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इंटरनेट में digital equality के नाम पर चल रहा यह बदलाव है क्या ?

अमीरी गरीबी को अधिकांशतः हम लोग एक सामाजिक भेदभाव के रूप में ही पहचानते है जो की धन सामर्थ्य के अंतर पर प्रसारित होता है। मगर व्यापारिक और औद्योगिक दृष्टि से यह भेदभाव कई सारे धनाढ्य लाभ के रास्ते के पत्थरों को साफ़ करने का समाधान भी समझा जा सकता है।
    हमारे देश में अभी कुछ वर्ष पहले 2G और 3G स्पेक्ट्रम घोटाला हुआ था । क्या आपने कभी सोचा है की 2G तकनीक के आने के चंद वर्षों बाद ही 3G तकनीक का इज़ाद हो जाये तब फिर 2G तकनीक का व्यापर करने वाले उद्योगों का क्या होगा ? मंत्री जी ने गरीबों के नाम पर 2G और 3G का लाइसेंस सस्ते में नीलम कर दिया था, बदले में रिश्वत ले कर। अब आजकल जो 4G तकनीक के बाजार में आने की तैयारी है तब फिर 2G और 3G तकनीक के उद्योगों वाली कंपनियों का क्या होगा? ख़ास तौर पर उनका जिन्होंने शायद 2G और 3G के लाइसेंस को करोड़ों रुपये की कीमत और रिश्वत, दोनों, देकर हासिल किया होगा ??
    digital दुनिया की यह समस्या इनसे जुड़े उद्योग और उद्योगपतियों की भी है, जो की प्रत्येक मोबाइल फ़ोन प्रेमी की समस्या है--- "हर नया मॉडल बस कुछ ही महीनों और सालों में पुराना हो जाता है"। कोई बिज़नस करे, तो कैसे करे ? जो दुकान खोलो, वह बस कुछ ही महीनों और सालों में पुरानी हो कर धंधा बंद करने की नौबत पर आ जाती है।
    यहाँ इसका समाधान है की अमीरी-गरीबी का अंतर बना दो। हाँ, इससे समाज को नुकसान होगा, मगर उद्योग और बिज़नस को फायदा मिलेगा।
   धर्मशास्त्र कहते है की ज्ञान को चोरी नहीं किया जा सकता है। ज्ञान इंसान का सच्चा साथी, सच्चा मित्र होता है। मगर व्यापारिक दुनिया में ज्ञान का यह दृष्टिकोण सही नहीं है। यदि ज्ञान वाकई में चोरी नहीं किया जा सकता है तब फिर piracy और intellectual property जैसे शब्द और कानून क्यों बनाते ? यह आवश्यक नहीं है की piracy की रोकथाम के लिए नयी अभेद तकनीक की खोज ही एकमात्र रास्ता हो। व्यापारिक और उद्योगिक दृष्टि से एक दूसरा इलाज़ भी है। वह यह की piracy पीड़ित को कैसे भी करके उसके उत्पाद की सही किमात मिल जाये , बस। यहाँ यह अमीरी-गरीबी का सामाजिक अंतर एक रास्ता दिखता है। जैसे armani ब्रांड के जैसा कोट पेंट तो कई सारे दूसरे दर्ज़ी भी सील लेते हैं, मगर खरीदने वाले लोग वास्तव में कीमत अदा करते है ब्रांड की, न कि उत्पाद की, तब फिर इंटरनेट की दुनिया में भी इन निरंतर नयी आती उच्च तकनीकों की ब्रांड कीमत को विक्सित करने से पुराने पन की समस्या का निवारण मिल सकता है।
  यानि, यदि 4G तकनीक के आने से 3G पुरानी भी होती है तो फिर आरंभिक काल में 4G की कीमत को 3G से कही अधिक रखो। इसके लिए आवश्यक है की दाम नियंत्रक संस्थान जैसे की TRAI इत्यादि से इन कीमतों को स्वतंत्र करवा दो। मगर TRAI तो कीमतों को उपभोक्ताओं की हित में ही नियंत्रित करता है, फिर उससे कीमतों के नियंत्रण की स्वतंत्रता कैसे मिले गी?
इसका रास्ता है ,मगर थोडा कुटिल।
    पुरानी तकनीक, जैसे की 2G (या उस समय काल में जो भी तकनीक पुरानी हो रही हो) उसपर गरीब उपभक्ताओं के नाम पर कुछ एक वेबसाइट को खोल सकने की कीमत को पूरा मुफ़्त कर दो। यहाँ तक की मोबाइल data की जो कीमत वर्तमान में लगती है, उसे भी। इसके बदले में, trade-off में , सरकारों से और TRAI जैसी मुद्रा नियंत्रक संस्थाओं से नयी तकनीक की बाजार दामों को पूरा नियंत्रण-हीन करवा लो। अब बाकी सारी वेबसाइट, जो की बाकी  middleclass, upper middle class  उपभोक्ताओं को अक्सर ज़रुरत पड़ती है, उन्हें इन उच्च तकनीक स्पेक्ट्रम के ज़रिये ही, मनमौजी दामों पर बेच दो। यहाँ से उस निम्म तकनीक पर दी जा रही गरीबों की free basics की कीमत भी निकल आएगी, साथ ही अतिरिक्त लाभ भी बेइंतेहाँ मिल जायेगा। यहाँ उच्च तकनीक स्पेक्ट्रम पर उन पायरेसी का शिकार होने वाली वेबसाइट को भी यह लाभ होगा की उनको खोलने वालों से शुरुआत में ही कीमत वसूली जा सकेगी की बाद में यदि पायरेसी हुई तब भी नुक्सान नहीं होगा।
      यह है अमीरी-गरीबी के सामाजिक अंतर को कायम रखने का व्यापारिक लाभ।  कुछ गरीबों के नाम पर मुफ़्त देने के ऐवज़ में अतरिक्त लाभ कमाने की कुटिल नीति।
   
