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सामाजिक मस्तिष्क, प्रजातंत्र- साम्यवाद, और depression , nepotism

आज सुबह से ही बहोत ही विचित्र सयोंग वाले विषयों पर देखने-पढ़ने को हो रहा है। 

यह सब विषय 'विचित्र सयोंग" वाले क्यों हो सकते हैं, यह सोचने-समझने का काम इस लेख की मदद से आप लोगों को तय करने पर छोड़ दिया है ।

सुबह, सर्वप्रथम तो एक वृतचित्र देखा था - इंसान के सामाजिक मस्तिष्क - social brain के बारे में। 

फ़िर दोपहर में सर्वप्रथम एक लखे पढ़ा और फ़िर उस पर एक वृत्रचित्र देखा था -रूस (तत्कालीन सोवियत संघ) द्वारा 1973 में भेजा गया चंद्रमा पर rover अभियान - दो Lunokhod rover जिनको सोवियत संघ ने सफ़लता पूर्वक प्रक्षेपित किया था और तत्कालीन तकनीकी में भी उसे धरती से नियंत्रित करने की क्षमता रखते थे ।

और तीसरा, शाम को हिन्दी फिल्म देख रहा था - केदारनाथ, जो की दिवंगत अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत   द्वारा अभिनित है और हिन्दू-मुस्लिम विषय को छेड़ती है। सुशांत सिंह ने संभवतः depression से शिकार हो कर आत्महत्या करि थी, - कम से कम प्रथम दृश्य तो यही कहा गया था, मगर आरोप यह बने थे की वह nepotism से त्रस्त हुए थे, कुछ लेखों में उनमे social quotient की कमी होने के दावे दिये गये थे।

क्या अंदाज़ा लगा सकते हैं की इन तीनों विषयों में क्या सयोंग हो सकता है ?

सुबह, सर्वप्रथम, जिस विषय का सामना हुआ , उसमे बताता जा रहा था कि इंसान की खोपड़ी के भीतर में एक समाजिक मस्तिष्क होने का मनोवैज्ञनिक प्रभाव क्या होता है उसके जीवन पर। क्यों इंसान का सामाजिक होना आवश्यक है, और कैसे इंसानी प्रगति के असल कुंजी शायद उसके इस एक गुण में ही छिपी हुई है -उसकी सामाजिकता !! हालांकि सामाजिकता ही इंसान के सामाजिक आचरण में दौरान घटित अन्तर-मानव द्वन्द के दौरान विनाश की जिम्मेदार भी होती है।

फिर दोपहर में जो विषय था - अंतरिक्ष दौड़ - space race - के विषय से सामना हुआ - वह सोवियत संघ - एक समाजवादी , साम्य वादी देश की सर्वश्रेष्ठ हद तक की ऊंचाई प्राप्त करने की कहानी थी। चंद्रमा पर rover भेजने की कहानी इंसानी खोपड़ी के सामाजिक मस्तिष्क से आधारभूत निर्मित राजनैतिक व्यवस्था - साम्यवाद- की सबसे श्रेष्ठ ऊंचाई , यानी हद्दों तक पहुंच कर प्राप्त हुई तकनीकी उप्लाधि की कहानी थी। यह कहानी बता रही थी की सामाजिक चरित्र की हदे ज्यादा से ज़्यादा कहां तक जा सकती है , क्यों ?, और फ़िर,  क्यों अमेरिकी प्रजातंत्र - जो की सामाजिक मस्तिष्क के विपरीत इंसान के व्यक्तिवादी मस्तिष्क  पर आधारित राजनैतिक व्यवस्था है - इस space race में सोवियत संघ से आगे निकलती ही चली गयी ! 

