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what could be the mission assignments of the BJP IT Cell ?

(from fb post dated 21st Jan 2017)

अब कोई मैन्युअल तो लिखी नहीं है ,इसलिए खुदी से यह समझना पड़ेगा की बीजेपी ने अपनी IT Cell को क्या क्या जिम्मेदारियां दे रखी है। सबसे प्रथम यही है की ज्यों ही मोदी सरकार की किसी भी मज़बूरी या बेवकूफी से कोई भाजपा और भक्तों की झेंप कराने वाली हरकत हो जाये, त्यों ही बाजार में तस्वीर का रुख पलट कर दिखाने वाले joke और meme सामग्री बाजार में उतार दो जिसे की भक्त लोग whatsapp वगैरह से वितरित और प्रसार करके हालात को अपनी जीत में प्रस्तुत कर सकें ।
😎😜😎

BJP IT cell जल्लिकट्टू से प्रतिबन्ध हटाने से हुई झेंप से बचने के लिए पूरे मामले का मुखौटा बदलने वाले meme बाजार में वितरण शुरू कर दिया है। IT Cell अब जोक को PETA और बकरीद पर बकरा काटने के मोदी सरकार के "मुंहतोड़ जवाब" के रूप में दिखाना चाहता है, जबकि किसी समय में जल्लिकट्टू पर प्रतिबन्ध लगवाने में PETA से मेनका गांधी जी आगे आई थी, जो की भाजपा की सदस्या है 😜😎

#जल्लिकट्टू
#एक_और_थूक_के_चाट

non-linear logic में भारतिय न्यायालय

भारतिय न्यायालयों की भी यही आलोचना होती रही है। यहाँ कुछ भी साधारण तर्क की परिधि में नहीं होता है। कब किसको क्यों bail (जमानत) दी जाती है, क्यों जल्लितकट्टू पर प्रतिबन्ध लगता है, और बकरीद पर नहीं; और फिर क्यों वह प्रतिबन्ध  हटा लिया जाता है, और पशु संवेदन संस्था PETA ही प्रतिबन्ध की आशंकाओं से घिर जाती है..इन सभी के पीछे कोई एक linear logic तो है ही नहीं।
बार कॉउंसिल कहता है की भारत में करीब 45% वकील तो फर्ज़ी है। मेरा अनुमान है की इन हालात को देखते हुए तो शायद यह संख्या कही अधिक है। और जज कितने काबिल है कितने फर्ज़ी है इसका तो बार कॉउंसिल ने कुछ हिसाब ही नहीं दिया है। फर्ज़ी से अभिप्राय सिर्फ यह नहीं की उनकी डिग्री नकली है, phony scholar की भी समस्या है -- यानि ऐसे स्नातक जिनकी उपाधि तो कागज़ी मानकों पर असली है , मगर वह विषय की गहराई में कुछ भी ज्ञान नहीं रखते हैं।
सब कुछ उल्टा पुल्टा है भारत में । प्रतिदिन कम से कम एक खबर मिलती है की  कैसे भारत के किसी हिस्से में कोई न्यायलय मनमर्ज़ी के 'तर्कों' पर कोई निर्णय दे रहा है। अभी चाँद दिनों पहले बॉम्बे हाई कोर्ट ने किसी दो दंगे के हत्यारों को bail दी इस बिन्हा पर कि  इन्होंने हत्या सिर्फ उकसावे में तो करी थी, पीड़ित के मजहब की वजह से।
सरकार से संबधित विषयों पर तो करीब करीब हर विषय पर कोर्ट उनके पक्ष में ही फैसला करता है। क्यों और कब किसी पॉलिटिशियन का नाम किसी लेन देन की किताब में आने पर जाँच आवश्यक होती है, और कब यही अपर्याप्त सबूत बन जाते है , यह सब आम आदमी के linear लॉजिक में तो नहीं रह गया है।अब तो कोर्ट की मर्ज़ी ही न्याय का तर्क बन कर रह गया है।

