भ्रष्टाचार वाली अर्थव्यवस्था का जन-प्रशासन पर प्रभाव - जनकल्याण के ध्येय का परित्याग

    'निवेशक' शब्द मुझे एक प्रयोक्ति सा सुनाई देने लग गया है -- एक ऐसी विधि के लिए जिसके द्वारा हमारे देश से ही प्राप्त काला धन हमारी अर्थव्यवस्था में वापस एक "वैध" तरीके लगा दिया जाता है|
    अर्थशास्त्र विषय का मूलभूत सिद्धांत है की अर्थ , यानी पैसा , हमेशा गोल चक्र में चलता है | यह केन्द्रीय बैंक से चालू होता है और वापस बैंक में लौटता है | रास्ते भर यह जितने लोगों के हाथों से गुज़रता है , वह सूचकांक होता है की देश में उतना व्यापार हो रहा है, जो की फिर एक प्रतिक्रिया में सूचकांक है की देश में कितना विकास और कितनी खुशहाली है | इसे जीडीपी कहते हैं |
     यदि हमारे देश का कोई अमीर आदमी अपने रहने के लिए आलिशान महंगा-सा महल बनवाता है तो इसमें सब लोग जलन भाव में क्यों आ जाते है , इर्ष्या क्यों करने लगते हैं | भई, अपना महल बनवाने में उस अमीर आदमी ने मजदूरों को उनकी मजदूरी के पैसे तो दिए ही होंगे न ? कोई हाथ तो नहीं कटवा दिया होगा| देश में सरकारी श्रमिक विभाग तो है न जो की सुनिश्चित करेगा की मजदूरी का भाव क्या होगा और उचित श्रमिकी दी जाए |
      कम से कम अमीर आदमियों का उंगली उठाने वालों पर इलज़ाम तो यही है की एक मनोचिकित्सीय इर्ष्या की वजह से उनके महलों पर ताने कसे जाते हैं |
अकसर कर के मैं ये अर्थशास्त्र के सिद्धांतों से समझने का प्रयास करता रहा हूँ की अमीरों के महल बनने से बाकी लोगों को क्या दिक्कत है; या की दिक्कत होनी चाहिए या की नहीं, -- और नैतिकता की दृष्टि से यह दिक्कत का भाव उचित भाव और प्रतिक्रीय है या की नहीं | बात जब मनोवैज्ञानिक विकृत वाले भाव "इर्ष्या" पर आती है तब सोचना पड़ जाता है की यह "इर्ष्या" है, की वाकई में कुछ बल है इस शिकायत में की "अमीर ने महल कैसे बनवा लिया "|
एक सभ्य समाज में हमे किसी की सफलता से इर्ष्या भाव रखना उचित नहीं होता है | "इर्ष्या" एक मनोविकृति होती है और यह सभ्यता के लिए नाशक होती है| मगर फिर सोचता हूँ की क्या यह शिकायत तब भी "इर्ष्या" ही रह जाती है जब देश में करोड़ों लोग भुखमरी का शिकार हो रहे होते हैं , महंगाई आसमान छू रही होती है और भ्रष्टाचार चरम पर होता है ?
       मेरी समझ में ऐसे हालात में अमीरों के नए-निर्मित महल सूचक होते हैं की देश में कही कुछ बहोत ज्यादा गड़बड़ है | अमीरों के महल इसका सूचक होते हैं की पैसा का चक्र असल में वैसे नहीं चल रहा होता है जैसा की सरकारी व्यवस्था ने इसे जन-कल्याण में चलाने की घोषणा करी होती है |
       भ्रष्टाचार से प्राप्त काला धन भी कहीं न कहीं "निवेश" करने की आवश्यकता होती है | मौजूदा भारतीय अर्थव्यवस्था में यह एक निवेश स्थल है "रियल इस्टेट" (अचल सम्पति) का क्षेत्र | "रियल इस्टेट" एक ऐसा क्षेत्र है जहाँ फायदे के तौर पर यह भ्रम भी पैदा होता है की विकास हो रहा है , और साथ में यह भीड़ भी इक्कठी कर रही होती है जिससे की नव-निर्मित भवनों को खरीदने के लिए खरीदारों की भीड़ बढे | साथ ही में यह गोपनीय गठबंधन में लगे राजनेताओं को भी मौका देता है यह कहने का की उन्होंने "देश का विकास " कर दिया है |               बाकी आज कल तो सभी राजनेता यह कहते ही फिर रहे हैं की "(आम चुनाव का )मुद्दा विकास का होना चाहिए|"
