किस्म की न्यायालय की कार्यवाही आम जनता के लिए खुली होनी ही चाहिए | मगर इसी अनुबंध १४ में यह भी बताया गया है की कोई भी न्यायालय किन किन हालात में सुनवाई को बंद दरवाज़े में कर सकता |
Article 14 of the ICCPR (http://www.ohchr.org/en/professionalinterest/pages/ccpr.aspx)
1. All persons shall be equal before the courts and tribunals. In the determination of any criminal charge against him, or of his rights and obligations in a suit at law, everyone shall be entitled to a fair and public hearing by a competent, independent and impartial tribunal established by law. The press and the public may be excluded from all or part of a trial for reasons of morals, public order (ordre public) or national security in a democratic society, or when the interest of the private lives of the parties so requires, or to the extent strictly necessary in the opinion of the court in special circumstances where publicity would prejudice the interests of justice; but any judgement rendered in a criminal case or in a suit at law shall be made public except where the interest of juvenile persons otherwise requires or the proceedings concern matrimonial disputes or the guardianship of children.
चतुर वकील (अधिवक्ता ) अक्सर कर के इसी अनुबंध को नियंत्रित करने के लिए अक्सर कर के न्यायलय से अपने मुवक्किल की इज्ज़त पर खतरा का वास्ता दे कर कार्यवाही को जन-सुनवाई से रोकते है | भारत जैसे देश में जहाँ की भ्रष्टाचार बहोत ही चरम पर होता है , वहां यह कदम बहुत ही महत्वपूर्ण होता है की जनता की नज़रों से अन्दर की लेन -देन को छिपाया जा सके | विदेशों में न्यायालयों ने अंदरूनी भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के लिए सर्वोच्च न्यायालयों की कार्यवाही का टीवी पर सीधा प्रसारण की सुविधा भी चालू करी है | नीचे दिए गए कुछ वेब लिंक है जहाँ की कोर्ट की कार्यवाही का सीधा प्रसारण देखा जा सकता है | http://news.sky.com/info/supreme-court
http://www.bbc.co.uk/news/uk-24756186
Consumerism in the Asian societies-- a dominant cause of their social decay
संस्कृति , मानसिकता और वैज्ञानिक मिशन के उद्देश्य
A true and honest 'Expert' takes care that he does not take control of the people's Conscience who have reposed faith in him
Corruption, among other things, a consequence of the haphazard laws in Indian system
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