(नीचे लिखी कहानी विश्व विख्यात लेखक थॉमस फ्राइडमैन की पुस्तक "The world is flat" पर आधारित है।)
     इंटरनेट के आरंभिक काल में,यानि आरम्भ 1990s के दौर में इंटरनेट से जुडी व्यापारिक कंपनियों को बिलकुल समझ में नहीं आ रहा था की सूचना-प्रसारण से जुडी इस तकनीक जो की internet पुकारी जाती है, इससे व्यापर कैसे किया जाये। कंपनियों को यह तो समझ आ रहा था की सूचना आदान प्रदान से जुडी इन तकनीक से व्यापारिक लाभ कमाया जा सकता है, मगर मतभेद यहाँ पर थे की आम व्यक्ति को सीधे सीधे internet पर जुड़ने पर ही कीमत वसूलें, या फिर कुछ सीमित विशिष्ट उपयोगों पर ही कीमत लगाये। मतों का टकराव इस बात पर था की यदि आम व्यक्ति को इंटरनेट पर जुड़ने की ही कीमत लेने लग जायेंगे तब फिर सूचना आदान प्रदान से जुडी तकनीक यानि इंटरनेट पर बहोत कम आम व्यक्ति रुचि लेंगे और जुड़ेंगे। सीधा सवाल है की यदि इंटरनेट पर जुड़ने की भी कीमत है तब फिर कोई उससे जुड़ेगा ही क्यों, और आखिर वहां ऐसी कौन सी सूचना उससे मिलने वाली है जिसके लिए वह पैसे खर्च करे।
  तो उस काल में भीतरी समस्या यह थी की सूचना आदान प्रदान की तकनीक पर सर्वप्रथम तो सूचना को एकत्र भी करना पड़ेगा,जिसके बाद ही उसके आदान प्रदान के दौरान कोई व्यापर किया जा सकेगा। 1990 के उस दौर में इंटरनेट पर अभिरूचि रखने वाले बहोत कम ही व्यापारी दुनिया में अस्तित्व में थे, बस गिने-चुने कुछ-एक वह जो की कंप्यूटर निर्माण के व्यापर में थे। माइक्रोसॉफ्ट के बिल गेट्स जैसे लोगों ने तब यह रास्ता चुना की इंटरनेट पर जुड़ने पर आम आदमी को कोई कीमत नहीं ली जायेगी। उनकी कल्पनाओं में यह आया की इंटरनेट से जुड़ने को भी वास्तविक दुनिया में इंसान के जन्म लेने की ही भाँती cyber birth को मुफ़्त रखा जायेगा, बल्कि आम आदमी को उसके cyber birth के लिए सहयोग भी दिया जायेगा। इंटरनेट पर भी वास्तविक दुनिया की तरह एक साइबर दुनिया यानि cyber world बसाया जायेगा, और यहाँ आने वाले प्रत्येक नागरिक का एक साइबर birth (जन्म) करवाया जायेगा,जिसमे उसे वास्तविक दुनिया की ही भांति कोई कीमत नहीं चुकानी पड़ेगी, बल्कि cyber birth में सहयोग भी दिया जायेगा। व्यापारिक दृष्टि से इंटरनेट के उपयोग का यही मॉडल उचित था क्योंकि सूचना प्रद्योगिकी की मूल समस्या यही थी की सूचना है क्या, और उसे इंटरनेट पर एकत्र कैसे किया जाये। इसका हल यह है की प्रत्येक नागरिक जो कुछ कहता करता है, वही दूसरे नागरिक के लिए एक 'सूचना' है। और सूचनाओं को इंटरनेट पर एकत्र करने का सबसे आसान तरीका यही है की प्रत्येक आम नागरिक को मुफ़्त में cyber जन्म दिलवाया जाये। माइक्रोसॉफ्ट ने खुद इंटरनेट पर जुड़ने वाले आरंभिक सॉफ्टवेयर netscape navigator को इसी हिसाब से रचा की आम नागरिक उसे फ्री में उपयोग करके इंटरनेट से जुड़ सके। बाद में उसने भविष्य के version internet explorer वगैरह में भी यही बात जमाये रखी थी। उस काल में internet का मुख्य स्वामित्व अमेरिकी सरकार की कंपनी IBM के पास था, जिसमे बाद में माइक्रोसॉफ्ट ने काफी शेयर खरीद कर हिस्सेदारी बना ली थी।
    तब फिर आगे के काल में भारतीय मूल के एक उद्यमी, सबीर भाटिया ने उस युग में पहले से ही प्रयोग में रहे पत्राचार की एक उपयोग email को hotmail नाम के एक ब्रांड से मुफ़्त करके इंटरनेट मार्केट में उतरा। यह email तकनीक अस्तित्व तो 1970 के दशक से ही थी, मगर सैनिकय दूरसंचार के लिए।सबीर भाटिया और उसके सहयोगी ने इसे मुफ़्त बना करके आम नागरिक के प्रयोग के लिए बना दिया, जिसमे उसको अपना व्यापारिक लाभ मात्र कुछ promotional email या adervtisement ईमेल आम आदमी को भेज कर कामना था। यानि,आम आदमी के लिए लाभ था की कुछ एक promotional और advertisement ईमेल के बदले उसे बाकी पूरा मुफ़्त hotmail पर एक ईमेल account मिलता था।
   बिल गेट्स को सबीर भाटिया के इस उद्योग का व्यापारिक लाभ और पहुँच तुरंत समझ आ गया और उसने सबीर भाटिया से यह hotmail कंपनी बहोत मुंह मांगी कीमतों पर खरीद ली थी, जो की काफी सालों तक भारतीय अख़बारों की सुर्खियां बना रहा था।
     बाद में इंटरनेट पर ज्यों ज्यों आम आदमी का मात्र एक मुफ़्त में उपलब्ध ईमेल account खुल जाने से जो cyber birth होने लगा , तब फिर और अधिक मानवता को साइबर birth दिलाने वाली कंपनियां अस्तित्व में आने लगी, जैसे की yahoo! इत्यादि। 

