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वैश्विक समस्याओं के मूल कारकों में ‘दंडवत‘ फिरकी

देश में समस्याएं पहले भी थी और सभी सरकारें उनसे निपटने के उचित उपाय कर रही थीं।

मगर मोदी जी के आगमन के बाद से जो अचरज वाली बात हुई है वो ये कि इन समस्याओं के मूल कारण ही फिरकी कर गए हैं।

उदाहरण के लिए :-
बेरोजगारी पहले भी हुआ करती थी, और सरकारें इस समस्या से निपटने का उपाय किया करती थी - अधिक निवेश और फैक्ट्री लगा कर, जिससे की रोजगार बढ़े।

मगर अब , मोदी जी के आगमन के बाद, बेरोजगारी का मूल शिनाख्त ही बदल गई है। अब पकोड़े बेचने और चाय बेचने वालों को भी रोजगार गिना जाने लगा है।  जबकि सभी अंतरराष्ट्रीय श्रमिक संगठनों की मान्य परिभाषा के अनुसार वो सब "छोटे मोटे" व्यवसाय रोजगार में नही गिने जाते है !( पी चिदंबरम जी की टिप्पणी को ढूढिये इस विषय पर)।सामान्य अकादमी शिक्षा इसी तर्कों के अनुसार अर्थशास्त्र विषय ज्ञान आधारित किए हुए थी।

अब बेरोजगारी के मूलकारणों में सीधे सीधे अथाह जनसंख्या को दोष दिया जाने लगा है, जबकि अतीत में विश्व में कोई भी मानववादी प्रजातांत्रिक सरकार  आबादी को स्पष्ट तौर पर मूलकारक लेते हुए कार्यवाही नहीं करती थी। ऐसा केवल वामपंथी, कम्युनिस्ट सरकारें जैसे की चीन करती था, जो कि जनसंख्या को दोषी मानते हुए सीधे- सीधे देश में बच्चो की पैदाइश को सरकारी permissiom अनुसार करने की विफल कोशिश कर रहा था/ कर चुका है।

मोदी जी के आगमन के उपरांत जनसंख्या को सीधे सीधे दोषी मान कर , फिर आगे जनसंख्या की बढ़त के लिए दोषी किसी के खास विशेष संप्रदाय को माना जाने लगा है । और देश का मीडिया उनके पीछे हाथ धो कर पड़ गया है।

शैक्षिक और बुद्धिजीवी वर्ग में जनसंख्या को वैश्विक समस्याओं का सपष्ट दोषी अभी तक नहीं समझा जाता था, क्योंकि स्पष्ट कार्यवाही मानववादी विचारो से मेल नही रखती थी । हालांकि आबादी पर नियंत्रण लगाने की पहल जरूर रखी जाती थी, और आबादी नियंत्रण के लिए उपायों में महिला सशक्तिकरण जैसे मानववादी समाधानों को ही सकारात्मक समाधान मानते हुए, इन्हे स्वीकार किया जाता था। बाकी , ऐसा सोचा जाता था कि बढ़ती हुई मंहगाई, घटते और खपत होते हुए प्राकृतिक संसाधनों का दबाव वर्तमान आबादी पर उचित दबाव बनाएगी की जनता स्वयं से अपना जीवन गुणवत्तापूर्ण जी सकने की क्षमता के अनुसार ही बच्चे पैदा करेगी ।

मगर अब, मोदी जी के आने से, ये मानववादी सोच तहस नहस हो चुकी है। लोग अब एक दूसरे पर आबादी बढ़ाने का दोष देने लगे हैं, और आपस में मार- काट करने पर उतारू हो चुके हैं। इसके लिए उन्होंने सबसे प्रथम दोषी किसी विशेष वर्ग , अल्पसंख्यक, को चुना है।