तो दूसरे शब्दों में तो , सुबह जहां मैंने सामाजिक मस्तिष्क की आवश्यताओं के विषय पर पढ़ा था, दोपहर तक मुझे सामाजिक मस्तिष्क की वजह से निर्मित इंसान के प्रगति के पथ की हद्दों के बारे में सोचने को अवसर मिला।

और फ़िर शाम तो मुझे फ़िल्म "केदारनाथ" में इंसान के सामाजिक मस्तिष्क की सीमाओं से निर्मित अवरोधों को देखने और सोचने का अवसर मिला, जब हिन्दू-मुस्लिम विषय पर निर्मित फ़िल्म देख रहा था। और जब दुबारा मुझे, सामाजिक मस्तिष्क में रोग-  गड़बड़ - संभवतः  मनोवैज्ञनिक गड़बड़ , या तो फिर पूर्ण अभाव - सामाजिक मस्तिष्क (social quotient की कमी) - के परिणामों के बारे में सोचने को मिल रहा था। हो सकता है कि सामाजिक मस्तिष्क के रोग , यानी गड़बड़ दूसरे पक्ष में रही हो - वो जो कि nepotism, पक्षपात या किसी भी अन्य किस्म का भेदभाव करने के लिए सामाजिक मस्तिष्क में ही programme हो गये हों - सामाजिक मस्तिष्क के रोगों के चलते।

यूपी के राजनैतिक नेतृत्व में 15वीं शताब्दी राजसी युग का "समाजवादी" अर्थतंत्र है

अखिलेश के संग कमियां है। अखिलेश "राजनीति करने" को एक पेशा समझते हैं, इंसान के समाज की ज़रूरत कम। अखिलेश के अनुसार "राजनीति करने" में कुछ ख़ास कौशल और ज्ञान लगता है जो हर एक व्यक्ति के पास नही होता है, सिर्फ ख़ास लोगों में ही होता है,  जो की फ़िर राजनीति के माहिर खिलाड़ी होते हैं ।

!!

ऐसा लगता है अखिलेश का world view अभी तक पूरी तरह विकसित नही हुआ है। वह पार्टी को किसी corporate की तरह देखते समझते है। समाज में से उभर रहे leaders को पहचान कर सकने में कमज़ोर हैं। बल्कि समाज को अपने सुझाये हुए व्यक्ति को leader बना कर देते हैं। अखिलेश समाज को आवश्यक राह पर दिशा संचालन कर सकने में कमज़ोर हैं। न ही उनके चुने हुए लीडर। सब के सब आत्म भोगी है। आजमखान शायद थोड़ा बहोत अपने समाज के business interest का प्रतिनिधत्वि करते थे। अखिलेश को अपने समाज की टोह नही है, कि इनकी क्या ज़रूरत है, जिसको पूर्ण करना चाहिए। 

अखिलेश और यूपी के तमाम अन्य नेताओं के अनुसार यूपी की ज़रूरत है कि लोगों के पास नौकरी नही है। तो इसके लिए बारबार यूपी में आने वाले नेतागण सरकार बना लेने पर कोई न कोई सरकारी नौकरी में भर्ती का धंधा खोलते है। और इसके बाद फ़िर शुरू होता है "भर्ती घोटाला'। 

आप कितनों ही सालों की यूपी के घोटालों को उठा कर देख लें। आपको "भर्ती घोटाला" ही दिखाई पड़ेंगे। कभी पुलिस में भर्ती घोटाला, कभी शिक्षा मित्र में, कभी टीचर, कभी कुछ । ये भर्ती घोटाले - यूपी और बिहार के special है। जैसे गुजरात में ventilator घोटाले सिर्फ गुजरात के ख़ास हैं।

क्या वजह है इनके ख़ास होने के?
यदि आप हमारे देश के घोटाले से भारत के लोगों को आर्थिक सामाजिक राजनैतिक सोच पर टिप्पणी करना चाहे, तो आपको इन घोटाले को अध्ययन करने से लोगों के बारे मव पर्याप्त जानकारी मिल सकती है। "भर्ती घोटाला" उन राज्यों के विशेष है, यानी उन राज्यों में होते है जहां के लोग में enterpreneur ship नही है। वही आज देश के बीमारू राज्य रही भी हैं। वहां जब लोग अर्थ शास्त्र की बुनियादी जानकारी में बेहद कच्चे हैं। वह सरकारी सेवा को ही सर्वोपरि समझते हैं और अपने बच्चों को सरकारी सेवा करने के उद्देश्य से ही पढ़ाते-लिखाते है। कहने का अभिप्राय है कि लोगों की मानसिकता के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य समाज की आवश्यकताओं को पूर्ण करते हुए व्यक्तिगत लाभ कामना नही है। इन्ही राज्यो में लोग कौशल कार्य - professions , और सरकारी राजसी सेवा - service - में भेद कर सकने में बौद्धिक सक्षम नही है। सभी का सपना होता है अपने बच्चों को पढ़ा लिखा कर बड़ा-बड़ा IAS /Pcs/IPS अधिकारी बनाने का ! यानी लोगों के अनुसार समाज की सबसे बड़ी ज़रूरत होती है अच्छा अधिकारी चाहिए। 

