केजरीवाल ने त्यागपत्र का रास्ता ही क्यों चुना? ..एक विचार
यह समझना ज़रूरी है की केजरीवाल ने 18फरवरी को अपने प्रिय विधेयक, जन लोकपाल बिल, को सभा में प्रस्तुत कर सकने के बहुमत परिक्षण में असफल होने के उपरान्त त्यागपत्र का रास्ता ही क्यों चुना, और क्यों नहीं मुख्य मंत्री बने रहते हुए जन-सेवा करी ।
बहोत सारे लोग केजरीवाल से यह उम्मीद कर रहे थे और आज भी कर रहें हैं की केजरीवाल को जन सेवा के वास्ते पद पर कायम रहना चाहिए था और ऐसा करने से उन्हें पद-अनुभव भी मिलता और जनता में योग्यता भी सिद्ध होती।
इस प्रशन के उत्तर में पहले हमें "जन सेवा" के भावार्थ को भी समझना होगा। तर्क निरक्षण के लिए एक प्रश्न करना होगा क्या शीला दीक्षित जी की कांग्रेस सरकार जन सेवा नहीं कर रही थी? सही, एक संतुलित आंकलन में, जन सेवा तो सब ही सरकारें कर रही होती हैं।
तब जन सेवा के प्रसंग से क्या भावार्थ हुआ ? यह की जो पिछली सरकार ने किसी कारणों से करने से मना कर दिया था वह यह सरकार कर देगी। इसमें वैध कारण और अवैध कारण पर एक नपी-तुली चुप्पी है और दोनों को मिला कर एक रूप, एक शब्द में "जन सेवा" कह दिया जा रहा है। किसी सिद्धांत प्रेरित जन सेवा का भाव नहीं है इसमें।
"आप" का उदय भ्रष्टाचार उन्मूलन की लड़ाई में हुआ है। सत्ता में रह कर यदि यह नियमों को अपनी आस्था के अनुरूप नहीं परिवर्तित कर सकेंगे तब "आप" वाले इसी भ्रष्ट-प्रोत्साहन व्यवस्था में अपनी योग्यता सिद्ध करने की दौड़ में दिखाई पड़ेंगे। यह कुछ ऐसा ही होता की एक बिना किसी नियम-नियंत्रण वाली स्पर्धा में एक अपाहिज, बिना हाथ वाले व्यक्ति को दौड़ा दिया गया हो। यानी, प्रतिस्पर्धी भ्रष्टाचार में लिप्त, कुछ भी दोष करे, मगर "आप" उनको उनके ही सिक्कों में जवाब दे तो यह सन्देश होगा की "आप" भी भ्रष्टाचारी हो गयी है। ऐसी दौड़ों के नतीजे स्पष्ट, पूर्वानुमानित होते हैं। "आप" को "जन सेवा"(अवैधता के कारणों से जो मांगे पिछली सरकारों ने नहीं पारित किया) के दौरान अयोग्य ही साबित होना पड़ता या फिर की "वही पुरानी जैसी पार्टियों के जैसी, कोई बेहतर नहीं।"
कोंग्रेस का समर्थन इसी समझ पर था की जनलोकपाल विधेयक पारित होगा। बिना इस कानून के तो सिद्धांतों और उसूलों की रस्सी से बंधी "आप" को लकड़ी का सहारा भी नहीं है। और विरोधी किसी जन-जातीय कबीलाई की भाँती ख़ुशी मना रहे हैं कि अच्छा, आसान शिकार मिला है।
"आप" के प्रयोग से यह पार्टियां एक अनन्त काल के लिए स्थापित निष्कर्ष यह निकलवाती की "मजबूरियां बहोत हैं, वरना सख्त कानून तो हम भी चाहतें हैं"। इधर "आप" इस गोल-चक्र पहेली, 'मजबूरी-से-भ्रष्टाचार' और 'भ्रष्टाचार-से और-अधिक-भ्रष्टाचार-की-मजबूरी' , का समाधान देना चाहती है -
एक सुदृढ़ राजनैतिक इच्छा ।
बहोत सारे लोग केजरीवाल से यह उम्मीद कर रहे थे और आज भी कर रहें हैं की केजरीवाल को जन सेवा के वास्ते पद पर कायम रहना चाहिए था और ऐसा करने से उन्हें पद-अनुभव भी मिलता और जनता में योग्यता भी सिद्ध होती।
इस प्रशन के उत्तर में पहले हमें "जन सेवा" के भावार्थ को भी समझना होगा। तर्क निरक्षण के लिए एक प्रश्न करना होगा क्या शीला दीक्षित जी की कांग्रेस सरकार जन सेवा नहीं कर रही थी? सही, एक संतुलित आंकलन में, जन सेवा तो सब ही सरकारें कर रही होती हैं।
तब जन सेवा के प्रसंग से क्या भावार्थ हुआ ? यह की जो पिछली सरकार ने किसी कारणों से करने से मना कर दिया था वह यह सरकार कर देगी। इसमें वैध कारण और अवैध कारण पर एक नपी-तुली चुप्पी है और दोनों को मिला कर एक रूप, एक शब्द में "जन सेवा" कह दिया जा रहा है। किसी सिद्धांत प्रेरित जन सेवा का भाव नहीं है इसमें।
"आप" का उदय भ्रष्टाचार उन्मूलन की लड़ाई में हुआ है। सत्ता में रह कर यदि यह नियमों को अपनी आस्था के अनुरूप नहीं परिवर्तित कर सकेंगे तब "आप" वाले इसी भ्रष्ट-प्रोत्साहन व्यवस्था में अपनी योग्यता सिद्ध करने की दौड़ में दिखाई पड़ेंगे। यह कुछ ऐसा ही होता की एक बिना किसी नियम-नियंत्रण वाली स्पर्धा में एक अपाहिज, बिना हाथ वाले व्यक्ति को दौड़ा दिया गया हो। यानी, प्रतिस्पर्धी भ्रष्टाचार में लिप्त, कुछ भी दोष करे, मगर "आप" उनको उनके ही सिक्कों में जवाब दे तो यह सन्देश होगा की "आप" भी भ्रष्टाचारी हो गयी है। ऐसी दौड़ों के नतीजे स्पष्ट, पूर्वानुमानित होते हैं। "आप" को "जन सेवा"(अवैधता के कारणों से जो मांगे पिछली सरकारों ने नहीं पारित किया) के दौरान अयोग्य ही साबित होना पड़ता या फिर की "वही पुरानी जैसी पार्टियों के जैसी, कोई बेहतर नहीं।"
कोंग्रेस का समर्थन इसी समझ पर था की जनलोकपाल विधेयक पारित होगा। बिना इस कानून के तो सिद्धांतों और उसूलों की रस्सी से बंधी "आप" को लकड़ी का सहारा भी नहीं है। और विरोधी किसी जन-जातीय कबीलाई की भाँती ख़ुशी मना रहे हैं कि अच्छा, आसान शिकार मिला है।
"आप" के प्रयोग से यह पार्टियां एक अनन्त काल के लिए स्थापित निष्कर्ष यह निकलवाती की "मजबूरियां बहोत हैं, वरना सख्त कानून तो हम भी चाहतें हैं"। इधर "आप" इस गोल-चक्र पहेली, 'मजबूरी-से-भ्रष्टाचार' और 'भ्रष्टाचार-से और-अधिक-भ्रष्टाचार-की-मजबूरी' , का समाधान देना चाहती है -
एक सुदृढ़ राजनैतिक इच्छा ।
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