ये सब मोदी जी के धार्मिक -राजनैतिक पाठशाला की शिक्षा दीक्षा का कमाल है, (यदि दोष नहीं है तो )। अब सभी सामान्य तर्क, नीतियां, इतिहास का ज्ञान, संस्कृति का ज्ञान, धर्म का ज्ञान अपने सर के बल पर पलटी मार चुका है। सभी पुराने सोच "दंडवत" फिरकी हो गए हैं। संभी समस्याओं के लिए किसी न किसी को दोषी गिनाए जाना लगा है, जबकि पहले समस्याओं का उद्गम प्राकृतिक माना जाता था , यानी जिसकी उत्पत्ति मानव जाति की सांझा नीतियों और व्यवहारों से हुई थी , किसी एक वर्ग के विशेष दोषपूर्ण कर्मों से नहीं।

मगर अब ऐसा नहीं है। ये पता नही कि पहले वाले समय में वैश्विक स्मासायायो के मूल कारकों की पहचान कुछ ज्यादा शिथिल तरीके से हुई थी (-कि आबादी को सीधे से दोष नहीं दिया गया था)। या कि अब मोदी सरकार में मूल कारकों की पहचान में कुछ ज्यादा ही पक्षपाती दृष्टिकोण समाहित हो गया है (— आबादी के लिए विशेष वर्ग को दोषी माना जाने लगा है) । ये सवाल अब समाज को तय करना होगा।

वैश्विक , अंतर्देसीय संबंधों में भी अब मोदी सरकार के आगमन के बाद से बहुत कुछ "दंडवत" (head over heels) बदलाव हुए हैं। मोदी जी दूसरे देशों के राजनायको और शीर्षो से मुलाकात कुछ इस मनोदशा से करते हैं जैसे मानो ये कह रहे हैं कि हम सर्वोत्तम और सर्वश्रेष्ठ धर्म, राष्ट्र और संस्कृति के प्रतिनिधित्व करते हैं, —— एक ऐसा देश और ऐसा धर्म जिसका वैश्विक समस्याओं के मूल कारकों में तनिक भी योगदान नहीं है, ....क्योंकि इन समस्याओं का असल दोषी कोई और ही है।

मोदी जी इस व्यवहार को नादानी नहीं मानते हैं, अहंकार नहीं मानते हैं, बल्कि आत्मविश्वास, गर्व,  और एक 'ऊपर उठता हुआ मनोबल' करके बुलाते हैं।

किसी और के सर दोष मढ देने से अपना मनोबल कमजोर नही होता - मोदी जी जिस पाठशाला से आते हैं वहां पर ऐसी वाली युक्ति करना प्रचुर पाया जाता है। यानी, समस्याओं से निपटने के लिए यदि अपना मुंह रेंत में मूंह नहीं धसाये, तो फिर कम से कम दूसरे के मुंह पर कालिख जरूर पोत दें। ऐसा करने से आपका मनोबल नही गिरेगा।

मोदी जी की पाठशाला के लोग अभी तक वैश्विक विषयों पर मनोबल वाली भावनात्मक, मनोदशा दिक्कत से मुक्त नहीं हुए हैं । ये उनके निर्मोह प्राप्त कर सकने का माप है। और इसी मनोदशा के संग वो इस देश की नीतियों को निर्धारित कर रहे हैं। 

किसी तानाशाह का जन्म कैसे होता है?

तानाशाह की अक्ल कैसे काम करती है?

तानाशाह ये कतई नही सोचता है कि सही क्या है, और ग़लत क्या है। ज़ाहिर है, क्योंकि इतनी असीम, अपार शक्ति का स्वामी हो कर भी यदि ये सोचने लगेगा, तब फ़िर तो वो शक्ति बेकार हो कर स्वयं से नष्ट हो जायेगी। 