समीक्षा : सिर्फ 57 भारतियों की सम्पदा बाकि नीचे से 70% जनसँख्या के बराबर है

कुछ् पुरानी उदघोषणाएं सच साबित होने लग गयी है।

कुछ दशकों पहले एक डाक्यूमेंट्री सिनेमा zeitgeist (सजग और उत्सुक लोग youtube पर देखें) में बताया गया था कि कैसे दुनिया की सभी बुराइयों की जड़ इंसान की पैदा करी हुई एक वस्तु , पैसा, की देंन हैं। आगे कुछ और डाक्यूमेंट्री (ताथयिक ) सिनेमा , जैसे the hidden secret of money (part 4) (उत्सुक लोग youtube पर देखें) में बताया गया था की पैसा छापने के तरीके में ही यह पेंच छिपा है कि दुनिया में महंगाई आती ही रहेगी और महंगाई के दबाव में इंसान जीने के सभी कोशिशों में अपराध करता ही रहेगा।
पैसा छापने के पीछे के पेंचों का खुलासा करते हुए डाक्यूमेंट्री the hidden secret of money (part 4) बताती है की कैसे दुनिया का सम्पदा असल में कुछ मुठ्ठी भर लोगों की निजी सम्पदा समझी जा सकती है। यह गुप्त , सुमड़ी में रहने वाले लोग कैसे बैंक और सेंट्रल बैंक(जैसे की RBI) से सांठ गाँठ करके जब चाहे पैसा अपनी सुविधा से छाप कर हमेशा अमीर बने रहते हैं। देशों और दुनिया की आर्थिक तंत्र की असल चाबी इन्ही लोगों के पास में है, और इसलिए असल में यही मुठ्ठी भर लोग दुनिया की सभी गरीबी और बुराइयों के जिम्मेदार माना जा सकता है। यह लोग अपने को निरंतर समृद्ध बनाये रखने के लिए जब चाहे मुद्रा छाप सकते हैं ,जिसके सह उत्पाद में दुनिया में महंगाई बढती ही जा रही है। फिर आम आदमी इस मेहंगाई से संघर्ष में अपने स्वतंत्र मन की चाहत पूरी करने से हट कर कोई 'professional' (कामगार) बन कर वही व्यवसाय करने लगता है जिसमे अधिक पैसा है। यह मुट्ठी भर लोग इस तरह अपनी मर्ज़ी से पैसा वितरण का नियंत्रण करके दुनिया में लोगों को आर्थिक गुलाम की तरह नियंत्रित करते हैं। इन मुठ्ठी भर लोगों पर दुनिया के तमाम नियम कानून का कोई प्रभाव् नहीं पड़ता जब तक इनके पास पैसा छापने के तंत्र में कुछ भी अंश का हस्तक्षेप मिलता है, जो की यह निजी बैंक संस्थाए बना कर करते हैं।  पेंच यही पर छिपा है। और जिसे की अर्थशास्त्री तकनीकी घुमाव दार भाषाओँ में गढ़ कर आम आदमी को समझना मुश्किल कर देते हैं जिससे की कोई जन विद्रोह न हो जाये।

दो मुँही समस्या है परिवारवाद

परिवार वाद में समस्या का दो तरफ़ा अंश है। इसलिए परिवार की समस्या से निजात किसी एक व्यक्ति के कंवारे होने से उनको वोट दे कर *नहीं ही* मिलने वाला है।

परिवार वाद समस्या के दो तरफ़े मुँह को गौर करें :--
1) अगर किसी अमुक व्यक्ति 'अ' को उसकी पारिवारिक पृष्ठभूमि के प्रभाव में जनमानस स्वीकृति करता है , *तो यह गलत है* क्योंकि *_किसी और योग्य की योग्यता की अनदेखी उसका तिरस्कार होगी_*।

2) अगर किसी अमुक व्यक्ति 'अ' को उनके पारिवारिक पृष्ठभूमि के प्रभाव में जनमानस *अस्वीकृत* करता है, तो भी यह गलत होगा, क्योंकि यह एक प्रकार का भेदभाव, जात-पात का स्वरुप ही होगा।

यानि, बड़ा भेद यह है कि परिवारवाद की समस्या खुद ही *दोहरे चरित्र* की समस्या है।

इसलिए इसका निवारण यह तो हो ही *नहीं* सकता की *कंवरों को वोट दो*, या *_उनके परिवार ने देश को 70 साल लूटा, इसलिए अब हमें मौका दो_*।

इसका असल समाधान तंत्र सुधार में है। पद को ही सीमित कर दो। उधाहरण के लिए, अमेरिकी राष्ट्रपति पद के लिए कोई भी व्यक्ति 2 से अधिक बार निर्वाचित नहीं हो सकता।
हालाँकि यह भी कोई पुख्ता समाधान साबित नहीं हुआ है, मगर यह इस *दो मुँही समस्या* का *सर्वाधिक उपयुक्त* समाधान ज़रूर है। दुनिया के किसी भी देश में परिवारवाद का एकदम *पुख्ता समाधान* आज तक खोजा नहीं जा सका है। मगर *सर्वाधिक उपयुक्त* समाधान सभी अच्छे देशों में लागू है।

