non-linear logic में भारतिय न्यायालय
भारतिय न्यायालयों की भी यही आलोचना होती रही है। यहाँ कुछ भी साधारण तर्क की परिधि में नहीं होता है। कब किसको क्यों bail (जमानत) दी जाती है, क्यों जल्लितकट्टू पर प्रतिबन्ध लगता है, और बकरीद पर नहीं; और फिर क्यों वह प्रतिबन्ध हटा लिया जाता है, और पशु संवेदन संस्था PETA ही प्रतिबन्ध की आशंकाओं से घिर जाती है..इन सभी के पीछे कोई एक linear logic तो है ही नहीं।
बार कॉउंसिल कहता है की भारत में करीब 45% वकील तो फर्ज़ी है। मेरा अनुमान है की इन हालात को देखते हुए तो शायद यह संख्या कही अधिक है। और जज कितने काबिल है कितने फर्ज़ी है इसका तो बार कॉउंसिल ने कुछ हिसाब ही नहीं दिया है। फर्ज़ी से अभिप्राय सिर्फ यह नहीं की उनकी डिग्री नकली है, phony scholar की भी समस्या है -- यानि ऐसे स्नातक जिनकी उपाधि तो कागज़ी मानकों पर असली है , मगर वह विषय की गहराई में कुछ भी ज्ञान नहीं रखते हैं।
सब कुछ उल्टा पुल्टा है भारत में । प्रतिदिन कम से कम एक खबर मिलती है की कैसे भारत के किसी हिस्से में कोई न्यायलय मनमर्ज़ी के 'तर्कों' पर कोई निर्णय दे रहा है। अभी चाँद दिनों पहले बॉम्बे हाई कोर्ट ने किसी दो दंगे के हत्यारों को bail दी इस बिन्हा पर कि इन्होंने हत्या सिर्फ उकसावे में तो करी थी, पीड़ित के मजहब की वजह से।
सरकार से संबधित विषयों पर तो करीब करीब हर विषय पर कोर्ट उनके पक्ष में ही फैसला करता है। क्यों और कब किसी पॉलिटिशियन का नाम किसी लेन देन की किताब में आने पर जाँच आवश्यक होती है, और कब यही अपर्याप्त सबूत बन जाते है , यह सब आम आदमी के linear लॉजिक में तो नहीं रह गया है।अब तो कोर्ट की मर्ज़ी ही न्याय का तर्क बन कर रह गया है।
Comments
Post a Comment