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बलात्कार, स्वतंत्र-मन,व्यवसायिक अनुबंध और भारतीय समाज

सिद्धान्तिक दृष्टिकोण से बलात्कार मात्र एक अपराध नहीं, वरन, समाज में एक स्वतंत्र-मन (free-will) के दमन का प्रतीक होता है । विज्ञानं में स्वतंत्र-मन एक बहोत ही कोतुहलता का विषय रहा है । आरंभ में कर्म-कांडी धार्मिक मान्यताओं ने हमे येही बतलाया था को "वही होता है जो किस्मत में लिखा होता है " । दर्शन और समाजशास्त्र में इस प्रकार के विचार रखने वालो को 'भाग्यवादी' कह कर बुलाया जाता है । मगर एक कर्म-योगी धार्मिक मान्यता ने इस विचार के विपरीत यह एक विचार दिया की "किस्मत खुद्द आप के किये गए कर्मो का फल होती है "। दूसरे शब्दों में , यह भागवत गीता जैसे ग्रन्थ से मिला वही विचार है की "जो बोयेगा, वही पायेगा ", या फिर की "जैसे कर्म करेगा तू , वैसा फल देगा भगवान् "। दर्शन में इस विचार धरा को कर्म योगी कहा जाता है । सिद्धांत में यह दोनों विचार एक दूसरे के विपरीत होते है । या कहे तो मन में यह प्रश्न होता है की "क्या किस्मत या भाग्य कोई निश्चित वस्तु है , या फिर कोई खुद अपनी किस्मत या भाग्य को किसी तरह से नियंत्रित कर सकता है ?"।
    सदियों से इस दोनों विचार पर कही कोई और रास्ता उज्जवल नहीं हुआ था । भौतिकी (Physics) में विज्ञानियों ने किस्मत को कर्म का फल मन था । न्यूटन के सिद्धांतो में तो यही समझा जाता है की "हर क्रिया का फल उसके समान अनुपात का , उसकी दिशा के विपरीत प्रतिक्रिया होती है " (Every action has an equal and opposite reaction.) 
मगर बाद में जब विज्ञानियों (या यह कहे प्रकृति दार्शनिक ) में अल्बर्ट आइन्स्टाइन ने क्वांटम फिजिक्स (Quantum Physics ) के विचारो को दिया और प्रयोगशालाओं में इन नियमो की भी पुष्टि पाई गयी,
तब फिर से किस्मत-वादिता के विचारों को एक बल मिला। आरंभ में महान वैज्ञानिक और प्राकृतिक दार्शनिक अल्बर्ट आइन्स्टाइन भी अपने से पहले न्यूटन के दिए गए विचारो के अनुसार यही भाव रखते थे की "इश्वार (इस दुनिया के निर्माण और दैनिक कार्यकर्मो में )कोई पासे वाला खेल नहीं खेल रहे हैं ", (God doesn't play dice.). मगर ज्यों-ज्यों आइन्स्टाइन ने प्रकाश से सम्बंधित अपने शोध में समय और शून्य (space and time) की परस्परता के सिद्धांतो को दुनिया के सामने दिया ,- प्रकाश और ऊर्जा के सूक्ष्म धारक, यानी Quantum, और उनके व्यवहार , पदार्थ के सूक्ष्म कर्ण , और फिर तरंग और पदार्थ के बीच होने वाले कोई स्वतंत्र -मन से घटित बदलाव (wave - particle duality )-- दुनिया में एक नए दर्शन ने फिर से जन्म लिया ।
  आधुनिक विज्ञानियों , और प्राकृतिक दार्शानियों ने न्यूटन और आइन्स्टाइन द्वारा दिए गए दो अलग अलग विचारों से दुनिया के हर पक्ष को दो विचारों के नज़रिए से समझने का प्रयास किया । दर्शन में दो अलग किसम के विश्व का सृजन हुआ , Deterministic world , aur Probabilistic World ।
  इतिहास, विज्ञानं में घट रही इन घटनाओं का वास्तविक दुनिए  के समाज शास्त्र , और विधि-विधान पर भी असर पड़ा । safety और Security से सम्बंधित कानूनों में 'probabilistic' विचारधारा ने घर बनाया और ऐसे प्रशनो को उत्तरित किया की "क्या सुरक्षा नौका को पास में रखने से किसी नाविक की जान बच सकती है ?" । इससे पहेले के विचारों में इस प्रश्न का उत्तर यही समझा जाता था की "भई , कोई कितना भी कुछ क्यों न कर ले, जब जिस दिन ऊपर वाले ने मौत लिखी है , उस दिन हो कर ही रहेगी ।".