तानाशाह की शक्ति  आती है उसके आसपास में बैठे हुए उसके सहयोगियो और मित्रों से। वो जो की तानाशाही में भूमिका निभाते है बाकी आम जनता के मनोबल को कमज़ोर करके उन्हें बाध्य करते है हुए आदेशों का पालन करने हेतु। तानाशाही का निर्माण होता है जब सरकारी आदमी आदेशों के पालम करने लगते हैं अपने ज़मीर की आवाज़ को अनसुना करके।  

द्वितीया विश्व युद्ध के उपरान्त हुए, विश्व विख्यात न्यूरेम्बर्ग न्याययिक सुनावई के दौरान ये मंथन हुआ था कि आखिर हिटलर जैसा तानाशाह का जन्म कैसे हो जाता है किसी समाज में? कैसे अब भविष्य में हम किसी भी देश में किसी तानाशाह के जन्म को रोक सकेंगे? इस मंथन में बात ये सुझाई पड़ी थी कि तानाशाह तब पैदा होते हैं जब सरकारी आदमी बेसुध, बेअक्ल हो कर आदेशों का पालन करने लग जाते हैं। जन बड़ी संख्या में सरकारी आदमी (पुलिस, और सैनिक, जवान और अधिकारी) आदेशों से बंध जाते हैं --जाहिर है सभी अपनी अपनी नौकरी बचाने के ख़ातिर ही ऐसा करते है  -तब तानाशाही की प्रचंड शक्ति उतपन्न हो जाती है और किसी न किसी तानाशाह का जन्म हो जाता है।

न्यूरेम्बर्ग सुनवाई ने तभी से ये नियम यूरोप के समाज में अनिवार्य कर दिया कि यदि कोई सैनिक या अधिकारी अपने ज़मीर की आवाज़ के चलते कू आदेश का पालन नहीं करेगा, तब उसे दंड नहीं दिया जा सकेगा !

तानाशाह के पास जब प्रचंड शक्ति होती है तब उस पर बाध्यता होती है कि अपने समीप बैठे परामर्श देने वाले सहयोगियों को भी कुछ ईनाम दे उनकी ख़िदमत का। सभी परामर्श सहयोगी (counsellors) अपने अपने मुँहमाँगा ईनाम तराश कर बटोरने लगते हैं। किसी को धन चाहिये होता है, किसी को मस्ती और यौवन का ऐश्वर्य चखने का मज़ा, और किसी को ego kick चाहिए होती है अपने दुश्मनों पर हुकूमत कर सकने की। 

तानाशाह की मज़बूरी होती है कि वो ये सब लें लेने दे अपने परामर्श सहयोगियों को। और बदले में यही लोग फिर उस तंत्र को चलाते हैं जिसमे सरकारी आदमी आदेशों का अंधाधुंध पालन करता है, और तानाशाह की शक्ति को देशवासियों के ऊपर क़ायम रखता है।

तानाशाही शक्ति की एक परम ज़रूरत ये भी होती है कि वो रोज़ कुछ न कुछ करके अपने होने का सबूत जनता के सामने रखे! और इसके लिये उसे ज़रूरी हो जाता है कि थोड़ा बेकाबू होने का एहसास करवाती रहे आम जनता को। ये कैसे किया जा सकता है?  आसान है - मनमानी करके और अपेक्षाओं को झुठला करके। आम आदमी जो भी अपेक्षा करेगा प्रशासन से ,कि प्रशासन दयावान और न्यायप्रिय होने की अब्धयता में उसके संग सलूक कैसा करेगा, तो तानाशाही ताकत मात्र उस अपेक्षा को कुचल देने और झुठलाने की ख़ातिर ठीक उल्टा काम कर देगी। इससे लोगों को सदमा भी लगेगा कि अपनी-अपनी बचाओ, विद्रोह करने से दूर रहो। और इससे तंत्र के अंदर की तानाशाही शक्ति का परीक्षण भी समय-समय पर हो जायेगा कि कहीं कोई सैनिक, सिपाही या अधिकारी ऐसा तो नहीं बचा है जो तानाशाही आदेशों की अवहेलना करते हुए अपनी जमीर की आवाज के अनुसार कार्य करने को ललयनित हो अभी भी।