(अब आगे का लेख स्वतंत्र रचना है।)
   internet व्यापर के इस मॉडल में व्यापर का वास्तविक अवसर advertisement और उत्पाद promotion आदि पर ही टिका है। यानि,जितनी अधिक से अधिक् आबादी किसी एक विशिष्ट इंटरनेट कंपनी के वेबसाइटों का उपयोग करेगी,उस कंपनी को उतने अधिक ads मिलेंगे और वह उतना ही अधिक लाभ कमाएगी। यानि इंटरनेट कंपनियों का पुरा का पूरा व्यापर मात्र ads पर ही टिका है, जबकि आम नागरिक पूरी तरह मुफ़्त इंटरनेट खोल सकने का लाभ पा रहा है। वर्तमान काल में internet की सबसे बड़ी कंपनी google ने तो घोषणा ही कर दी है की वह सदैव के लिए अपने सभी उत्पाद आम नागरिकों को मुफ़्त में दिलवाएगी। इसके बदले आज google कंपनी दुनिया में इंटरनेट की सबसे अधिक मुनाफा कमाने वाली कंपनी है क्योंकि सबसे अधिक ads भी गूगल को ही मिलते है प्रसारण के लिए।
      अब बाकी कई सारी कंपनियों के लिए एक व्यापारिक थाम का दौर चल रहा है। इंटरनेट व्यापर के वर्तमान मॉडल में उसको ज्यादा कुछ कमाने का अवसर ही नहीं बचा है। वह कोई भी क्रांतिकारी उत्पाद क्यों न निर्मित कर लें, गूगल और बाकी अन्य कंपनियां उस उत्पाद के जैसे, मिलता जुलता सा, कुछ दूसरा बना करके मुफ़्त में उतार देंगे और फिर वही व्यापारिक चक्र चालू होगा :- ads प्रसारण के दम पर व्यापारिक लाभ। बात को piracy की भाषा में समझें तो यूँ समझिये की इंसानी रचनात्मकता को उसकी कीमत नहीं मिल पा रही है, क्योंकि वर्तमान मॉडल में वास्तविक लाभ तो ads को बेच कर ही कमाया जा सकता है। और आपकी रचनात्मकता को तुरंत का तुरंत ads नहीं मिलने वाले है, "xxxx भले में मैंने कितना दमदार यह लेख हिंदी में क्यों न लिख दिया हो।  :D xxxx"
    social media की नयी उभरती कंपनियों के लिए भी यही थाम उबासी देने लग गया है। अब फेसबुक चाहे जितना मानवता की आबादी को सम्मोहित कर ले, उसको व्यापार तो ads बेच कर ही करना है,और वही से लाभ कामना है। यानि उसके उपयोगकर्ताओं की इतनी बड़ी आबादी असल में एक भी उपभोक्ता नहीं है, सब के सब मुफ़्त में फेसबुक खोल कर काम चला रहे है।
   बस , फेसबुक और बाकी google के मुफ्तिकरण से विचलित कंपनियों को कुछ नया मॉडल परिवर्तन करके बाजार में लाना ही एक रास्ता सूझ रहा है,जिसमे की अब आगे इंटरनेट के उपयोगकर्ताओं में से ही उपभोक्ता भी निर्मित करे जा सकें। उसके लिए आवश्यक है की इंटरनेट पर आने की उस मुफ़्त जन्म में कुछ भेद भाव प्रकट करे जाएं, यानी अब cyberworld में भी अमीरी और गरीबी को जन्म दिया जाये। मानवता के प्रत्येक नागरिक को साइबर birth तो अब भी मुफ़्त में ही मिलेगा, मगर अब उपयोगकर्ता और उपभोगकर्ता में अंतर हो जायेगा। जो अधिक orkut और facebook चलाते है,वह उपभोगी बन जायेंगे।
   बल्कि दुनिया भर की सरकारों में बैठे राजनीतिक वर्ग को भी इसी में कुछ लाभ दिखने लगा है। फेसबुक ने जिस प्रकार से सीरिया, और मध्य-पूर्व एशिया के देशों में राजनैतिक क्रांति को जन्म दिया था, बाकी सब देशों की सरकारों में बैठा राजनैतिक वर्ग यह समझ गया है की जन जागृति को अगर डब्बे में बंद करके रोकना है तो एक चलांक तरीका तो यही से मिल जायेगा कि इंटरनेट पर फ्री के सोशल मीडिया को नष्ट हो जाने दो। न आम आदमी को सस्ते में सोशल मिडिया मिलेगा, न वह इतने जागृत हो पाएंगे कि सरकारों के खिलाफ एक-जुट हो जाएं। साथ ही, टीवी की मीडिया कंपनियों जिनपे प्राइवेट व्यापारियों का नियंत्रण पहले से ही था और जो की आम आदमी के मन मस्तिष्क में अपनी विश्वसनीयता खोता जा रहा था, टीवी समाचार उद्योग में वापस मार्किट में लौट आएगा। यहाँ इन राजनैतिक पार्टियों को जनता को उल्लू बनाने का वह पुराना वाला अवसर दूबारा से हाथ लग जायेगा।
   तो यह है नए वाले internet व्यापार के मॉडल की सामाजिक और राजनैतिक दिक्कतें, जो मानवता को वापस पुराने अर्धप्रकाशमयी युग में भेज देगी। मानवता ने अभी सोशल मीडिया के माध्यम से एक दूसरे का हाथ थाम कर सूचना, तथ्य, सत्य ज्ञान,जागृति के प्रकाश में प्रवेश करना आरम्भ ही किया है, -----और अब व्यापारिक और राजनैतिक लाभों के लिए इसे पुराने युग में धकेलने की तैयारी है।

किस धोखे का नाम है Free Basics और Digital Equality

फेसबुक को जब internet (dot)org  के माध्यम से इंटरनेट के उपभोग से मुनाफा कमाने के नए तौर तरीक में सफलता नहीं मिल रही है तब उसने एक नए अवतार में जनता को उल्लू बनाने के तरीका निकला है।  फेसबुक ने खुद को गरीबों का साथी बता का Free Basics नाम से एक नया मार्केटिंग का तरीका निकला है। इसी को वह मार्केटिंग के दौरान digital equality भी कह कर पुकार रहे हैं। बात को गहराई से समझने के लिए पहले अपने अंतर्मन में कुछ पैमानों को पुख्ता कर लेते हैं:-
  !) क्या आपको अमीरी और गरीबी के सामाजिक ओहदों को महसूस करके सुख महसूस होता है ? ध्यान से समझियेगा : अमीरी और गरीबी की धन सम्पदा अवस्था की  बात नहीं हो रही है , बल्कि सामजिक स्थान की भी बात हो रही है ।
  यानि , जैसा की आज की तारिख में हम किसी bmw कार को देख कर ही अंदाज़ा लगा लेते हैं की इसका स्वामी ज़रूर कोई बड़ा अमीर व्यक्ति होगा,
  किसी की iphone को देख कर अंदाज़ा लगा लेते हैं की ज़रूर कोई मालामाल आदमी है ।  उसके पहनावों के ब्रांड से , उसके पर्स के ब्रांड से, उसके सामाजिक औहदे का पता चल जाता है। यह सामाजिक ओहदा हैं, मात्र धन सम्पदा का अंतर भाव नहीं ।
    यदि नहीं तब फिर digital equality के नाम पर बेचीं जा रही पद्धति का समर्थन आप से धोखे में लिया जा रहा है, आपको वास्तविकता बताये बिना।