 जीवन और मृत्यु पर तो इंसान ने आज तक नियंत्रण नहीं प्राप्त किया , मगर मृत्यु के सत्य के आगे कर्म-हीन हो कर जीवन रक्षा के इंतज़ाम करना नहीं छोड़ता । 
  किस्मत के प्रश्न पर एक नया उत्तर तैयार हो गया है -- सम्भावना (probability ) का । गणितज्ञों ने भी संभावना को नापने के लिए गणित का विकास किया । भविष्य अभी भी अनजान है , मगर उस अँधेरे और शून्य में क्या है पर अब ज्यादा सटीकता से क्यास लगाया जा सकता है । पदार्थ-और-तरंग  के परस्पर बदलाव के विचार से स्वतंत्र-मन के अस्तित्व को कुछ बल मिलता है । यदि ऊर्जा के कर्ण , Quantum , स्वयं अपनी मर्जी से कभी भी तरंग के समान व्यवहार दिखलाते है , और कभी अपनी मर्जी से पदार्थ के कर्ण जैसा व्यवहार दिखलाते है तो यह कहा जा सकता है की कही कुछ है जो स्वतंत्र मन के समान है जो ऊर्जा को कभी तरंग और कभी पदार्थ जैसा व्यवहार रखने का इशारा देता है ।
   यही से स्वतंत्र-मन के अस्तित्व पर कुछ छोटा से प्रमाण दिखता है । कानून और निति-निर्माण में यह विचार स्वतंत्रता की परिभाषा में व्यक्ति को प्रधान बनता है कि सरकारें किसी व्यतिगत मनुष्य या पूरे समाज की भाग्य विधाता नहीं बन सकती। प्रत्येक मनुष्य में एक स्वतंत्र इच्छा होती है और सरकारों की निति निर्माण का एक उद्देश्य इस स्वतंत्र-इच्छा को सुरक्षा देने का है । इसको दमन से बचाने का है । कहीं भी, कोई भी सामाजिक न न्यायायिक अनुबंध स्वतंत्र-मन को किसी के पराधीन नहीं कर सकता । यानि , हर अनुबंध में उस अनुबंध को टूट जाने की स्थिति में नुक्सान की भरपाई का न्याय होना चाहिए । अनुबंध हमेशा के लिए लगो को आपस में नहीं बांधे रह सकते , और उनके टूटने का नुक्सान मृत्यु (स्वतंत्र-मन का सम्पूर्ण दमन)  द्वारा नहीं भरवाया जा सकता।
  अनुबंध के अस्तित्व में आने के लिए स्वतंत्र-मन को प्रथम कसौटी मन गया है , और स्वतंत्र-मन को अनुबंध के दौरान और पूरण तक बचाए रखने का प्रावधान होता है । कोई भी अनुबंध जो मनुष्य को उसकी प्राकृतिक भावनाओं से वंचित करने का प्रयास करता है वह अ-संवेधानिक अनुबंध माना जाता है ।
 तब प्रशन उठता है की यौन को किस तरह का अनुबंध माना जायेगा?  स्वतंत्र-मन था की नहीं यह कैसे प्रमाणित किया जायेगा। और शादी के बाद पति-पत्नी के रिश्ते में स्वतंत्र-मन का क्या स्थान होगा ? ज्यादातर पश्चिमी देशो में स्वतंत्र-मन के अस्तित्व को शादी के बाद भी ऐसा है स्वतंत्र मन गया है । इसी लिए वहां तलाक को कोई असामाजिक वाकया नहीं मानते । या यो कहें को क्योंकि तलाक को असामाजिक वाक्य नहीं मानते इसलिए स्वतंत्र-मन के अस्तित्व को बनाये रखा जाता है । 
