अधिकारीयों की गुप्त समीक्षा पद्धति और इसके सामाजिक प्रभाव
हरयाणा के एक उच्च अधिकारी श्री अशोक खेमका, और हरयाणा के ही वन विभाग के अधिकारी श्री संजीव चतुर्वेदी के पेशेवर जीवन में घटी त्रासदी देश और समाज के लिए एक चिंता का विषय होना चाहिए | यह दो व्यक्ति समाज के सामने जीवंत उधाहरण है हमारी सरकारी व्यवस्था का जिसमे हम स्वच्छ और निष्पक्ष अधिकारीयों को किस प्रकार से और किस हद्द तक प्रताड़ित कर सकने की क्षमता रखते है -- यह एहसास होता है |
तर्क के एक सिद्धांत तो यह बताता ही है की यह दोनों तो मात्र सिरा है एक ऐसे हिम खंड का जिसमे नीच न जाने ऐसे कितने और व्यक्ति और अधिकारी होंगे जो की ज्यादा सक्षम अधिक प्रभाशाली और अधिक समग्रता से कर्तव्य निभानते होंगे , मगर हमारी जन प्रशासन व्यवस्था ने उन्हें ऐसे ही प्रताड़ित करा होगा | श्री संजीव चतुर्वेदी के केस में तो अभी कुछ दिन पहले सीधा राष्ट्रपति हस्तक्षेप के बाद कुछ परिवर्तन हुआ है | मगर हर कोई इतना भाग्यशाली नहीं होगा |व्यवस्था का दुर्गुण न जाने कितने और अभी भुगत ही रहे होंगे |
क्या कारण है और व्यवस्था का ऐसा कौन से तर्क है जिसमे यह प्रताड़ना संभव हो पाती है ?
समाचार पत्रों से मिली खबरों में टटोले तो उत्तर मिलता है की इस प्रकार की भ्रष्ट व्यवस्था का कारण है-- गुप्त समीक्षा रिपोर्ट (Annual Confidential Report) |
यह गुप्त समीक्षा रिपोर्ट जन-समस्या और भ्रष्टाचार निवारण की उद्देश्य में एक महतवपूर्ण विचार विषय होना चाहिए | जहाँ हम बार बार पर्दर्शित की बात करते हैं , नौकरशाहों की आपस में अंदरूनी बनी यह गुप्त कार्य व्यवस्था समूचे देश और समाज के लिए एक अभिशाप बनती जा रही है |
यह भारत जैसे पिछड़े देश में ही तर्क सुनने को मिलेगा जिसमे गुप्त समीक्षा रिपोर्ट को सही ठहराया जा सकता है | साधारणतः मानव संसाधन विशेषज्ञों में गुप्त समीक्षा वर्जित मानी जाती है | इसका कारण है की गुप्त समीक्षा प्राकृतिक न्याय के विरुद्ध कार्य प्रणाली विक्सित करती है | प्राकृतिक न्याय का एक सूत्र यह है की समीक्षा भी एक विचार गोष्टी के समान है --और दोनों पक्षों को बराबर का अवसर दिया जाना चाहिए | इसलिए किसी भी व्यक्ति की कार्य समीक्षा (अथवा मूल्यांकन ) उसके सामने , जानकारी में ही किया जाना चाहिए जिससे की निष्पक्षता बनी रहे | समीक्षा रिपोर्ट में समीक्षा करने वाले के साथ साथ , जिसकी समीक्षा करी गयी है --उसके भी टिपण्णी लेनी चाहिए |
गुप्त समीक्षा पद्दति इस प्राकृतिक न्याय की सिद्धांत के विरुद्ध कार्य करते हुए यह मान कर चलती है की समीक्षा करने वाला "बड़ा है ", यानी अधिक वरिष्ट पदस्थ है , इसलिए वही "सही है "| और इसलिए उसके "मौलिक अधिकार " है की वह अपने से अवर(कनिष्ट) पदस्थ की गुप्त समीक्षा लिख सके |