२) क्या आप कल को साइबर दुनिया में भी इस प्रकार के सामाजिक ओहदों का अंतर चाहेंगे ? यानि साइबर वर्ल्ड में भी अमीरी और गरीबी का अंतर ?
              अमीरी गरीबी इंसान के बनाये भेद हैं , और अब साइबर वर्ल्ड में भी उसे चालू करने की तैयारी का नाम है digital equality और free basics .   इसके आने पर जो लोग गरीब , यानि काम धन शक्ति के होंगे, वह 2g जैसे low bandwidth के द्वारा ही internet और साइबर दुनिया में दाखिल हो सकेंगे। वह 2g  bandwidth के चलते सभी वेबसाइट नहीं खोल सकेंगे । इसके विपरीत उन गरीबों को low bandwidth में कुछ एक website फ्री यानि मुफ्त में खोलने को दे दी जाएँगी । जैसे सभी सरकारी वेबसाइट और कुछ वह जो की किसी की समझ से "आवश्यक" है । कहने के लिए, जो की नौकरी अवसर की जाकारी देती हैं । जबकि सच यह है की नौकरी से सम्बंधित कई सारी जानकारी तो आज भी पूरी तरह सार्वजनिक नहीं हो पाती  है ।
      वर्तमान में साइबर दुनिया में आप प्रवेश के लिए कोई भी बैंडविड्थ का प्रयोग करे, अंतर मात्र प्राप्त गति (access speed ) का होता है, आपको कही रोक टॉक नहीं देखनी पड़ती है। मगर इस "digital equality " के आने के बाद गरीब इंटरनेट उपभोकताओं को अमीर लोगों के वेबसाइट पर आने की ही इज़ाज़त नहीं होगी । यानि आपके पहनावे से ही चौकीदार आपको बड़े पांच सितारा होटल के दरवाज़े पर रोक देगा, भले ही आपकी जेब में पैसे हों या न ।  बदले में आपको कुछ free hotel दे दिए जायगेंगे जहाँ आप अपनी हैसियत के हिसाब से जा कर खाना खा आइएगा !
स्वागत है आपका डिजिटल इक्वलिटी वाली दुनिया में ! high bandwidth , जैसे कि 3G, 4G और भविष्य में आने वाली अन्य नयी उच्च तकनीक की वेबसाइट के दामों को मनमौजी दरों से बढ़ाया जा सकेगा । कोई TRAI या कोई Court और सरकारों का उस पर नियंत्रण नहीं रहेगा , क्योंकि इसके बदले में "जीवन आवश्यक " वेबसाइट तो free basics के माध्यम से पहले ही मुफ्त दी जा रही होंगी ।

बेचने और मार्केटिंग की चाल-चालाकियों के इस सामाजिक अंतर का नाम digital equality एक धोखा देने के मकसद से इस लिए पड़ा है कि इसको बेचने वाले कहते है की आज भी कई सारे गरीब इंटरनेट पर आने के लिए वर्तमान की जो भी दरें है, उसके चलते वह इंटरनेट पर नहीं आ सकते हैं । कल को जब कुछ free basics वाली वेबसाइट आ जायेंगे तब कम से कम उसको मुफ्त में तो इंटरनेट पर आने का अवसर मिलेंगे ! तो एक प्रकट दर्शन (apparent view) में कहा जा सकता है कि free basics और digital equality के आने पर उन गरीबों को मुफ़्त में कुछ वेब्सिट्स खोलने की सुविधा मिल जायेगी।
   है न सयानापन ! अमीरी को बढ़ाना है तोह फिर गरीब को कुछ तो मुफ्त दे कर और गरीब होने का लाभ दो ! और खुद को गरीबों का पोषक दिखलाओ ।

On collaboration of knowledge streams

I hope you appreciate that for justice to happen, all fields of learning have to collaborate with each other, instead of insulting each other for lack of knowledge of the other's domain. Therefore, it is not a disadvantage that a Navigator leaps into the laws, or a policeman takes interest into Navigation. You will be shocked to learn this aspect of cultural history of the world that many of the laws and Cardinal principles of  Constitution have actually surfaced from lawsuits which came from the Shipping industry. This includes the supremacy of federal structure over the provincial laws, often described as Federalism. Tort laws have their oldest and widest citations from lawsuits which are of Shipping and Cargo disputes. Owing to the historical fact that Shipping was the oldest form of trade taken by mankind, when it comes to laws, a wealth of legal knowledge resides in the field of transportation by sea.
So much so that even the modern Indian Penal Code, although re-written in 1971 has many sections and one entire chapter dealing with navigation and maritime matters. The police department whose entire functioning is based of this law do not have an iota of knowledge on what aspect these laws refer to, but they surely have to know them as a rote learning, maybe. This special status due confluence of knowledge of the legality exist in highlight only with the shipping and navigation, and this because history as on today speaks largely of navigation, but neither about other industries such as aircrafts, Railways or say the computers.