क्यों लबालब है भारतिय सामाजिक चेतना कुतर्क और कूट से

कभी कभी सोचता हूँ की भारतिय जनसँख्या में इतने कुतर्क और कूट (धोखा , भ्रम) आया कैसे ।
और जवाब में यही उत्तर मिलता है कि सदियों की ग़ुलामी और अथाह गरीबी से हमने खुद का मनोबल बनाये रखने के लिए जो ख़ुशी पाने की नुस्खे लगाये थे , उसमे हमारी संस्कृति ने विवेचना करना बंद कर दिया क्योंकि अत्याधिक विवेचना में दर्द और दुःख मिलता है। बस वही से यह कुतर्क और कूट हमारी सामूहिक चेतना में घर कर गए।
संक्षेप में समझे तो हमने अपने दुःखों से बच भागने के लिए जो "हंसते रहो", और "जिंदगी हंस के बिताएंगे" की दौड़ लगायी थी, तो बस वही पर हमने अपने चिंतन मस्तिष्क को पीछे रख छोड़ा था। संस्कृति और समाजशास्त्र के विद्धवान हम भारतियों के लिए कुछ ये ही नजरिया रखते हैं। वह यह समझ भारतीय फिल्मों की सफलता और उनके कथा पट के तत्वों को देख कर समझते हैं। मनमोहन देसाई से लेकर करन जौहर तक जिस प्रकार की फिल्में भारत में "हिट" होती आ रही है वह भारतीय लोगों की न सिर्फ पसंद बल्कि उनकी सामाजिक चेतना को भी छलकाती हैं। किसी दौर में तो मनमोहन देसाई और अमिताभ बच्चन ने नौ लगातार सुपरहिट फिल्में दी थी। और यदि कोई इन फिल्मों के दृश्यों और पटकथा की तार्किक समीक्षा करे तो शायद शर्म करेगा की भारतीयों को क्या पसंद था। खुद अमिताभ भी अपने एक साक्षात्कार में यह कहते सुने गए हैं की जब वह मनमोहन देसाई के साथ इन फिल्मों में काम करते थे तब आरम्भ में वह अपने करियर पर इस प्रकार की बेवकूफी वाले दृश्यों के लिए देसाई को अपनी चिंता बताते थे कि , 'क्या कर रहा है यार, ऐसी बेवकूफी दिखा कर मरवायेगा क्या'। मगर मनमोहन देसाई को अपनी समझ पर पूरा यकीन था कि उन्होंने भारतिय जनता की पसंद की नब्ज़ पकड़ ली है। अमिताभ भी मनमोहन देसाई को अपनी सफलता का श्रेय देते हुए कहते हैं की मनमोहन सही थे, क्योंकि उनकी जोड़ी ने एक के बाद नौ लगातार सुपरहिट फिल्में ऐसे ही दृश्यों और पटकथाओं पर दी।
जनता को सुखद अंत , काल्पनिक संजोग , करिश्माई शक्ति से मारधाड़ के दृश्य भाते थे और मनमोहन देसाई की फिल्में इस प्रकार के दृश्य और पटकथाओं से भरी हुई थी।

शायद कुतर्क और भ्रम/कूट वही से हमारी सामजिक चेतना में व्याप्त हो गया। अत्याधिक कुतर्कों के प्रसार कर नतीजा है की आज हममें भेद कर सकने का अंतःकरण ही नष्ट हो चूका है तर्क और कुतर्क के बीच में। आलम यो हैं की आज तो 10 भारतियों के मध्य 12 नज़रिये होते है। यानि प्रत्येक भारतीय के पास एक से अधिक नजरिया ।