      कभी-कभी सोचता हो की कहीं यह कथनी इन राजनेताओं की प्रयोक्ति भरी अपने पापों की आत्म-स्वीकारण तो नहीं है की "मैंने एक "रियल इस्टेट" वाले से गोपनीय गठबंधन कर लिया है |"
जब भी कहीं भ्रष्टाचार का काल धन वापस लाने की बात होती है तब व्यवहारिक समझ में ऐसा ख़याल आता है की मानो कुछ हज़ारों-लाखों बोरों में बंद कर के रुपया देश में हवाई जहाजों से वापस लाया जायेगा |
मगर व्यवहारिक ज्ञान और सिद्धांत के ज्ञान में अंतर होता है | देश और व्यवस्था सिद्धांत के ज्ञान से चलाये जाते हैं, व्यवहारिक ज्ञान से नहीं |"व्यवाहरिक ज्ञान" तो खुद ही एक प्रयोक्ति है "अज्ञानता" के लिए , " सिद्धांतों के ज्ञान का अभाव " के लिए |
        कालाधन के ब्याज-वृद्धि के लिए एक अन्य स्थल खुद निवेष बाज़ार होता है | यानि स्टॉक मार्किट| हमारे देश में जहाँ फॉरेन इन्वेस्टर (विदेशी निवेशकों ) के लिए बाज़ार लगातार खोले जा रहे हैं , यह खुला-पन इन्ही राजनेताओं का एक तरीका होता है अपने काला धन को वापस एक विदेशी रस्ते से भारतीय अर्थव्यवस्था में डाल कर वृद्धि करने का | फॉरेन इन्वेस्टर के लिए बाज़ार खोलने को कुछ जायज़ कारण भी है | मगर फिर खेल तो हमेशा जायज़ कारणों के नीचे नाजायज़ फायदा उठाने का ही होता है |
        भ्रष्टाचार से भी पैसे कहीं छिपा कर इक्कठा नहीं होता है | भई जब यह ब्याज-वृद्धि के कारणों से कालाधन भी वापस अर्थबाज़ार में लौट ही रहा है तब यह कम से कम अर्थशास्त्र के मूल सिद्धांतों के अनुसार तो चल ही रहा होता है | बस दिक्कत यह है की कालाधन का यह पैसा जन-कल्याण को पराजित कर के अपने मन-माफिक , फायदेमंद क्षेत्रों में अधिक कारनामे करने लगता है और ज़रूरत के क्षेत्रों को खाली, भूखा, और मकान-विहीन ही छोड़ देता है | यानी नागरिकों की आर्थिक स्वतंत्रता को ख़त्म कर देता है की वह अपनी स्वतंत्र मन से अपने चाहत के क्षेत्रों में कार्य कर सकें | यदि उनके मन के प्रिय क्षेत्रों में बाज़ार भाव कम होगा तब उसमे कोई निवेश नहीं करेगा और वह अपना जीवन यापन कैसे करेंगे | दूसरी तरफ, जहाँ यह पैसा ज़रुरत से अधिक निवेश होगा और अपना ध्येय से अधिक निवेश होगा , यह ब्याज-वृद्धि नहीं करेगा |तब बाज़ार में मंदी आएगी और फिर सरकारे इस मंदी में डूबती हुयी कंपनियों के लिए "पैकज" देने लगेगी | सरकार जब भी "पैकज" देती है तब इसका भार नागरिकों पर ही आता है और कर और चुंगी के द्वारा वसूली बढाती है | नतीजों में महंगाई भी बढ़ने लगती है |
         आधे-अधूरे निर्मित पुल , फ्लाई-ओवर , सड़कें इत्यादि यह सब संकेत होते हैं की भ्रष्टाचार चरम पर आ चुका है और अब जन-कल्याण को सरकार का एक ठगी मकसद ही रह गया है | राजनैतिक पार्टियां फिर जनता के वोट खरीदने के लिए लुभाव वादे और तोहफों के भेंट देने लगती हैं | अंत में यह सब किसी काम के नहीं होते हैं क्योंक भ्रस्टाचार का कुचक्र गति पकड़ चुका होता है और वसूली वापस जनता से ही होनी होती है |
        हम्मम्मम्म.. सिद्धांत और भी हालत बयान करते हैं | आस-पास की राजनैतिक घटनाओं के पीछे की तार्किक समझ देते हैं |
        भारत अपने स्वतंत्रता के ६६ सालों में आज उसी कुचक्र का शिकार हो चुका है और बिगड़ते हालात झेल रहा है | यह मात्र अर्थव्यवस्था का सवाल नहीं रह गया है | यह हज़ारों सालों की इस संस्कृती और सभ्यता पर प्रशन चिन्ह खड़ा कर रहा है की कहीं हमने स्वतंत्रता से जीने की क़ाबलियत ही तो नहीं खो दी हैं |

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