भारत में सामाजिक मान्यताओं में स्वतंत्र-मन को इतना ऊचा स्थान नहीं मिला है । बल्कि सभी पिछड़े देशो में स्वतंत्र-मन को ले कर यही हालत है । स्वतंत्र-मन को बनाये रखते हुए व्यापार कर सकना इन देशो में आज भी न ही संभव है, न ही संभव माना जाता है । कर्मचारियों में किसी को किसी के पराधीन मानना , नारी के साथ शोषण या बलात्कार , अनुबंधों के विरुद्ध काम करना -- यह इन देशो में आम घटना है । असल में स्वतंत्र-मन के अस्तित्व को स्वीकार कर लेने से हर अनुबंध में कुछ अन कही शर्ते अस्तित्व में आ जाती है । इन शर्तो को अनुबंध में संयुक्त दोनों पक्ष स्वयं में दो स्वतंत्र-विचार वादी होने के कारन समझ लेते है । मगर जब दोनों हो पक्ष स्वतंत्र-विचार वादी न हो, या एक हो , एक न हो तब इन अनकही शर्तो पर अनुबंध के टूट जाने को ले कर आपसी विवाद हो जाता है । एक पक्ष दूसरे पक्ष पर अनुबंध को तोड़ने का आरोप लगता है ,..
..आगे कम बुद्धि के चलते भ्रमो में, आरोप और प्रमाण की त्रज्या में दोनों पक्षों की दुनिया भटक जाती है ।
स्वतंत्र-मन के अस्तित्व का प्रमाण बहोत मुश्किल होता है । यदि अनुबंध के अस्तित्व में स्वतंत्र मन एक कसौटी है , तब अनुबंध के खुद के अस्तित्व का प्रमाण खुद ही एक मुश्किल काम हो जाता है । ज्यादा तर व्यवसायिक अनुबंध तो लिखित तौर पर होते है इसलिए उनका प्रमाण तो मिल जायेगा , मगर अन्य मानवी सम्बन्ध जैसे शादी से पहले या शादी के बाहर सम्बन्ध को स्वतंत्र-मन से उत्पन्न है या नहीं प्रमाणित करना मुश्किल हो जाता है । यदि दोनों पक्ष किसी कारन वश , जैसे पारिवारिक सम्बन्ध , एक दूसरे को पहले से जानते हो तब स्वतंत्र-मन के प्रमाण को और भी मुश्किल हो जाती है । 
   कलकाता के बलात्कार आरोप में येही देखने को मिल रहा है, जहाँ बार-बार स्त्री के चरित्र को नीचा दिखा कर स्वतंत्र-मन के एक पल , उस समय जब दोनों में सम्बन्ध बना,के अस्तित्व को दिखलाने का प्रयास हो रहा है । यह स्वतंत्र-मन ही है जो यह दूरी को बतलायेगा की नारी-पुरुष का सम्बन्ध बलात्कार था , या फिर आपसी मंर्जी से बना सम्बन्ध ।
  स्वतंत्र मन एक बहोत ही भावनात्मक वस्तु है । कुछ केस में तोह यह स्पस्ट प्रमाणित हो जाता है की स्वतंत्र मन था की नहीं, जैसे राह चलते किसी को पकड़ के कुछ सम्बन्ध करना स्पस्ट तौर पर बलात्कार ही है , मगर आस पास की किसी महिला , जैसे घर में काम कर रही कर्मचारी के केस में यह मुश्किल हो जाता है / 
स्वतंत्र-मन के अस्तित्व के प्रमाण की इन चुनौतियों को समझते हुए ही शायद कोर्ट ने स्त्री न्याय अध्यक्ष स्थापित करने का निर्णय लिया / स्त्री न्यायधीश भाव्नात्क्मक पहलुओ को समझते हुए शायद बेहतर निर्णय दे सके की स्वतंत्र-मन अस्तित्व में था की नहीं ।
  बरहाल , आये दिन घटते इन घटना कर्मो से यही पता चलता है की भारतीय समाज अभी सही व्यवसायिक अनुबंधों से कितना दूर खड़ा है । बढ़ता हुआ भ्रस्टाचार भी हमारे समाज में स्वतंत्र-मन के सामान की कमी को दिखलाता है । हम कभी भी एक नापा तुला संवेधानिक और मानवता सांगत करार नहीं बना सकते । और यदि बनाते भी है तब उन्हें मानवता और सम्वेधानिकता की कसौटी के अनुरूप पालन नहीं कर पाते । दोपहर के टीवी धारावाहिकों में तोह कम से कम यही पता चलता है की भारतीय घर-परिवार में स्वतंत्र-मन की संतुलित समझ का कितना आभाव है । विज्ञापन , और विज्ञापनों में की गयी संभावित ग्राहक को प्रभावित कर सकने की कोशिश भी अक्सर सम्वेधानिकता के दायरों को तोड़ रही होती है । 