Vessel agrouding incident at Elephanta Island

      Recently a 300mtr container vessel being piloted inward by JNPT pilot had run aground at the south west corner of Elephanta Island.
    As a consequence of this incident the port management has decided to reduce the tonnage of the Pilot involved in it.
     Whereas the defendant pilot maintained that the leading cause of the incident was incessant working of 22hours in the 24hour watch schedule, during which he had piloted 8  large size vessels in and out, the port management apparently has chosen the pick fault in complacency of the pilot.
     These material facts in the aftermath of this incident are causing concerns to me about non-conformity to the principles of natural justice during an investigation and employing an irrational root cause analysis technique.
      I have growing feeling that port managements have not yet geared themselves to take the fatigue factor in  vessel piloting job with as much seriousness as is the prevailing industrial standards.
   In this case, since fatigue was also an accused causation of the incident, then the port management itself becomes a suspect for abetting the incident and therefore not an appropriate authroity to be trusted away a fair investigation. I wonder how, within the principles of Natural Justice, they should be allowed to be a judge of their own accused misdoings.
       But the agony in this case is that not only did the matter settle through an in-house investigation, they have even proceeded to impose a "corrective action" of reducing the tonnage licence of the unfortunate pilot which will bear long term adverse impacts on his career.
    It has often been said that during an incident investigation, the companies (the port management in our case) often adopt wrong set of questionnaire and reach to certain root causes which stand to deny any share of blame on themselves. Accident investigations are conducted with untrained and unscientific principles and often times the layman-spoken accident causes are arrived at in conclusion which have no positive way of resolving out in preventive terms, but only by of imposing a punishment on certain human being as a deterrent and corrective measure. Two of the such very commonly  and abusively defined root causes are Complacency and Over-confidence.
    It must be realised that there are no scientifically defined method of  measuring out if a person was suffering from any such thing as Complacency. One needs to question himself as to who should be burdened to eradicate the human weakness of Complacency, or rather if Complacency should be seen as a problem at all? Many people have expressed difficulty to differ between Complacency and Satisfaction and they question if complacency is a bad behavior at all. In accident investigation theories, the state of complacency is understood to be that stage of learning where a driver has reached of fulfillment where his driving actions are involuntarily controlled by his habits than by active portions of the mind. The learning is now supposedly gone into his muscle memory such as to free his brain of much of the active participation.
   Therefore, Complacency is understood as a natural human tendency much in the same way as we know what Drudgery is to office clerical jobs. Can the solutions be searched in punitive measures? This would be same as demanding a work-horse not to feel hungry or not to feel tired BUT not by way of feeding him food, or by providing him rest; instead, by feeding him a warning that since hunger causes distraction, and tiredness accidents hence he should not let his mind and body be subjected to these ills !
  Which sensible person should agree to this viewpoint and a way of resolving problems which originate from natural human behaviour limitations ?
  Problems which arise due to tiredness cannot be resolved by warning a horse not to get tired (as tiredness causes accidents) and then on a black day, proceeding onto punishing the horse for getting tired.
    Complacency therefore is a human limitation and therefore a challenge to the management to be resolved; it is not a human sin, to be corrected by way of punishment and setting a deterring example. But the unfortunate story is that ordinarily it gets viewed as personal weakness and then the individual gets targeted.
     Many of the thinkers and the academicians working in casualty investigation field suggest that the better and more humane solutions to the challenge of Complacency are by creating positive habits in the people. Thus, often times operational rules are created, such a drawing a line where any person having overstepped the line is said to have acquired wrong habit and put for a habit correction. This is a stage of preventive measure which is put in place much earlier than when accidents happen. 'Safe work practices' is a detailed set of those habits which are meant to overcome the challenges which Complacency may create. It should be noted that Safe Work Practise is not aimed to eradicate the Complacency itself, but only to avoid the possibility of accidents which Complacency can lead a human being into.
    A famous shipboard, computer based training company for seafarers, Videotel Inc , has actively advocated the above view on Complacency. It proceeds to train the sea farers of Behavior-based safety, therefore.
   Over-confidence, too, cannot have a retributive solution. Over confidence is sought to be resolved by way of filling up worksheets of Risk Assessment, whereby a person may pause up and think within himself the probability and the consequences of the risky job he is about to undertake.
     Unfortunately, the sea piloting group is far removed from these widely taught views and works rather arbitrarily to solve those causes which it has chosen at its whims to call as a problem.
  
     Elephanta Island is a world renowned tourism destination and it is sheer good luck this time that the incident of agrounding did not blow into an accident by having a follow through of devastating impacts.
   I hold it that rest-deprivation was the leading cause of the incident. But the unfair investigation principles seem to arrive at some other conclusion and the follow-up corrective action is more worrisome.

अरुंधति रॉय भी इसे ब्राह्मणवाद मानती है

लालू प्रसाद अकेले नहीं हैं भाजपा और आरएसएस की राजनीति को ब्राह्मणवाद का आरोप लगाने में।

भई कब तक पंडित जी की भावनाओं से तय किया जाता रहेगा कि क्या सही है और क्या गलत है ?  भक्त गण, जो की अधिकांशतः पंडितजी लोगों का ही जमावड़ा है, वह pervert लॉजिक को मानता है। यानि सब कुछ उल्टा-पुल्टा है। वह केजरीवाल के लोकल ट्रेन यात्रा को ड्रामा और जनता को असुविधा बोलता है, जबकि मोदी की यात्रा को एक नयी शुरुआत, vvip कल्चर का खात्मा , और एक नयी प्रेरणा बोलता है।
    कोई स्थिर पैमाने नहीं है भक्तगणों के। यह व्यवहार सामाजिक न्याय के विरुद्ध है। इससे स्वतः सामाजिक न्याय की मांग रखने वाली लॉबी, यानि sc, st और obc वर्ग को ब्राह्मणवाद की याद आ जाती है जब इंसानों के एक वर्ग को तो खुद ब्रह्मा की संतान कह दिया गया, और दूसरे वर्ग को इंसानी जीवन से भी निम्म श्रेणी में कर दिया गया।
   फिर इसके आगे भाजपा और आरएसएस आरक्षण नीति के विरोधी भी बन गए। साथ ही में वह लोग प्राचीन भारत की ऋषि मुनियों की अघोषित उप्लधियां, जैसे वायुयान का निर्माण, अंतरिक्ष यात्रा, चिकित्सा, गणित में कैल्कुलस, गुरुत्वाकर्षण, जैसे पर अपना अधिकार ज़माने लगे। कुल मिला कर के भाजपा और आरएसएस आधुनिकता और वास्तविक विज्ञानं के तो विरोधी बने है, समाज की जागरूकता और सामाजिक न्याय के विरोधी बन गए। ऊपर से सेकुलरिज्म का विरोध जम कर के करते है। यानी, वर्तमान बहु सांस्कृतिक समाज में उस विचार के विरोधी भी बन गए हैं जिससे किसी भी बहुमत निर्णय  या न्याय को प्राप्त किया जा सके। सेकुलरिज्म का सम्बन्ध वैज्ञानिकता है। वैज्ञानिक और तकनीकी विशेषज्ञता के आधार पर ही सर्वसम्मत निर्णय किये जा सकते है जो की तमाम समुदायों को स्वीकृत हो। मगर भाजपा और उसका पैतृक संघटन, आरएसएस, इस सांस्कृतिक विचारधार जिसको सेकुलरिज्म कहा जाता है, उसके भी विरोधी बन गए है।
    तो भाजपा और आरएसएस वास्तव में देश में सामाजिक न्याय और विकास के अवरोधक बन कर उभरे है। समस्या जातवाद नहीं है, समस्या ब्राह्मणवाद है जो की आधुनिकता के तमाम सुधारों को अवरोधित करने के षड्यंत्र कर रहे है , कभी हिंदुत्व के नाम पर और कभी राष्ट्रवाद के नाम पर।