बड़ी बात यह है कि आज भी राजनैतिक पार्टियां के IT Cell हमारी इसी "सदैव हँसते रहो" की कमज़ोरी पकड़ कर अपना उल्लू सीधा करने वाले रणनीत लगाये हुए है। वह हमें हल्के, छोटे मोटे jokes के माध्यम से हमारी चाहते और मस्तिष्क पटल पर उभरती छवियों को नियंत्रित करते रहते हैं। हमें पता भी नहीं चलता और हम हंसने के लिए जो jokes पढ़ते है वह कुतर्क और कूट से लबालब हमारी चेतना को किसी और की सुविधा के लिए मरोड़ते रहते हैं, कुतर्कों और कूट को jokes की जीवनरक्षक सांस मिलती है।

syncreticism और विशेषण उपनाम - धार्मिक पंथ

हिन्दू प्रथाओं में आपसी विवाद के अंश बहुतायत है।इसे अंग्रेजी भाषा में syncreticism कहते हैं। मेरा मानना है की पश्चिमी विचारकों का हिन्दू पंथ को 'धार्मिक पंथ' कहने का आशय सारा यही नहीं था कि यहाँ कृष्ण और उनके भगवद् गीता में किसी धर्म नाम की वस्तु की शिक्षा दी गयी है।
पश्चिमी दार्शनिकों के अनुसार धर्म का अर्थ सिर्फ मर्यादित आचरण, रीत रिवाज़ का पालन, वगैरह तक सिमित नहीं था। उन्होंने सफलता से हिन्दू प्रथाओं में syncreticism को तलाश लिया था, और इसलिए वह अचरज में थे कि आखिर इतने सारे अंतर्कलह प्रथाओं के बावज़ूद यह सब समुदाये एक सह अस्तित्व में कैसे कायम हैं। वह सोच रहे थे की यह समुदाये कैसे तय करते है की कब आपसी समानताओं को विशिष्टता देना है और कब अन्तरकलहि भिन्नताओं को । इसका उत्तर उन्होंने तलाश किया था हिन्दू प्रथाओं में एक विशिष्ट प्रथा में -- निरंतर न्याय करते रहने की विधि में। और जिसको की हिन्दू पंथ में फिर से यही "धर्म" केह कर धर्म के विविध अर्थो में पुकारा जाता है।
बस इसीलिए पश्चिमी विचारकों ने हिन्दू भूमि पर चलन में प्रथाओं को विशेषण नाम दे दिया - धार्मिक पंथ।

आज़ादी चाहिए तो सबसे पहले गुलामी के आचरण और मूल्यों को चिन्हित कीजिये

किसको चाहिए आज़ादी और किससे ?

भई, इंसान को कैद इंसान की मानसिकता ही रखती है। जब मानसिकता में मनोविकृति बन जाती है।  कैसे आई होंगी यह सब प्रकार की गुलामियां जिनसे आज़ादी के लिए संघर्ष हुये और हो रहे हैं :- भारतियों को अंग्रेजों से आज़ादी चाहिए थी। देश आज़ाद हुआ, आज़ादी मिली; कश्मीर को भारत से आज़ादी चाहिए थी, विशेष प्रावधान अधिनियम बना, आज़ादी मिली ; दलितों को उच्च वर्गों से आज़ादी चाहिए थी, आरक्षण बना, आज़ादी मिली ; स्वतंत्र चिंतन को धार्मिक उन्माद से आज़ादी चाहिए थी, देश सेक्युलर भी बना, आज़ादी मिली।
मगर फिर क्यों यह सब गुलामियों के तौर तरीके आज भी देखने सुनने को मिल रहे हैं। क्यों फौजों में ख़राब खाना खिलाया जाता है और शिकायत करने वाले को प्रताड़ित किया जाता है? क्यों फौजदार सिपाहियों से व्यक्तिगत सेवा लेता है? क्यों ऑफिसों में boss is always right कल्चर चलता है ? क्यों प्रशासन में पॉलिटिशियन और ब्यूरोक्रेट की धाक चलती है ? क्यों खेल में कोच की मर्ज़ी चलती है, जी हजूरी और खुशामद चलती है , खिलाड़ियों का कौशल नहीं ?