बलात्कार तो आज एक घटना है , स्वतंत्र-मन का अनादर करना हमारा सांकृतिक स्वभाव है।

अकबर-बीरबल और भ्रष्टाचार

भ्रष्टाचार को पूर्णतः ख़तम कर सकना कभी भी आसान नहीं था/

    एक बार बादशाह अकबर के दरबारियों ने उन्हें यह खबर दी की उनके दरबार में कहीं कोई मंत्री भ्रष्टाचारी हो गया है । अकबर ने बीरबल से इस बात की चर्चा करी / बीरबल ने अकबर से कहा की आलमपनाह अब भ्रष्टाचार का कोई इलाज नहीं होता / इस पर अकबर ने बीरबल के इस उत्तर को एक चुनौती मानते हुए बीरबल से कहा की वह भ्रष्टाचार को ख़तम कर के ही दिखायेंगे । अकबर ने अपने उस भ्रष्टाचारी दरबारी को एक दम वहायत नौकरी पर रख दिया जहाँ उसे भ्रष्टाचार करने का कोई मौका ही न मिले ।
     उस दरबारी को यमुना नदी की लहरों को गिन कर लेखा-जोखा बनाने के काम पर लगा दिया /
  कुछ दिन के बाद अकबर ने बीरबल से पुछा की अब उस दरबारी का भ्रष्टाचार करने का मौका ख़तम हुआ की नहीं । बीरबल मुस्कराए और जवाब दिया की 'नहीं' । इस पर अकबर को अचम्भा हुआ और उन्होंने बीरबल से पूछा की अब वह दरबारी कैसे भ्रष्टाचार कर लेता है । बीरबल ने अकबर को खुद ही यमुना के तट पर चल कर देखने को कहा ।
    वह जा कर अकबर ने देखा की अब वह दरबार यमुना नदी पर चलने वाली नावों से रिश्वत वसूलने के काम में लग चूका था । उसने हर आने जाने वाली नाव के नाविकों को यह कहना शुरू कर दिया था की बादशाह ने उसे यमुना की लहरों को गिनने का काम सौंपा है । नावों के आने जाने से लहरें टूट जाती है जिससे उसे यह काम करने में दिक्कत आती है । अगर वह बादशाह से उनकी शिकायत करेगा तब उनको सजा हो सकती है , इसलिए उसे खुश रखने के लिए नाविकों को उसे कुछ देना चाहिए !

 (ऊपर लिखे इस किस्से को कहने का मकसद भ्रष्टाचार की आज की लड़ाई को पराजित करने का बिलकुल भी नहीं है । व्यक्तिगत व्यवहार से उत्पन्न भ्रष्टाचार (या कोई भी अन्य अपराध) की सत्यता को किसी भी तंत्र , अथवा व्यवस्था को अपने भ्रष्टाचार (या अपराध) रोकथाम के नियमो की कड़क और अभेदय बनाने से वंचित नहीं करना चाहिए । जिस तरह मृत्यु प्रत्येक मनुष्य के जीवन का सत्य है , मगर इस सत्य का अर्थ यह नहीं होता की हमारा समाज रोगियों का इलाज करना बंद कर दे, ऐसा मान कर की इलाज का क्या फायद, मृत्यु तो एक दिन आनी ही है । जीवन के विस्तार स्थल से दर्शन लेने पर कई समस्याओं का कोई हल नहीं मिलेगा , मगर एक सामूहिक, तंत्रीय या सामाजिक व्यवस्था की भूमि से दर्शन करने पर उन समस्याओं का एक तंत्रीय और प्रबंधक हल अवश्य मिल सकता है ।)

"जनता जाग उठी है " से क्या अभिप्राय होता है ?