अरुंधति रॉय भी इसे ब्राह्मणवाद मानती है

भई कब तक पंडित जी की भावनाओं से तय किया जाता रहेगा कि क्या सही है और क्या गलत है ?  भक्त गण, जो की अधिकांशतः पंडितजी लोगों का ही जमावड़ा है, वह pervert लॉजिक को मानता है। यानि सब कुछ उल्टा-पुल्टा है। वह केजरीवाल के लोकल ट्रेन यात्रा को ड्रामा और जनता को असुविधा बोलता है, जबकि मोदी की यात्रा को एक नयी शुरुआत, vvip कल्चर का खात्मा , और एक नयी प्रेरणा बोलता है।
    कोई स्थिर पैमाने नहीं है भक्तगणों के। यह व्यवहार सामाजिक न्याय के विरुद्ध है। इससे स्वतः सामाजिक न्याय की मांग रखने वाली लॉबी, यानि sc, st और obc वर्ग को ब्राह्मणवाद की याद आ जाती है जब इंसानों के एक वर्ग को तो खुद ब्रह्मा की संतान कह दिया गया, और दूसरे वर्ग को इंसानी जीवन से भी निम्म श्रेणी में कर दिया गया।
   फिर इसके आगे भाजपा और आरएसएस आरक्षण नीति के विरोधी भी बन गए। साथ ही में वह लोग प्राचीन भारत की ऋषि मुनियों की अघोषित उप्लधियां, जैसे वायुयान का निर्माण, अंतरिक्ष यात्रा, चिकित्सा, गणित में कैल्कुलस, गुरुत्वाकर्षण, जैसे पर अपना अधिकार ज़माने लगे। कुल मिला कर के भाजपा और आरएसएस आधुनिकता और वास्तविक विज्ञानं के तो विरोधी बने है, समाज की जागरूकता और सामाजिक न्याय के विरोधी बन गए। ऊपर से सेकुलरिज्म का विरोध जम कर के करते है। यानी, वर्तमान बहु सांस्कृतिक समाज में उस विचार के विरोधी भी बन गए हैं जिससे किसी भी बहुमत निर्णय  या न्याय को प्राप्त किया जा सके। सेकुलरिज्म का सम्बन्ध वैज्ञानिकता है। वैज्ञानिक और तकनीकी विशेषज्ञता के आधार पर ही सर्वसम्मत निर्णय किये जा सकते है जो की तमाम समुदायों को स्वीकृत हो। मगर भाजपा और उसका पैतृक संघटन, आरएसएस, इस सांस्कृतिक विचारधार जिसको सेकुलरिज्म कहा जाता है, उसके भी विरोधी बन गए है।
    तो भाजपा और आरएसएस वास्तव में देश में सामाजिक न्याय और विकास के अवरोधक बन कर उभरे है। समस्या जातवाद नहीं है, समस्या ब्राह्मणवाद है जो की आधुनिकता के तमाम सुधारों को अवरोधित करने के षड्यंत्र कर रहे है , कभी हिंदुत्व के नाम पर और कभी राष्ट्रवाद के नाम पर।

एक देश को राष्ट्र समझने के भ्रम से ग्रस्त है भाजपा और आरएसएस।

पशु जगत में बहोत सारे जीव अपना एक वर्चस्व क्षेत्र बनाते हैं और उसे सीमाबद्ध करते है अपने खारों के निशान बना कर या मूत्र गंधक छोड़ कर । इस क्षेत्र में खपत का प्रथम अधिकार उनका होता है। वहां की मादाएं और भोजन स्रोतों पर वह एकाधिकार रखते है। अपने क्षेत्र की रक्षा के लिए वह आपस में जीवन नाशक युद्ध प्रतिस्पर्धा भी करते है।
    सवाल यह है कि क्या आप इस व्यवहार को राष्ट्र निर्माण मानेंगे ?
   क्या इस प्रकार का वर्चस्व क्षेत्र, यानी एक देश या फिर "इलाका", एक राष्ट्र माना जा सकता है? यदि नहीं तो फिर एक देश और एक राष्ट्र में क्या अंतर होता है ?
    भाजपा और आरएसएस कुछ pervert लोगों का जमावड़ बन कर उभरा है। हिंसा और सैन्य जीवन शैली को उत्तम समझने वाली मानसिकता सुनने में बहोत शौर्यवान, गौरव शैली भले ही लगे मगर वास्तव में एक देश में से एक राष्ट्र के निर्माण का सबसे बड़ी बाधा यही मानसिकता है।
   राष्ट्र एक मानवीय बौद्धिकता का उत्पाद है। भले ही कोई ऐसा डायलाग सुनने में अधिक प्रभावशाली लगे की "जब कोई सैनिक अस्सी हज़ार फिट की उचाईंयों पर अपनी हड्डियां गला कर जान देकर देश की रक्षा करता है, तब जा कर हमें बौद्धिजीवी बनने की सहूलियत मिलती है", मगर राष्ट्र वाद के सिद्धांतों से सोचें तो सच यही है की एक देश में से एक राष्ट्र को निर्मित करने में बौद्धिकता ही उपयोग आती है।
   राष्ट्रवाद के सिद्धांतों में एक देश में से एक राष्ट्र कुछ यूँ बनते हैं :-जब मनुष्य आपसी विवादों को पार लगा कर शान्ति से सह अस्तित्व के लिए तैयार हो जाता है, जब किसी एक देश में जनता के बीच आपसी मतभेद के आमतौर पर पाये गए कारण - भाषा, संस्कृति, आस्थाएं, -समाप्त हो जाती है, और वह शांति से , सहअस्तित्व करते हुए आपसी परमार्थ के लिए कार्य करने लगते हैं, समृद्धि लाते हैं तब वह देश एक राष्ट्र बन जाता है।
     भाजपा और आरएसएस की गलती यह है कि वह राष्ट्र को वर्चस्व क्षेत्र की परिभाषा तक ही समझती आई हैं। जबकि राष्ट्रवाद के सिद्धांतों से यह स्पष्ट है कि वर्चस्व क्षेत्र तो मात्र बुनियादी आवश्यकता ही है। किसी वर्चस्व क्षेत्र में से मात्र एक देश बनता है। राष्ट्र बनाने के लिए नागरिक बनाने पड़ते है, सभ्य और मानववादी।
    सरल उपमान में समझे तो देश और राष्ट्र में वही अंतर है जो एक मकान और एक घर में होता है। मकान ईंट-चुना से बनता है किसी जमीन पर, मगर मकान से घर बनाने के लिए जज़्बात, यानि भावनाएं और संवेदनशीलता लगती है। सैनिक का बलिदान उस मकान और भूमि की रक्षा करता है,मगर संविधान और प्रशासन का न्याय-नियम मकान में भावनाओं और संवेदनशीलता को संरक्षित करके उस मकान में घर बसाता है।
    देश की रक्षा बाहरी आक्रमणों से करी जाती है, जबकि राष्ट्र का निर्माण अंदर से निरंतर करना होता है।सैनिक का कर्तव्य है अपना बलिदान देकर देश की रक्षा करना। राष्ट्र निर्माण का कार्य तो शासकीय संस्थाओं और न्यायपालिकाओं को करना होता है।
    यदि राष्ट्र निर्माण का कार्य बंधित बना रहेगा, तब फिर "देश" को उसके व्यापारी उसके प्राकृतिक और मानवीय संसाधनों का खपतवाद, उपभोग, शोषण और भक्षण करते रहेंगे, ठीक वैसे जैसे कोई पशु अपने वर्चस्व क्षेत्र का भोग करता है। "राष्ट्र" समृद्धि लाते है, मानवजीवन , पशु ,वन्यजीव, वनस्पति और वन के बीच संतुलन रखते है क्योंकि आपसी आवश्यकताओं में यही सब चाहिए होता है। "देश" में शासन व्यापारिक मानसिकता, लाभ-और-हानि से चलता है, जबकि "राष्ट्र" में शासन संविधान और न्याय से चलता है।
    आप भाजपा और आरएसएस को निरंतर सैन्यवादि व्यवहार को देखेंगे। वह सैनिकी दुःख में बड़ चढ़ कर शरीक होते हैं। मगर नागरिकीय हिंसा, दंगे फसाद , प्रशासन के दुष्ट आचरणों के प्रति उदासीन रवैया रखते हैं। मूलतः यह लोग देशवाद को प्रसारित कर रहे हैं, और उसे ही राष्ट्रवाद समझने के भ्रम से पीड़ित हैं।
   