इसके मुकाबले गुजरात में लोग आरम्भ से ही buisness वाले रहे है। वहां पर लोगों को शुरू से ही दुकान खोलने का शौक है। वह परचूनी और stationery की दुकान लगाने में आरम्भ से ही तेज़ है, और उनकी चाहत ही होती है कोई बड़ी कीमत का ठेका मिल जावे उनकी दुकान को। लोग में फैक्टरी के निर्माण करने में भी कौशल सीखने का जस्बा है। वहां के लोग फर्ज़ी ही सही, समाज को तुरन्त ज़रूरत को पहचान करके उसे जल्द से जल्द पूर्त करते हुए व्यक्तिगत लाभ कमाने के मार्ग को देखते है। ventilator घोटाला लोगों की इसी सोच को प्रतिबिम्बित करता है। लोगों ने भांप लिया कि corona काल में समाज की ज़रूरत ventilator उपकरण है। व्यापार और सामाजिक ज़रूरत पूर्ण करना का तुरन्त अवसर यही पर है। उन्होंने लाख प्रयत्न करके कुछ तो बनाया- और कैसे भी दम लगा कर उसे बेच दिया ! जल्दबाज़ी में परीक्षण और गुणवत्ता परीक्षण नही करवाये ! हो गया ventilator घोटाला।

यूपी और बिहार में सबसे आदर्श occupation होता है Ias/Pcs/ips की नौकरी। इसके बाद होती है doctor और  सरकारी विभाग में engineer की नौकरी !  तो लोगों की मानसिकता में समाज की परम आवस्यकता यही है। !!

जब मैं छोटा था, तो कभी स्कूल में चर्चा हुई थी कि स्कूल के लिए आवश्यक क्या होता है? कई सारे लोगों ने जवाब दिया अच्छे छात्र, बाकियों ने कहा अच्छे टीचर , और कुछ बेअक्ल बौड़म थे जिनके अनुसार जवाब था अच्छे class monitors !! यूपी में लोगों को लगता है कि अपने देश को अच्छा और प्रगतिशील बनाने में  अच्छे class monitors ही उनके देश की कमी है! और इसलिये वह अपने समाज की यही आवश्यकता को पूर्ण करने में लगे रहते हैं, अपने बच्चों को पढ़ा-लिखा कर IAS/pcs बनाने की क़वायद करते हैं। !! 
मगर यदि आप देखे तो यूपी के लोगों की सोच कुछ वजहों से ग़लत नही है। यहां सबसे ज़्यादा बोलबाला तो इन्ही नौकरी वालो का ही होता है- IAS/PCS/IPS !
क्यों?
क्योंकि नेता खुद अपने आप को समाज सेवी नही , बल्कि पेशेवर मानते हैं ! अखिलेश और उनके जैसे तमाम नेता - बहनजी ("बुआ जी") included, अपने शासन के दौरान बारबार bureaucracy पर अत्यधिक निर्भर करती हैं। योगी जी भी वैसे इसी परिपाटी पर ही चलते दिखाई पड़ रहे हैं।