"जनता जाग उठी है " से क्या अभिप्राय होता है ? जनता की मदहोशी क्या है, किन कारणों से है, और क्यों यह बार-बार होती है कि मानो जनता की बेहोशी का कोई स्थाई इलाज नहीं है ?
   जनता एक रोज़मर्रा के जीवन संघर्ष में तल्लीन व्यक्तियों का समूह है / यह दर्शन,ज्ञान-ध्यान , खोज, वाले तस्सली और फुरसत में किये जाने वाले कामो के लिए समय नहीं व्यर्थ कर सकने वाले लोगों का समूह है / समय व्यर्थ का मतलब है जीवन संघर्ष में उस दिन की दो वक़्त की रोटी का नुक्सान / मगर "समय व्यर्थ" का एक अन्य उचित मतलब यह भी है की विकास पूर्ण और मूल्यों की तलाश कर नयी संपदाओं और अवसरों की खोज का आभाव /
     साधारणतः एक बहुमत में व्यक्ति समूह के पास यह समय नहीं होता की वह यह 'व्यर्थ' कर सके / मगर एक छोटे अल्पमत में वह समूह जो भोजन किसी अन्य आराम के संसाधन से प्राप्त करता है, जैसे की राजा -महाराजा लोग , वह यह फुरसत का समय ज़रूर रखते हैं की वह इस बहुमत वाले समूह के संचालन के नियम बना सके / भ्रष्टाचार तब होता है जब यह छोटा समूह बड़े समूह की मजबूरी का फयदा उठता है की बड़े समूह के पास समय नहीं होता नियमो में सह-गलत की परख का , और छोटा समूह अपने लाभ के हिसाब से यह नियम बनता जाता है / बड़ा समूह अंत में गरीब हो जाता है, और छोटा समूह अमीर / जब गरीबी सर पर चढ़ती है तब बड़ा समूह छोटे समूह की अमीरी पर अपना गुस्सा दिखता है, जिसे की अक्सर क्रांति भी कहा जाता है, और फिर क्रांति के दौरान हुयी जन-जीवन हानि से भविष्य में बचने के लिए कुछ नए क्रांतिकारी बदलाव, या कहे तो, अपने नियम लिखता है /
     वह बड़ा समूह फिर से जीवन के संघर्ष में तल्लीन हो जाता है। यानि की , "जनता सो जाती है "।
    असल में किसी भी सभ्यता और देश में जनता लगातार नहीं "जगी" रह सकती है । जरूरत है की जनता जब भी कभी जागे, नियमो की रचना ऐसी होनी चाहिए की दुबारा वह घटना न घटे जिसने जनता के मन में इनता असंतोष दिया था की जनता को स्वयं क्रांति करनी पड़ गयी । साधारणतः प्रजातंत्र में क्रांति से बचाव में जनता के पास चुनाव में 'राईट तो रिकॉल ', निर्वाचित व्यक्ति को वापस बुलाने का अधिकार भी होता है । या फिर की अगर कोई भी उमीदवार पसंद का हो तोह सभी की त्यागने का एक विकल्प , जिससे के यदि यह विकल्प बहुमत में आये तब चुनाव को दुबारा करवाना पडे , पुराने सभी उम्मीदवारों को विस्थापित कर के /
   यही है "जनता जाग उठी है " का यह सभ्य प्रजातान्त्रिक अर्थ / मगर चुकी भारत में यह दोनों ही विकल्प उपलब्ध नहीं हैं, इसलिए यहाँ "जनता जाग उठी ' से वाक्य का अर्थ होगा एक नया संवेधानिक संशोधन की सबसे पहले जनता को यह दोनों विकल्प दिलवाए जा सकें / इसके लिए किसी एक ख़ास चुनावी पार्टी को दो-तिहाई बहुमत देना होगा जो यह वचन दे और निभाए की वह यह दो चुनावी संशोधन कर के देगी /
     अन्यथा, एक नई क्रांति का अघाज़ करना होगा / और एक नया सविधान/ इन्ही दो तरीको में "जनता जाग उठी है " का स्थायी इलाज़ है की जनता आराम से सो सके और तब भी व्यवस्था में कोई कीड़ा , गड़बड़ इत्यादि न हो /

'राजनैतिक स्थिरता' से क्या अभिप्राय होता है ?