न्याय की यह समझ जिसमे यह पूर्वाग्रह है की वरिष्ट पदस्थ , कनिष्ट पदस्थ से अधिक ज्ञानवान है और 'सही है ' - एक त्रुटी पूर्ण न्याय व्यवस्था को स्थापित करता है , जिसे की अनुक्रमिक न्याय व्यवस्था कह सकते है (Hierarchical Justice system)| इस प्रकार की न्याय व्यवस्था में दोनों पक्षों को बराबर का अवसर दिया ही नहीं जाता है | यही वह जड़ है जहाँ से पूरे देश और पूरे समाज में भ्रष्टाचार फैलता है और सामाजिक समस्या बन जाता है |
भारत में न सिर्फ सरकारी विभाग बल्कि प्राइवेट सेक्टर भी भरे हुए है -- कुतर्क भरी ही चरम मुख व्यवस्था से |
साधारणतः किसी भी स्वस्थ समाज में यह माना जाता है की यदि कोई कम सक्षम और या त्रुटी करे तो उसके वही उसके सामने बता देना चाहिए | आखिर गलती इंसान से ही होती है | सामने के बात चीत वही का वही सुधार भी करवा देगी और यदि कोई मत भेद होगा तो प्रमाणों की तुरत उपलब्धता के चलते न्याय भी कर देगी की सत्य क्या था |
गुप्त समीक्षा का एक सिद्ध कारण यह माना जा सकता है की यदि कोई शत्रु देश में हो या सम्बन्ध रखता हो जहाँ की हमारे देश की न्याय व्यवस्था पहुँच नहीं सकती है -- तब हम उस व्यव्क्ति के प्रति गुप्त रिपोर्ट लिख सकते है | एक अन्य परिस्थिति जब गुप्त समीक्षा को सही माना जा सकता है -- वह है , जब कोई व्यक्ति किसी प्रकार के संभावित मनोविकार से पीड़ित है जिसमे की वह सामने सामने किसी त्रुटी पर विचार कर सकने के मानसिक योग्यता में न हो -- यानि की त्रुटी बताये जाने पर वह कोई संभावित गुप्त तरीके से क्षति कर सकता है |
मगर इस दूसरे परिस्थिति में मानदंड यह है की गुप्त समीक्षा में संभावित मनोविकार पर ही विचार होना चाहिए, यह समझते हुए की यह समीक्षा पर प्राकृतिक न्याय अभी बाकी है --जिसके दौरान यह गुप्त समीक्षा उस समीक्षा लिखने वाले पर भी रोशनी डालती है |
समीक्षा लेखन का एक विचार वस्तु है "performance"| यह एक अबोध्य विचार है जिसके आगे-पीछे यह समीक्षा का विचार घुमाता है | performance की स्पष्ट परिभाषा और नाप तौल का जरिया न होने की वजह से यह लोग अपने तर्कों में यह गुप्त समीक्षा का विचार उत्त्पन्न करते है| और अन्धकार-मई बुद्धि से यहाँ तक आ पहुंचाते है --जब वह प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों को तोड़ देते है और समाज और देश को प्रदूषित कर देते हैं |
तर्क के एक सिद्धांत तो यह बताता ही है की यह दोनों तो मात्र सिरा है एक ऐसे हिम खंड का जिसमे नीच न जाने ऐसे कितने और व्यक्ति और अधिकारी होंगे जो की ज्यादा सक्षम अधिक प्रभाशाली और अधिक समग्रता से कर्तव्य निभानते होंगे , मगर हमारी जन प्रशासन व्यवस्था ने उन्हें ऐसे ही प्रताड़ित करा होगा | श्री संजीव चतुर्वेदी के केस में तो अभी कुछ दिन पहले सीधा राष्ट्रपति हस्तक्षेप के बाद कुछ परिवर्तन हुआ है | मगर हर कोई इतना भाग्यशाली नहीं होगा |व्यवस्था का दुर्गुण न जाने कितने और अभी भुगत ही रहे होंगे |
क्या कारण है और व्यवस्था का ऐसा कौन से तर्क है जिसमे यह प्रताड़ना संभव हो पाती है ?