RSS and BJP are house of pervert people

RSS and BJP are house of pervert people.
     It is not hypocrisy. It is something above that. It's perversity.
   Dogs, lions, and many other mammals go around putting scratch marks or urine marks in an area to demarcate their territory. That does not mean that such a Territory is a Nation !!
  The Nation state theory says that a Nation is a territory where  people have enough commonality between them (of language, culture beliefs), so to eliminate all possible fuels for  ignition. Then, the people live in peace and work for a common and mutual good, to bring about prosperity in their territory. That is how a nation is formed.
   Most certainly, the animals don't do all of these intellectual reasoning to transform their territory into a Nation.
   But surely, the need for protection of the territory from all other animal kinds who are barbaric and uncivilized is most fundamental to making a nation.
    The perversity of BJP and RSS is that they have regularly in their history and culture outweighed the need of protection of the territory (especially from Pakistan) over the duty to cultivate and duty to promote civil behavior among the people.
   Undeniably, a martyred soldier is supposed to be honoured because he sacrificed his life for the first foundational necessity by which a nation is created. But the BJP and RSS have failed afterwards from that. For building a nation, police and administration have to be reformed for public good. Akhlaq episode in Dadri was an event where mob behavior came to fore. It showed to us that we still don't have enough commonality amongst us; we have differences, the fuels of ignition which continue to gush out like geysers on earth.
   To that,the BJP and the RSS deliberately chose not to pay any attention, and now seeks redemption by professing the act of giving tribute to a martyr soldier as superior to giving condolences over that act of savagery which has put bullets through the very idea of a nation hood.
   Similarly, the BJP and the RSS refuse to acknowledge that the deepest divide in our society , from ages and aeon, has emerged from casteism. The wealth and the knowledge have remained unevenly distributed over our population in accordance with their perceived social origins. For corrections (and not Reformation) of such disparity, the world over nations have adopted affirmative action policy each modified to their individual needs. India too has brought Reservation-in-jobs in the same beliefs. Astonishingly, or rather not, the BJP and the RSS have regularly stood opposed to this corrective action. Until the fear of Bihar debacle forced them to speak otherwise.
    The BJP and the RSS have also been a regular opponent of the Socio-cultural movement described as the Secularism. Indeed Secularism has been the common outcome of a global outrage against the tyranny of the dark ages that humanity has suffered. The dark age of ignorance exploited the instinctive beliefs found in the mankind to make a certain section of human a master and owner of the the lives of the remaining inferior humans. Secularism is key to the peaceful resolution of many of our Socio-religious-cultural differences,  those big fuel sources which are running uncheck in our society.
    As the days Renaissance came upon humanity , secularism became the cultural thought. BJP and the RSS have always opposed the idea , as if to proclaim that we need to take our country back into the dark ages, where sadhu-munny did space travels, aeroplanes went on inter galactic flights and moved backwards too, where dhanvantri could cure any disease by yoga and jadi-booti ayruveda.
          Speaking the summary  of it all, the BJP and the RSS are opposed those corrective measures of this day and times which may eradicate the errors of our past; and at the same time they want to take our country and our society on those same roads of ignorant beliefs and myths, traveling on which the humanity had previously landed into the dark ages.What a pervert behavior this all is !

        These choice and the policy stands of the BJP and the RSS of the most foundation errors, filled with pervert ideologies which are probably the first reason why India is failing to become a Nation even after so many decades of gaining political Independence.

क्यों मोदी सरकार और आरएसएस का यह प्रयोग असफल हो जायेगा ?

मुझे लगता है की कांग्रेस वापस आ रही है...भाजपा और मोदी जी इस गणित में पूरी तरह हार गए हैं। मेरी गणना में 2019 चुनाव तो क्या 2024 में भी कोंग्रेस का आना तय है। मोहन भागवत और नरेंद्र मोदी बदस्तूर चालू रहे, बस।

   यह देश छोटे छोटे वर्गों में बंटा है। कई सारी छोटी क्षेत्रीय पार्टियां इस पर राज करती हैं। उन छोटी पार्टियों में ज्यादा कुछ एक दूसरे से सम्बन्ध बनाने के लिए common नहीं है। और जो कुछ है, वह कांग्रेस ही संभाल सकती है । दो सबसे बड़ी वोट कुञ्ज हैं
1) मुसलमानो को सुख शांति और भागीदारी
2) आरक्षित और पिछड़ा वर्ग को हिस्सेदारी।

भाजपा ने दोनों पर ही आत्म घात कर लिया है
1) मुस्लमान विरोधी है
2) आरक्षण विरोधी है।
यानि की भाजपा ने अपने ही गोल में गोल दाग दिए हैं। हिट विकेट आउट हो गयी है।