'राजनैतिक स्थिरता' से क्या अभिप्राय होता है ? व्यावासिक अनुबंधन में 'राजनैतिक स्थिरता' क्यों आवश्यक है? सेंसेक्स और शेयर बाज़ार विकास के लिए राजनैतिक स्थिरता की मांग करता है ?
     प्रजातान्त्रिक व्यवस्था में जहाँ हर एक सर्कार एक निश्चित कार्यकाल के लिए ही नियम और निति-निर्माण के बहुमत में रहती है, या नयों कहें की सत्तारुड रहती है , और एक कार्यावधि के बाद आम चुनाव अनिवार्य होता है , जैसे भारत में 5 वर्ष के उपरान्त , एक सरकार का किया अनुबंध यदि अगली सरकार न माने तब किसी भी निवेशक का पैसा उसको निवेष का लाभ देने के पूर्व ही निति-परिवर्तन हो जाने से आर्थिक हानि दे देगा / इसलिए निवेशक यह भय को निवेष से पूर्व ही नापेगा की कही निति परिवर्तन का आसार तो नहीं है , और तब ही निवेश करेगा / विदेशी निवेषक तो ख़ास तौर पर यह जोखिम नहीं लेगा /
     प्रजातान्त्रिक व्यवस्था के निर्माण में इस कारको को आज से सदियों पूर्व ही समझ लिया गया था / इसी समस्या का समाधान बना था ब्यूरोक्रेसी, यानि लोक सेवा की नौकरी / भारत में लोक सेवा और अन्य सरकारी सेवा में आये, "चयनित ", व्यक्ति आजीवन (यानि 60 वर्ष की आयु) तक सेवा में रहते हैं, और उन्हें एक निश्चित तरीके के बाहर कोई भी सरकार निष्काषित नहीं कर सकती है / हाँ, यदि कोई सरकारी मंत्री किसी नौकरशाह की सेवाओं से संतुष्ट नहीं है तब वह नौकर शाह के प्रमुख , जिसे चीफ सेक्रेटरी (मुख्य सचिव ) से कह कर "निलंभित " करवा सकता है , जिसके उपरान्त उस निलंबित अधिकारी पर न्यायपालिका से न्याय की गुहार का हक होगा, और मुख्य सचिव उस पर एक जांच करवा कर रिपोर्ट उस अधिकारी को और न्यायपालिका को उपलब्ध करवाए गा /
 इन सब लम्बी प्रक्रियाओं के पीछे की सोच यही राजनैतिक स्थिरता से जुडी है / राजनैतिक स्थिरता के अर्थ में यह कतई नहीं है की निर्वाचित राजनैतिक पार्टी बार बार न बदले , वरन पार्टी बदल भी जाए तो वह पिछली सरकार के किये अनुबंध को यका-यक न बदल दे , या कहे की तोड़ दे / निति परिवर्तन के दौरान भी न्याय का आभास रखना होगा और किसी भी निवेशक के निति परिवर्तन से हुए हानि से बचाना पड़ेगा /
   अब ऐसा होता है की नहीं यह एक बात है , मगर सामाजिक न्याय की गुहार तो यही है /

वास्तविकता वक्रता क्षेत्र

{विकिपीडिया के लेख reality distortion field (RDF ) द्वारा प्रभावित } :
 Reality Distortion Field यानी "वास्तविकता वक्रता क्षेत्र " कह कर बुलायी जाने वाली विवरणी की रचना सन 1981 में एप्पल कंप्यूटर इन्कोर्पोरैट में कार्यरत बड ट्रिबल ने करी थी / इस विवरणी के माध्यम से वह एप्पल कंप्यूटर के संयोजक स्टीव जोब्स के व्यक्तित्व को समझने के लिए किया था / ट्रिबल "वास्तविकता वक्रता क्षेत्र" के प्रयोग से जोब्स की स्वयं के ऊपर (अंध-)विश्वास करने की क़ाबलियत और अपनी कंपनी में कार्यरत लोगों को भ्रमित विश्वासी कैसे बना कर बहोत ही मुश्किल से मुश्किल काम कैसे करवा लिए , यह वर्णित करते हैं /