शायद कही कुछ गलती हुई है हमारी शिक्षा नीति में। उसने हमें कुछ गलत पढ़ाया है, कुछ छिछला सा यह बताया है कि 'देश को किसने ग़ुलाम बनाया था ? -- अंग्रेजों ने' । उसने हमें यह नहीं बताया कि ग़ुलामी का अंश काया का रंग नहीं था, बल्कि असमान न्याय था । और असमान न्याय होता है सामंतवाद में। इसलिए ग़ुलामी खत्म करने के लिये अंग्रेजों को भारत छुड़वाना इलाज़ नहीं था, बल्कि सामंतवाद का ख़ात्मा ग़ुलामी से मुक्ति का जरिया था।
और सामंतवाद का निवारण होता है rule of law से । जब मनमर्ज़ी वाले कानूनों , व्यक्तिनिष्ठ पैमानों से मुक्ति मिलती है, जब discretion और arbitrariness से मुक्त कानून का चलन आता है। आज़ादी क्या खाक मिलेगी अगर ऑफिसों में आज भी performance evalutaion में व्यक्तिनिष्ठता को खेल करने का अवसर मिलेगा । जब बिना किसी स्पष्ट कारण ही सेना प्रमुख अपने दो वरिष्ठों को लांघ कर बन जायेगा। जब कुछ रंगीन "कारणों"  का बहाना दे कर मनमर्ज़ी करी जाती रहेगी। जब शिकायत कर्ता भुगतभोगी  को ही और यातना दी जाती रहेगी ।

आज़ादी की लड़ाई तो स्वाभाविक अंतहीन चलती ही रहेगी, बड़ी इकाई की छोटी इकाई से, फिर छोटी इकाई की और अधिक छोटी इकाई से । मगर असल आज़ादी कभी मिलेगी ही नहीं  अगर हमने सामंतवाद से मुक्ति के मार्ग को नहीं पहचान किया तो। सामंतवाद खुद इंसानी मनोविकृति में से ही तो आता है।इसलिए कहते है की इंसान को ग़ुलाम उनकी मानसिकता ही तो बनती है।

On the propagation of Bhakt mentality in India

How did so much illogical ness spread ?
I often ponder that even while Indian culture is knowledge oriented, --the great vedic culture,- and imbibes so much spirituality in it yet how come we have so significant population of the Bhakt mentality people living amongst us. Because, if we are to have the right knowledge and an awakened conscience truly, the arguments of the Bhakt would not have been so much perverse, the language so much unruly and filled with arrogance.
The unevenness of one's own logic - how could it escape the self-realised mind, i look at them with amazement. How is it that the marketing and advertising tactics work more than the real substance -- i seek to know. What has the spirituality done to our inner thoughts, or rather- what sort of spirituality it was , if at all there was any , that our political discourse is unable to follow up the Good Conscience .

It is as if that the norms of Constitutionality and the Legality can be so casually allowed to look different from the morality and the ethics. That is the the new normal of the Indian society, and i wonder to myself when did we come to this pass.
In the early days of the human civilization, the legality had to necessarily closely follow up the morality and the ethics. Indeed , the Good Conscience was the source of the law that the society followed. In accordance with this thought, i wonder as to how come this self-proclaimed spirituality leadership of the world has not given the Indian system the right legal practise, the ethical behavior and a morally awakened society .

the thousand years of enslavement that our country has suffered is the most plausible and easiest explanation that i come across each time i make such introspection.

मुन्नार में मुद्रा बनाने की मशीन

केरल के मुन्नार जिले में पहाड़ी, ठण्ड क्षेत्र में चाय के बागान है। वहां आने वाले सैलानियों के लिए टाटा कंपनी ने एक चाय संग्रहालय (tea Museum) बनाया है। इस म्यूजियम के अंदर चाय की औद्योगिक स्तर पर पैदावार से सम्बंधित ऐतिहासिक विशिष्ट वस्तुओं को संरक्षित करके प्रदर्शित किया गया है।
इन्हीं वस्तुओं के बीच चाय उद्योग के आरंभिक दौर की एक आवश्यक उपकरण है मुद्रा सिक्का बनाने के उपकरण , Coinage Machine. निकट में प्रदर्शित अभिलेख में इस उपकरण की ऐतिहासिक विशिष्ट का ब्यौरा दर्ज़ है।
ब्यौरा बताता है की चाय के पौधों की उपयोगिता तो इंसान बहोत पहले से जानता था, मगर उद्योग स्तर पर पैदावार नहीं होती थी। चाय की फसल चीन और भारत में कम से कम तीन हज़ार सालों पूर्व से हो रही है।अंग्रेज़ सौदागर अपने नाविक जहाजों से भारत केरल के रस्ते ही पहुंचे थे और सबसे प्रथम इन्होंने यहाँ केरल में पाये जाने वाले मसालों का व्यापार शुरू किया था। चाय भी इन्हीं मसालों में आती है। और पश्चिम देशों में बहोत लोकप्रिय होने लगी थी। इसलिए इसकी बाजार मांग पूरी करने के लिए इसकी पैदावार बढ़ाने की आवश्यकता थी। तब औद्योगिक स्तर पर पैदावार के लिए अंग्रेजों ने आवश्यक संसाधनों की भी मुन्नार में नींव डाली। इन संसाधनों में रेल गाड़ी भी शामिल है, पतली narrow गेज पहाड़ी क्षेत्र वाली, जिससे चाय की माल ढुवाई करी जाती थी। म्यूजियम में उन रेलगाड़ी के पहिये भी नुमाईश पर रखे हैं।
चाय उद्योग में मुद्रा सिक्के छापने वाली मशीन का सामाजिक आर्थीक महत्त्व है। उस आरंभिक दौर में मुन्नार के लोगों और समाज में मुद्रा नामक वस्तु का उपयोग नहीं था। इसके चलते चाय कंपनी को मज़दूरों को स्थायी तौर पर मज़दूरी के लिए रोकने का कोई जरिया ही नहीं था। भई, श्रमिक आखिर किस लोभ में वहां निरंतर श्रम करेगा ? इसका उपाय निकला की चाय कंपनी ने अपने खुद के मुद्रा बना कर मज़दूरों को श्रमिकी में देना आरम्भ किया और साथ में यह वादा किया की इस मुद्रा के बदले वह कंपनी की कोई भी व्यावसायिक उत्पाद 'आपसी आदान-प्रदान' की जगह 'खरीद और बेच' सकेंगे।
तो इस प्रकार वहां के समाज में मुद्रा की नीव डली और आधुनिक आर्थिक व्यवस्था आरम्भ हुई।