यूपी के लोग आधुनिक काल के वाणिज्य चरित्र से अनभिज्ञ है। दरअसल पुराने युग में - करीबन 15वी-16वी शताब्दी के काल में- राजा ही प्रत्येक चीज़ का स्वामी माना जाता था। लोग सिर्फ उसकी सेवा में ही तो सब कार्यकर रहे होते थे। यानी यदि कोई लौहार कुछ लोहा ढालता था, तो वह राजा की ज़रूरत के लिए हतियार था; यदि बढ़ई कुछ लकड़ी का सामान बनाता था तो वह भी राज्य सेवा में था। कहने का अर्थ है कि पुराने समय में लोग व्यक्तिगत मुनाफ़े के लिए काम नही करते थे, उनका प्रत्येक कौशल कार्य राज्य सेवा के उद्देश्य से हुआ करता था। बाज़ार नही हुआ करते थे, न ही इतने पैसे वाले लोग जहां कोई लौहार , कोई बढ़ई अपने बेहतरीन उत्पाद को बेच कर मुद्रा कमाई सके ! बेहतरीन मुद्रा कमाई का एकमात्र तरीका था, कि सामान को राजा की खिदमत में पेश करो, वही अपने गले का हार उतार कर ईनाम देंगे, या कुछ अशर्फियाँ देंगे! राजा महाराजाओं के उस काल में सब अर्थनीति "समाजवादी" हुआ करती था।

आधुनिक प्रजातंत्र इस सोच के विपरीत होते है। यहां बाज़ारवाद होता है। राजा को सामान नही, टैक्स चाहिए होता है। तो अच्छा लौहार या बढ़ई अपने सामान को बाज़ार में बेच कर अच्छी कमाई करे, लाभ कामये बस  मगर टैक्स ज़मा कर दे। 

मगर यूपी के लोग और अखिलेश जैसे नेता अभी प्रजातंत्र की इस सोच पर जागृत नही हैं। वह हर बार मुख्यमंत्री बनने पर जाने-अनजाने में "Law and order समस्या" के व्यूह में फंस जाते है, जहां से उनकी निर्भरता IAS/IPS/PCS बन आ टिकती है। फिर इसी नौकरी के लोग ही राज्य के सबसे लाभकारी occupation वाले बन जाते है। जनता पर उनकी शान-ओ-शौकत और विलासपूर्ण जीवन का अच्छा प्रभाव जमता है। लोग प्रेरित होते हैं कि उनके बच्चे भी बड़े हो कर , पढ़ाई-लिखाई करके बस यही नौकरी करें! 

आप देखेंगे कि आज यूपी के लोग ही निजीकरण के विरोधी लोग भी है। ! ज़ाहिर है, यह सब ही समाजवादी मानसिकता का नतीज़ा है। समाजवादी मानसिकता - यानी 
वही 15वी-16वी शताब्दी का काल जब राजा महाराजा होते थे, और तमाम पेशेवर मुद्रा कमाने के लिए राजा को अपने बेहतरीन उत्पाद उपहार दे दिया करते थे !

मगर प्रजातंत्र व्यवस्था का सत्य विपरीत बैठा हुआ है। इसमे बाज़ारवाद और private profit महत्वपूर्ण अंश होता है, इसके सफ़ल होने के लिए।
तो यदि आप आज भी IAS/IPS को सबसे अच्छी, आदर्श occupation देखते है, तब आपका देश ग़रीबी और बीमारू व्यवस्था को अपनी क़िस्मत अपने हाथों से लिख रहा होता है।

अखिलेश उसी समाजवादी मानसिकता का नेतृत्व आज भी करते हैं। वह , योगी जी, मायावती - सब के सब इस व्यूह में फंसे हुए है- बारबार उसी ग़लती को दोहरा रहे हैं। "Law And Order समस्या" के व्यूह में फंसने की ग़लती। bureaucracy को अधिक तवज़्ज़ो देने की ग़लती। वास्तविक कौशल जो कि समाज की ज़रूरत होते हैं- उन्हें मुनाफ़े नही देने की ग़लती।  निजीकरण के संग नही बहते रहने की ग़लती। समाज को काबिल, प्रेरणा कारी नेतृत्व नही देने की ग़लती जो कि समाज को निजीकरण के लिए तैयार कर सके, और private profits की दुनिया में अपना हिस्सा सुनिश्चित कर सके।

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