दो-मुहि नियम व्यवस्था से केजरीवाल का इस्तीफ़ा
अच्छा खेल मात्र किसी एक खिलाडी के अच्छा खेलने से नहीं हो सकता है | खेल के नियम भी उस खेल को अच्छा खेलने के लिए प्रेरित करने वाले होने चाहिए |
मात्र तेंदुलकर यदि अच्छा खेल खेले मगर यदि मैच पहले से ही फिक्स्ड था तो कोई आनंद नहीं है उस मैच को देखने में | आत्म-जागृति के साथ स्वयं को मुर्ख नहीं बना सकते हैं | आत्मा को खोखला नहीं कर सकते हैं |
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बहोत समय तक मैं श्री श्री रविशंकर जी के विचार पर मंथन करता रहा। श्री श्री का मानना है कि अरविन्द को त्यागपत्र नहीं देना चाहिए था क्योंकि देश में भ्रष्टाचार निवारण के और भी कानून हैं और यदि अरविन्द सत्ता में कायम रहते तब उन कानूनों का प्रयोग करके भ्रष्ट राजनेताओं से देश को मुक्ति दिला सकते थे।
श्री श्री एक महंत व्यक्ति हैं और संभवतः प्रशासन व्यवस्था तथा न्यायायिक प्रक्रियों के मिलन से निर्मित इस जटिल निति-निर्माण प्रणाली के गहरे पेंचों का स्पष्टता से नहीं समझ रहे होंगे।
असल में यह निति निर्माण के जंजाल को न समझ पाने कि दिक्कत सिर्फ श्री श्री की है , बल्कि हम सभी नागरिकों कि ही है। हम सब इसे आभास तो कर रहे हैं कि कहीं कुछ गड़बड़ है मगर स्पष्टता से समझ नहीं सकने के कारण इस गड़बड़ को शब्दों में व्यक्त नहीं कर पा रहे हैं।
भारतीय नियम कानूनों में खुद भी एकाग्रता ( stream line) नहीं होना तो अब स्पष्ट हो चूका है। यही दिल्ली विधान सभा में विधयक नहीं ला सकने कि संवैधानिक दुविधा हाल के दिनों की दूसरी घटना है जिसने हमारे शाशन प्रणाली की पोल खोल दी है की हम भारतियों ने एक साथ नियम-'अ' तथा नियम-'नहीं-अ' वाली व्यवस्था बड़ी मूढ़ बुद्धि से विक्सित कर ली है।
अभी तक तो आम आदमी को ही नहीं पता होता था की इस व्यवस्था में काम कराने के लिए करना क्या है , मगर आज सरकार और संविधान विशेषज्ञों को भी नहीं पता है - यह खुलासा हुआ है। बहोत मुर्खता पूर्ण हास्य है कि संविधान विशेषज्ञों में भी खुद एक राय नहीं है ! यानी, पैसे कि ताकत और मर्ज़ी की बात है - जो चाहे कर लो - संवैधानिक विशेषज्ञता की राय तो जैसी चाहिए बाज़ार में मिल जाएगी।
मुर्खता से निर्मित इस व्यवस्था में अरविन्द का ज्यादा दिन सत्ता में रहना उनके चरित्र और छवि के लिए सुरक्षित नहीं था। "आप" यहाँ खेल के नियम बदलने आई है , इस मौजूदा नियमावली में खेल खेल कर स्वयं को सर्वश्रेष्ट प्रतिस्पर्धी प्रमाणित करने के लिए नहीं। वैसे भी यह नियमावली भ्रष्टों, असक्षम, बुद्धिहीन और अपराधियों के बचाव के लिए परिवर्तित हो चुकी है। इमानदार, भावुक मानवीयता और अधिक योग्यता वाले व्यक्ति यहाँ "अशोक खेमका" हो रहे हैं।
ऐसे में अरविन्द जी को मुख्य मंत्री बने रह कर खुद अपनी ही इमानदारी का शिकार हो जाते - यह इस मौजूदा निति व्यवस्था के तय नतीजे थे। इस नतीजे के लिए कहीं कोई साज़िश कोई कुकृत्य नहीं करना होता । महज एक इंतज़ार कि कब अरविन्द एक शिकार बन कर स्वयं से निति व्यवस्था के जाल में फंसे।
विपक्ष की पार्टियां इस निति-तथा-न्याय व्यवस्था की इस प्रकृति को जानती है और इसी लिए अधिक सीट जीतने के बावजूद "आप" की मौजूदगी में सरकार नहीं बना रही हैं। यदि अरविन्द नियम क़ानून नहीं बदल सकते हैं तब उनके लिए मौजूदा नियम व्यवस्था के आधीन अधिक दिन खेलते रहना उचित नहीं था।
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