उद्योग स्तर उत्पाद से होते हुए हमारा समाज आज खपतवाद तक आ गया है, और विशाल स्तर निर्माण से आगे बढ़ कर हम आज प्राकृति संसाधन विनाशक स्तर पर निर्माण करने लग गए है। यह सब आरम्भ हुई व्यावसायिकता के प्रसार से, और व्यावसायिकता का आरम्भ हुआ था मुद्रा के मानव समाज में प्रवेश से।

Professionalism संस्कृति और पर्यटन पर इसके प्रभाव

(..continued from वर्तमान युग की संस्कृति का संक्षेप इतिहास)

Professionalism Culture और पर्यटन पर इसके प्रभाव

professionalism वाले इस दौर में पर्यटन के उद्देश्य भी अब दूसरे ही हो चले हैं।

professionalism जो की अपने अभिप्रायों में श्रम का large scale व्यापार लिए हुई है, इस सभ्यता की एक और महत्वपूर्ण निशानदेही है। यहाँ इंसानो की एक बहोत बड़ी आबादी व्यापारिक वस्तु के उत्पाद दैनिक श्रम पर आश्रित है और इसके वास्ते  "professional" के रूप में तब्दील हो चुकी है। professional का एक दूसरा अभिप्राय है , ऐसे व्यक्ति जो की स्वतंत्र चिंतन ,यानि liberal thoughts , के लिए समय नहीं रखते हैं।

आरंभिक दौर में इंसान के भ्रमण पर जाने के उद्देश्य दूसरे हुआ करते थे। भ्रमण के सार को उस युग में बौद्धिक विस्तार की प्रक्रिया से जोड़ कर समझा जाता था। क्योंकि उस युग में चलन यानि यात्रा के संसाधन इतने विक्सित और सहज उपलब्ध नहीं होते थे, इसलिए इंसान यात्राएं बहोत कम करते थे। ऐसे व्यक्तियों के सोच के दायरे संक्षित और स्थानीय (parochial) होते थे ।स्थानीय से अर्थ है वह जो की लघु दर्शन लिए हुए है, व्यापक और समग्र (global) दर्शन का नहीं है। स्थानीय दर्शन में क्योंकि सूर्य को हम प्रतिदिन पूर्व दिशा से उदय या निकलते देखते हैं, और पश्चिम दिशा में अस्त यानि डूबते देखते है, इसलिए हमारा "सत्य" स्थानीय हो चलता है की " सूर्य ही धरती की परिक्रमा करता है"। यह apparent truth है। मगर किसी विस्तृत, व्यापक भ्रमण किये हुए व्यक्ति के नज़रिये में जब वह धरती के ध्रुवों पर प्रकृति के गूल रूप के कारण बसी दूसरी प्राकृतिक घटनाओं के दर्शन और कारको को देख लेता है, तब उसका "सत्य" परिवर्तित हो जाता है कि , "असल में धरती गोल है, गुरत्वकर्षण  शक्ति हमें धरती के केंद्र की और खींचती है, और धरती सूर्य की परिक्रमा कर रही है"। अब वह भ्रमण किया हुआ व्यक्ति universal truth की ओर अग्रसर हो जाता है। universal truth वह है की हर जगह लागू होता है, और इससे दोनों ही कारकों का संज्ञान किया जा सकता है -- जो हुआ उसका कारक, और जो होना तो चाहिए था मगर नहीं हो रहा है, उसका संज्ञान भी।