समाचार पत्रों से मिली खबरों में टटोले तो उत्तर मिलता है की इस प्रकार की भ्रष्ट व्यवस्था का कारण है-- गुप्त समीक्षा रिपोर्ट (Annual Confidential Report) |
यह गुप्त समीक्षा रिपोर्ट जन-समस्या और भ्रष्टाचार निवारण की उद्देश्य में एक महतवपूर्ण विचार विषय होना चाहिए | जहाँ हम बार बार पर्दर्शित की बात करते हैं , नौकरशाहों की आपस में अंदरूनी बनी यह गुप्त कार्य व्यवस्था समूचे देश और समाज के लिए एक अभिशाप बनती जा रही है |
यह भारत जैसे पिछड़े देश में ही तर्क सुनने को मिलेगा जिसमे गुप्त समीक्षा रिपोर्ट को सही ठहराया जा सकता है | साधारणतः मानव संसाधन विशेषज्ञों में गुप्त समीक्षा वर्जित मानी जाती है | इसका कारण है की गुप्त समीक्षा प्राकृतिक न्याय के विरुद्ध कार्य प्रणाली विक्सित करती है | प्राकृतिक न्याय का एक सूत्र यह है की समीक्षा भी एक विचार गोष्टी के समान है --और दोनों पक्षों को बराबर का अवसर दिया जाना चाहिए | इसलिए किसी भी व्यक्ति की कार्य समीक्षा (अथवा मूल्यांकन ) उसके सामने , जानकारी में ही किया जाना चाहिए जिससे की निष्पक्षता बनी रहे | समीक्षा रिपोर्ट में समीक्षा करने वाले के साथ साथ , जिसकी समीक्षा करी गयी है --उसके भी टिपण्णी लेनी चाहिए |
गुप्त समीक्षा पद्दति इस प्राकृतिक न्याय की सिद्धांत के विरुद्ध कार्य करते हुए यह मान कर चलती है की समीक्षा करने वाला "बड़ा है ", यानी अधिक वरिष्ट पदस्थ है , इसलिए वही "सही है "| और इसलिए उसके "मौलिक अधिकार " है की वह अपने से अवर(कनिष्ट) पदस्थ की गुप्त समीक्षा लिख सके |
न्याय की यह समझ जिसमे यह पूर्वाग्रह है की वरिष्ट पदस्थ , कनिष्ट पदस्थ से अधिक ज्ञानवान है और 'सही है ' - एक त्रुटी पूर्ण न्याय व्यवस्था को स्थापित करता है , जिसे की अनुक्रमिक न्याय व्यवस्था कह सकते है (Hierarchical Justice system)| इस प्रकार की न्याय व्यवस्था में दोनों पक्षों को बराबर का अवसर दिया ही नहीं जाता है | यही वह जड़ है जहाँ से पूरे देश और पूरे समाज में भ्रष्टाचार फैलता है और सामाजिक समस्या बन जाता है |
भारत में न सिर्फ सरकारी विभाग बल्कि प्राइवेट सेक्टर भी भरे हुए है -- कुतर्क भरी ही चरम मुख व्यवस्था से |
साधारणतः किसी भी स्वस्थ समाज में यह माना जाता है की यदि कोई कम सक्षम और या त्रुटी करे तो उसके वही उसके सामने बता देना चाहिए | आखिर गलती इंसान से ही होती है | सामने के बात चीत वही का वही सुधार भी करवा देगी और यदि कोई मत भेद होगा तो प्रमाणों की तुरत उपलब्धता के चलते न्याय भी कर देगी की सत्य क्या था |
गुप्त समीक्षा का एक सिद्ध कारण यह माना जा सकता है की यदि कोई शत्रु देश में हो या सम्बन्ध रखता हो जहाँ की हमारे देश की न्याय व्यवस्था पहुँच नहीं सकती है -- तब हम उस व्यव्क्ति के प्रति गुप्त रिपोर्ट लिख सकते है | एक अन्य परिस्थिति जब गुप्त समीक्षा को सही माना जा सकता है -- वह है , जब कोई व्यक्ति किसी प्रकार के संभावित मनोविकार से पीड़ित है जिसमे की वह सामने सामने किसी त्रुटी पर विचार कर सकने के मानसिक योग्यता में न हो -- यानि की त्रुटी बताये जाने पर वह कोई संभावित गुप्त तरीके से क्षति कर सकता है |
मगर इस दूसरे परिस्थिति में मानदंड यह है की गुप्त समीक्षा में संभावित मनोविकार पर ही विचार होना चाहिए, यह समझते हुए की यह समीक्षा पर प्राकृतिक न्याय अभी बाकी है --जिसके दौरान यह गुप्त समीक्षा उस समीक्षा लिखने वाले पर भी रोशनी डालती है |
समीक्षा लेखन का एक विचार वस्तु है "performance"| यह एक अबोध्य विचार है जिसके आगे-पीछे यह समीक्षा का विचार घुमाता है | performance की स्पष्ट परिभाषा और नाप तौल का जरिया न होने की वजह से यह लोग अपने तर्कों में यह गुप्त समीक्षा का विचार उत्त्पन्न करते है| और अन्धकार-मई बुद्धि से यहाँ तक आ पहुंचाते है --जब वह प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों को तोड़ देते है और समाज और देश को प्रदूषित कर देते हैं |
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