ये मनमर्ज़ी करना और महज़ आपकी अपेक्षाओं को झुठलाने की ख़ातिर उल्टा काम कर गुज़रना - ये तानाशाही की पहचान होती है।

और अपने परामर्श सहयोगियो को उस तानाशाही शक्ति का ईनाम देना उसकी बहोत बड़ी बाध्यता होती है । और जहां पर कि दुनिया भर की दरिंदगी और हैवानियत घटती है, आम आदमी के ऊपर।

क्यों तानाशाह नेतृत्व अंत में आत्म-भोग के अंतिम सत्य पर आ टिकती है

रूस-यूक्रेन युद्ध के आज 31 दिन हो चुके हैं,मगर अभी तक विश्व की दूसरी सबसे बड़ी सेना एक अदने से देश की अदनी सी सेना को मसल नहीं पायी है। अब तो उन पर लाले पड़ने लगे हैं आंतरिक विद्रोह हों जाने के, और खतरा बढ़ने लगा है की कहीं कमज़ोर मनोबल से ग्रस्त हो कर वो बड़ा "शक्तिशाली" देश कहीं जैविक /रासायनिक अस्त्र न चला दे !

ये सब देख कर सबक क्या मिलता है?

कि, तानासाही चाहे खुल्लम खुला प्राप्त हो, या election fraud करके मिली हो, वो देश और समाज को आत्म-घात की ओर ले जा कर रहती है।

तानाशाही में बड़े विचित्र और अनसुलझे मार्गों से समाज और देश की आत्म-तबाही आ गुजरती है।फिर ये तानाशाही उत्तरी कोरिया जैसे खुल्लम खुल्ला हो, या रूस के जैसे खुफ़िया एजेंसी से करवाये election fraud से हो।

कैसे, किस मार्ग से आ जाती है समाज और देश पर आत्म-तबाही?

कुछ नहीं तो विपक्ष का ही incompetent हो जाना समाज तथा देश की तबाही का मार्ग खोल देता है!
कैसे?
जब सत्ता परिवर्तन होना बंद हो जाता है, तब विपक्ष में से भी तो competent नेतागण वाकई में समाप्त होने लगते हैं जिनके पास प्रशासन चलाने तथा सरकारी नीतियों को जानने/समझने का पर्याप्त अनुभव हो, जिसके सहारे वो election fraud तानाशाह की सरकार की नीतियों पर पर्याप्त तर्क और कटाक्ष कर सकें!

है, कि नहीं?

और ऐसे में election fraud तानाशाह खुद ही अपने देश और उसके समाज को , सबको एक संग उन्नति के मार्ग पर नहीं, बल्कि "चूतिया पुरम" तंत्र की ओर ले कर बढ़ने लगता है!

यदि किसी देश में नित-समय अनुसार सत्ता परिवर्तन होना बंद हो जाये, तो ऐसी election fraud तानाशाही का भी हश्र वही हो जाता है ,जो किसी सम्पूर्ण तानाशाही (जैसे की उतारी कोरिया) का हुआ है। सर्वप्रथम, समाज को आर्थिक नीति में आत्म-दरिद्रता को भोगना पड़ता है, जैसे की आज श्रीलंका में होने लगा है। महंगाई बढ़ती है। और फिर, क़िल्लत और गरीबी आ जाती है पूरे समाज पर।

कैसे हो जाता है ये सब?
सुचारू तरह से सत्ता परिवर्तन का होते रहने से राजनैतिक वर्ग  में मानसिक/बौद्धिक स्वस्थ कायम रहता था, क्योंकि समस्त राजनैतिक पक्षों में अनुभवी नेताओं की संख्या पर्याप्त बने रहती थी । मगर जब किसी election fraud व्यवस्था में सत्ता परिवर्तन होना जब बंद हो जाता है, तब शायद विपक्ष में पर्याप्त competent और अनुभवी तर्कशील नेताओं की संख्या समाप्त होने लगती हैं! और फिर ऐसे में, election fraud करके आया तानाशाह बड़े-बड़े वादे करके अपने समाज को बहोत जल्द आत्म-तबाही की राह पर चल निकलता है,क्योंकि उसको रोकने वाले सामर्थ्य विपक्ष उपलब्ध ही नहीं रह जाता है समाज के अंदर !