बरहाल, वर्तमान युग में भ्रमण के उद्देश्य अब उस व्यापक "सत्य" के शोध वाले नहीं रह गए हैं। professionals अब एक प्रकार का विश्व व्यापक समान रुपी जीवन जीते हैं। चूँकि professional बनने के लिए समान रुपी शिक्षा दीक्षा चाहिए, इसके लिए इंसानी सभ्यता ने बाकायदा एक education industry भी बनायी है। education industry से गुज़र कर सभी इंसानी बच्चे एक professional बन कर उभरते हैं, और वापस अपने बच्चों को professional बनाने के लिए दैनिक श्रम करते रहते हैं। सभी professionals की दैनिक चर्या करीब करीब समान ही होती है। वह सब के सब प्रातः office जाते हैं, यानि वह स्थान जहाँ वह "मानसिक या शारीरिक सेवा"  का श्रम का विक्रय करते हैं। और दोपहर को भोजन किसी lunchbox से या resturant में करके शाम को वापस घर लौट आते हैं। हफ्ते में उन्हें पांच दिन ऐसे ही जीवन गुज़र करनी होती है। एक बाद उनका weekend आ जाता है। और weekend को वह भ्रमण पर निकल जाते है।
यहाँ भ्रमण के उद्देश्य यह है की चूंकि पञ्च दिन एक समान जीवन यापन हुआ था, इसलिए थोडा अलग करके अपनी इच्छाओं की पूर्ती करी जाती है। अपनी इन्द्रियों को दूसरे भोज दिए जाते है।
भ्रमण का यह उद्देश्य अपनी मनोवैज्ञानिक संरचना में उत्थान वाला नहीं है, बल्कि इन्द्रियों की तुष्टिकरण का है। ध्यान रहे की 'संतुष्टि' (satisfaction' और 'तुष्टि'(satiation) में अंतर होता है। तुष्टि से अभिप्राय भोजन दे कर अस्थाई शांति देने से है, क्योंकि जैसे एक भोजन के बाद पुनः कुछ काल बाद भूख लगती है वैसे ही सभी इन्द्रियों के साथ भी होता है। यानि, professionals को अपनी इन्द्रियों को हर weekend पर तुष्टिकरण का भोजन देना पड़ता है। तो भ्रमण का उद्देश्य तुष्टिकरण है, दार्शनिक और बौद्धिक विस्तार नहीं है।professionals को भ्रमण से प्राप्त दर्शन से आधुनिक चलन वाले "फ़ोटो खीचों" ,"selfie लो" नेत्र तुष्टिकरण के कृत्य और चक्षु भोग करने होते हैं।

लोग अक्सर भ्रमण और पर्यटन में भी थोडा भेद करते है। भ्रमण के अभिप्राय लघु दूरी की यात्रा से है जबकि पर्यटन के अभिप्राय लम्बी दूरी की यात्रा से है। professionals भी weekend के अलावा long holiday trips पर जाते हैं।  weekend trips छोटे होते हैं जबकि long holiday trips लम्बी दूरी के होते हैं।
मगर उद्देश्य दोनों ही प्रकार की यात्राओं के वही हैं। इन्द्रियों का तुष्टिकरण।

यानि, पर्यटन भी उपभोग हो गया है, और स्थल भी इस मरुस्थल संस्कृति में उपभोग स्थान हो गए हैं। वर्तमान काल की उपभोगवादी संस्कृति है ही ऐसी। उपभोगवाद (Consumerism) का अभिप्राय है संरक्षणवाद (ConservationIsm) के विपरीत । उपभोगकतावाद में वस्तुओं को खपत किया जाता है, संरक्षित नहीं।

अब चूंकि सभी professionals एक समान की दिनचर्या और विस्तृत जीवन जीते है, तो उन सब के weekend trips और long holiday trips भी एक संग ही आते हैं। इसके नतीजे में पर्यटन स्थल