    ट्रिबल का कहना था की यह विवरणी टीवी पर दिखाए जाने वाले एक विज्ञान परिकल्पना के धारावाहिक 'स्टार ट्रेक' से उन्होंने प्राप्त किया था /
    "वास्तविकता वक्रता क्षेत्र " एक मनोवैज्ञानिक दशा है जो हर एक इंसान में उसके आसपास मौजूद मन-लुभावन वस्तुएं , व्यक्ति ; वाहवाही वाले कृत्य (bravado) ; अतिशोयक्ति (= hyperbole); विक्री-प्रचार ; शांति और रमणीयता के आभास देने वाले जीवन-शैली ; और किसी वस्तु अथवा व्यक्ति के हट (stubborn) समान पुनर-आगमन ; - के द्वारा निर्मित होता है / 
    "वास्तविकता वक्रता क्षेत्र " के प्रभाव में व्यक्ति किसी भी आत्म-चेतना सम्बंधित विषय (subjective issue ) या वस्तु पर एक संतुलित आकलन नहीं कर पाता है/ इस प्रकार आत्म-चेतना सम्बंधित विषय पर हर व्यक्ति का अलग पैमाना तैयार होता है और हर व्यक्ति ऐसे विषय पर अलग-अलग राय निर्मित करता है / यहाँ तक की कुछ लोग जिसे अच्छा समझते हैं , कुछ अन्य उसे ख़राब मानते हैं / हमारे पैमाने 'बहोत अच्छा ', 'अच्छा' , 'ठीक ही है ', 'ख़राब' से लेकर 'बहोत ख़राब ' के बीच अलग-अलग शब्दकोष के माध्यम से अंतर करते रहते हैं / भारत की सांकृतिक प्रष्टभूमि में इस विवरणी का बहोत आवश्यक प्रयोग है /
     एक अन्य सांकृतिक समझ में "वास्तविकता वक्रता क्षेत्र " को "माया जाल " के व्यक्तव्य में भी समझा जा सकता है / मौजूदा भारतीय जीवन में हमारे आस-पास "वास्तविकता वक्रता क्षेत्र " के संसाधन बहोत ही ज्यादा मात्र में उपलब्ध है , और इनसे उत्पन्न होने वाले वक्रता के निवारण के संसाधन करीब-करीब न के बराबर हैं / हमारी सिनेमा निर्माण उद्योग (बॉलीवुड ), समाचार वितरण प्रणाली (मीडिया), विक्री-प्रचार उद्योग (advertising and publicity ), यह सब के सब हमे हर पल भ्रमित करने में तल्लीन होते हैं , जबकि सत्य का रहस्य उदघाटन करने के विश्वसनीय संसाधन नहीं हैं / संक्षेप में , हमारा "वास्तविकता वक्रता क्षेत्र " बहोत दीर्घ है , और सत्य-स्थापन संसाधन करीब करीब विलुप्त हैं /
    ज्ञान और जानकारी की हमेशा से यह आपस में संबधित विशेषता रही है की जानकारी जितना बड़ती हैं , इंसान उतने ही सटीक निर्णय लेने के काबिल बनता है , मगर साथ ही साथ उतना ही भ्रमित होने का भी पात्र बनता है / जानकारी को सही से संयोजना एक अवावश्यक कार्य है अन्यथा वही जानकारी हमे भ्रमित कर विनाश भी करवा सकती है /

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