तानाशाह नेताओं को अपने  समाज को  उनकी समस्याओं से मुक्ति दिलवा कर उन्नति की रहा तलाशने में ऐसे-ऐसे तर्क-विरर्क की भूलभुलैया आ घेरता है, जिसमे अंत में बस एक ही काबिल तर्क उनके सामने उनका पथ प्रदर्शक बन कर रह जाता है। वो ये, कि तानाशाही से भी समाज का उत्थान नही किया जा सकता है।

तो तर्क-वितर्क की भूलभुलैया में तानाशाह और उसके समर्थकों को यही तर्क पसंद आने लगता है कि- " बस ,अंत में अपनी निजी मौज़ मस्ती और जेब भर कर जियो !"

ज़्यादातर तानाशाही व्यवस्था का अंतिम तर्क यही रह जाता है - चुपचाप से बस अपना भला करके, अपनी जेब भर कर मस्ती से जिये,  दुनिया का भला आजतक न कोई कर पाया है, न ही कोई कर सकेगा।

तानाशाह और उसके मित्र मंडल की समस्त देशभक्ति, राष्ट्रप्रेम , सामाजिक कल्याण के प्रवचनों का निचोड़ खुद-ब-खुद तानाशाह को इस एकमात्र राह पर ला खड़ा करता है जिसे अंग्रेज़ी में Nihilism शब्द से बुलाया जाता है।

और इस प्रकार से तानाशाही व्यवस्थाओं का अंतिम सत्य (चाहे election fraud से बनी तानाशाही हो, या फ़िर तंत्रीय ढांचे में फेरबदल करके जमाई गयी हो) आत्म-भोग ही उनका अंतिम परिणाम हो जाता है- जिसका अभिप्राय होता है -देश की बर्बादी ।

जैसे कुत्तों को घी नहीं पचता, वैसे ही मूर्खो को स्वाधीनता नहीं भाती

नीच आदमी को जब न्याय मिलने लगता है, लोग equality, समानता और बराबरी का ओहदा उसे देने लगते हैं, तब उनकी नीच मानसिकता वश उसे लगता है कि ये सब तो उसने अपनी लड़ाई जीत कर कमाया है, ये तो उसका हक था, इसमें दुनिया वालों की दरियादिली, मानवीयता का कोई योगदान नहीं है।

आज दुनिया के कई सारे तथाकथित प्रजातंत्र देशों में मूर्खनगरी तंत्र ने चुनाव प्रक्रिया पर घात करके कब्जा जमा लिया है , और उनमें विराजमान लोग ऐसी वाली नीच मानसिकता से भरे हुए हैं।

वो लोग अपनी जनता को देश पर गर्वानवित होने के नाम पर विश्व सूचना तंत्र यानी internet पर अंटबंट लगाम लगाने की नित दिन नई कवायद कर रहे हैं।
ऐसा करते समय ' चूतिया' (माफ करिएगा, मगर आजकल बताया जा रहा है की ये शब्द शुद्ध संस्कृत शब्द है) लोग ये भूल जा रहे हैं कि कितना और क्या -क्या संघर्ष किया था इन्ही "फिरंगी" अमेरिकी कंपनियों के मालिक -engineers ने, इस विश्व व्यापक सूचना तंत्र की स्थापना करने के लिए  1990 के दशक में। दुनिया भर की किताबो में ये संघर्ष और इसका ब्यौरा दर्ज है। मगर फिर चूतिया लोग तो परिभाषा के अनुसार जन्म ही ऐसे लेते हैं की उनको लगता है अनाज supermarket  से आता है, किसान की खेती करने से मालूम नही क्या होता है!
तो चूतिया लोगो को जब पकी पकाई खीर मिलने लगती है तब वो धन्यवाद देने की बजाए उसमे नुस्खे निकालने लगते हैं।