वर्तमान युग की संस्कृति का संक्षेप इतिहास

cultural scientists बताते है की वर्तमान की मानव सभ्यता अतीत की प्रोगऐतिहासिक दौर वाली सभ्यता की भांति किसी नदी की तलहटी पर बसी सभ्यता नहीं हैं। और न ही यह मध्यकालीन दौर वाली किसी समुन्दर किनारे बसने वाली, समुद्रीय जहाज़ों से व्यापार पर टिकी सभ्यता है। बल्कि यह 21वीं शताब्दी की सूचना युग वाली मरुभूमि सभ्यता है, जहाँ के महानगर किसी जलस्रोत- नदी या समुन्दर- से दूर बसने का जोखम ले सकते हैं  क्योंकि इस सभ्यता के मानव अपने अस्तितव के लिए मरुभूमि के एक उत्पाद खनिज तेल पर निर्भर रहते है।

सांस्कृतिक इतिहास के शोधकर्ता हमारी वर्तमान कालीन सभ्यता का आरम्भ अक्सर करके 16वि शताब्दी के इंग्लैंड और फ्रांस में घटी औद्योगिक क्रांति (industrial revolution) से मानते हैं। industry शब्द के अभिप्राय को large scale production से जोड़ कर देखते है, जब इंसान ने अपने गुज़र बसर के तरीके को व्यापार और व्यापरिकता से अधिक जोड़ लिया, तथा पुराने युग के तरीके -- किसानी , खेतीहरि और hunting (या शिकार) पर आश्रय करीब करीब समाप्त कर लिया।

industrial युग से सांस्कृतिक इतिहास के शोधकर्ताओं के और भी अभिप्राय होते हैं। industry शब्द का एक अभिप्राय यह भी है की इसमें उपभोक्तावाद(consumerism) है। यानि प्रत्येक व्यक्ति का जीवन आश्रय प्राप्त होता है दैनिक श्रम से किसी एक उत्पाद की रचना में जो की किसी दूसरे व्यक्ति के जीवन आश्रय के लिए आवश्यक है।
इसका एक अर्थ यह भी है की वर्तमान सभ्यता पूर्ण स्वतंत्रता वाली सभ्यता बची ही नहीं है, क्योंकि इसमें आश्रित स्रोत की जीवन यापन पद्धति ही चलती है --व्यापार (यानि Trade) । इसमें पूर्ण स्वतंत्रता की जीवन यापन पद्धति -- किसानी और शिकार-- ही समाप्त हो चली है।
trade यानि वयापार की सबसे आवश्यक वस्तु है पैसा यानि मुद्रा। हम कुछ भी दैनिक श्रम करते है तो उसका उद्देश्य मुद्रा को अर्जित करने का होता है। हम, यानि हम सभी व्यक्ति ---प्रत्येक व्यक्ति। कुछ लोग सीधे तौर पर किसी पदार्थ का व्यापार करते है। दूसरे अन्य अपने श्रम के व्यापार पर निर्भर करते है। पदार्थ के व्यापारी merchants कहलाते हैं, और श्रम के व्यापारी labourers या professionals कहलाते है।

व्यापरिकता ही वर्तमान कालीन मानव सभ्यता का सार है।

व्यापरिकता के दूसरा अभिप्राय है खपतखोर वाद , यानि खानाबदोशी या consumerism । अब क्योंकि इस बड़ी आबादी को जीवन आश्रय के लिए तेज़ी से उत्पाद निर्मित करने पड़ते हैं,  इसके लिए वह तेज़ी से प्राकृतिक संसाधनों की खपत करता है।

Professionalism Culture और पर्यटन पर इसके प्रभाव

professionalism वाले इस दौर में पर्यटन के उद्देश्य भी अब दूसरे ही हो चले हैं।

professionalism जो की अपने अभिप्रायों में श्रम का large scale व्यापार लिए हुई है, इस सभ्यता की एक और महत्वपूर्ण निशानदेही है। यहाँ इंसानो की एक बहोत बड़ी आबादी व्यापारिक वस्तु के उत्पाद-- दैनिक श्रम-- पर आश्रित है और इसके वास्ते  "professional" के रूप में तब्दील हो चुकी है। professional का एक दूसरा अभिप्राय है , ऐसे व्यक्ति जो की स्वतंत्र चिंतन ,यानि liberal thoughts , के लिए समय नहीं रखते हैं।

(....contd)

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