क्यों और कैसे इस वैश्विक सूचना तंत्र को मुफ्त और अवरोध विहीन बनाया गया, क्यों संघर्ष किया गया ताकि इसका जन्म हो सके, ये सब गहराई और नीति , न्याय नैतिकता वाली बातें चूतिया लोगो को कहां समझ में आने वाली हैं। उनको तो बस नुस्खे निकाल देने है, जो की हो सकता है की वाकई में हो भी, मगर जिनका होना इस व्यापक सूचना तंत्र के अस्तित्व के लिए आवश्यक भी है

चूतिया कौन है? वो जिसको friction की शक्ति की कमियां दिखाई पड़ती है सिर्फ, उसकी संसार को चलाने के लिए आवश्यकता नहीं समझ आती है। या फिर की आवश्यकता तो समझ आती है, मगर कमियां नही दिखाई पड़ती।

कहने का अर्थ है की चूतिया वो होता है जो व्यापक हो कर दोनो विपरीत पहलुओं को एक संग नही देख पाता है

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अगर हमारे अंदर नमकहरामि नही हो, तब हमे ये साफ साफ दिखाई पड़ जाना चाहिए था कि इन्हीं फिरंगी , 'bloody capitalist ' अमेरिकियों की बदौलत वो सब अन्वेषण , अविष्कार हुए जिनसे कंप्यूटर जैसे यंत्र को जन्म हुआ। और फिर वापस इन्हीं "दौलतमंद" अमेरिकियों की बदौलत इस वैश्विक सूचना तंत्र यानी world wide web की रूपरेखा ऐसे ढली कि वो अधिकांश सेवाएं मुफ्त में देता है, और ऐसे ऐसी जानकारियां आज दुनिया के प्रत्येक नागरिक को आसानी से तथा निःशुल्क मिल जा रही है जो की कभी किसी जमाने में अमीर और गरीब के फासले को नाप दिया करती थी। गंदगी जरूरी नहीं की दौलतमंद अमेरिकियों में ही हो, कभी अपने गिरेबां में झांक कर देखिए शायद ऐहसान–फरमोशी हमारे ही भीतर में पड़ी हो।

तो इसी मुफ्त, निःशुल्क सूचना तंत्र सेवा से दुनिया के ना जाने कितने लोगो को शिक्षा मिली, प्रेरणा मिली,नौकरी मिली,व्यापार और व्यवसाय भी मिले , मगर अब मूर्खो ने दुनिया पर कब्जा जमा लिया है। मूर्ख वो होते हैं जो सोने का अंडा देने वाली मुर्गी को पहचाना नहीं पाते है और उसे ही हलाक करके दावत उड़ा लेते हैं।

ऐसे में अब twitter को स्वामित्व में थोड़ा और निजी हो जाना तो सही हो लक्षण और भविष्य सूचक माना जाना चाहिए। जैसे जैसे चूतिया लोग दुनिया के देशी पर काबिज हुए जा रहे हैं और अनापशनप तर्क देकर जनता को बेवकूफ बनाने, बरगलने में देश की धन शक्ति को खर्च कर रहे हैं, तब तो सही होगा कि एलान musk जैसे निजी स्वामी अब twitter पर से किसी सरकार की ’दरख्वास्त’ पर कोई सूचना अवरोध करने का भाड़ा लेने लगे और निजी जेब गरम करे, बजाए की मुख लोगो को सहयोग दे अपने ही देश को बर्बाद करके इल्जाम अमेरिका पर ठोक देने से !

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