मोदी और भाजपा की सरकार ने यह सबक लेने में बहोत देर लगा दी है। मोदी शासन में आरएसएस की छवि एक जाति ब्राह्मणवादी संस्था के रूप में तो स्थापित हुई ही है, जो की माड़वाड़ियों और बनियों के समर्थन में एक दम निर्लज है। धूर्तता , यानि अस्थिर न्यायायिक मापदंड का गुण हमेशा से जाति वादी ब्राह्मणों और बनियों/माड़वाड़ियों यानि धंधेबाज़ों का माना जाता है। लालू का कुशासन था, मगर धूर्तता नहीं थी। यहाँ मोदी में वह गुण है। न ऐसे ब्राह्मण को समाज में सम्मान के योग्य है, और न ही ऐसे व्यापारी समाज के लिए हितकारी, राष्ट्र निर्माण के सहयोगी।  तो कोंग्रेस और लालू का उत्थान तय है क्योंकि यह धूर्त नहीं है। कोंग्रेस ने धूर्तता से त्रस्त वर्ग को हमेशा उच्च स्थान दिया था और करीब करीब सब ओहदों तक पहुचाया। सर्वोच्च न्यायाधीश से लेकर राष्ट्रपति भवन तक। और यही मुसलमानो के साथ किया। इसके दौरान उसने भ्रष्टाचार को पनपे दिया क्योंकि यही वह भोजन है जो की विखंडित वर्ग आपस में मिल कर खाने को तैयार हैं, वरना वहां कुछ भी common नहीं हैं।
भाजपा और मोदी ने भ्रष्टाचार का विरोध की छवि बनायीं, मगर असल में व्यापारी वर्ग के सेल्समेन बन कर रह गए। न भ्रष्टाचार पर लगाम लगी, उलटे हिंदूवादी हो गए, और आरक्षण विरोधी भी । यानी आम भाषा में बोले तो, "भाजपा ने किया क्या, मोदी शासन में ??"। जी हाँ, मोदी चाहे जो उपलब्धि गिनाते रहे, वोट कुञ्ज वर्ग में असल में भाजपा और मोदी ने अपने अभी तक के देढ़ साल से ऊपर के शासन में "कुछ नहीं" किया है।
कृष्ण भाई, आप समझ रहे हो न 'कुछ नहीं' का अभिप्राय ? यानि की भाजपा और मोदी हो गए total फ़ैल।

कोंग्रेस की दृष्टि से आनंद की बात यह थी की यह रिलायंस और अडानी तब भी खा रहे थे, और आज भी खा रहे हैं। यानी भ्रष्टाचार का भोजन उसके काल में सभी वर्गो को मिल रहा था। अब धूर्त काल मोदी युग में यह सीमित हो कर सिर्फ रिलायंस और अम्बानी अडानी को ही मिल रहा है। मोदी ने rti पर अलिखित शिकंजा कस दिया है। और मौखिक तौर पर उसके समर्थन में हैं। बस उनकी धूर्तता पकड़ी गयी है। अब और कुछ तो साबित करना ही नहीं है।
    एक अकेला आदमी जिसपर सब नज़ारे टिकाये थी की यही शायद मोदी के युग में अच्छे दिन लाएगा वह था सुब्रमनियम स्वामी। वही 2g और 3g घोटाले में पी चिदंबरम को किस मुकाम तक ले गया की मनमोहन सरकार हिल गयी। मोदी ने उसे वित्त मंत्री नहीं बनाया। असल में वास्तविक अर्थशास्त्री वही था, यहाँ तक की iit delhi और horward में वह प्रोफेसर तक रहा है। वित्त मंत्री अरुण जैटली को बना दिया जो की जीवन भर कॉर्पोर्टेस का वकील था। बस, मोदी ने आत्म घात करना आरम्भ कर दिया। कोंग्रेस बैठ कर हंसने लगी है, और टकटकी लगाये है की अब मोदी अपनी राजनैतिक जी लीला खुद खत्म करेंगे। उसके बाद के वैक्यूम में वह खुद ब खुद आ जायेगी।
   उधर केजरीवाल की मज़बूरी और कमी यह है की वह धन संपन्न नहीं है। और साथ ही सौरभ भाई जैसे घाघ, धूर्तता के प्रचारक भी बहुसंख्या में है देश में । वह लाख केजरीवाल को भ्रष्टाचारी साबित कर दें, मगर जनहित मंशा में धूर्तता में नहीं पकड़वा पाएंगे। याद रहे की जनता अपना प्रशासनिक हित हर युग और हर देश में पहचानती है। वह लाख गन्दी, अशिक्षित और बेवक़ूफ़ हो, मगर कुल मिला कर धूर्तता को भेद सकने में सक्षम होती है। तो केजरीवाल जम जायेंगे, मगर विस्तार नहीं कर पायेंगे। सभी वर्गो को यह व्यवस्था भी जमेगी। आखिर कर दिल्ली और मुम्बई जाने के प्रति जो गरीबों में छवि होती है, केजरीवाल उसे साकार ही करेंगे, भले ही पूरे देश में वह सुशासन न ला पाये। यह अरेंजमेंट चलेगा। आशा के दीप जलेंगे की शायद कोंग्रेस वाली केंद्र सरकार केजरीवाल से प्रतियोगिता प्रतिद्वंदिता में शायद देश भर में उसके बनाये नमूनों को पीछे चल कर ला सके।
  कुल मिला कर केजरीवाल मॉडल चल निकलेगा कुछ ख़ास और शायद शहरी , महानगरीय क्षेत्रों के लिये। भाजपा न घर की रहेगी, न घाट की। यानि, न शहर की, और न ही गाँव की। वह गौमांस और आरक्षण विरोध में आत्म घात कर गुज़रेगी।

कोंग्रेस की सफलता को सौरभ भाई जैसे घाघ और घूर्त प्रवृत्ति की आबादी सुनिश्चित करेगी, देखने में वह लोग भले ही भाजपा के समर्थक दिखें।
        अच्छा , कृष्ण भाई, अगर हम ऊपर लिखे सिद्धांत से सोचे तो समझ में आएगा की क्यों लालू प्रसाद का पतन कोंग्रेस के युग में आया, और क्यों लालू का उत्थान भाजपा के युग में आ रहा है। कारण यह है की ऊपर लिखे दो बड़े वोट कुञ्ज की गणित सर्वप्रथम देश में लालू प्रसाद ने ही पकड़ी थी। कोंग्रेस के युग में कोंग्रेस खुद दूसरा विकल्प बन कर लल्लू प्रसाद की गणित को फ़ैल कर देती है। मगर भाजपा के युग में भाजपा उस गणित में फैल हो गयी है और इसलिए लालू प्रसाद का उदय हो जायेगा। यानि एक बात और तय है-- देश की राजनाति का एक बहोत बड़ा गणितज़ लालू प्रसाद ही साबित जायेंगे। और यही सिद्धांत हमें आज कल मोदी सरकार और समाजवादी पार्टी की बढ़ती नज़दीकियों की कुछ झलक खोल कर देगा, शायद। भाजपा और नरेंद्र मोदी अंदर ही अंदर मुलायम सिंह को इस चुनावी वोट कुञ्ज सिद्धांत में उपयोगी समझ गयी है, और उसे पटाने के लिए कोशिश करेगी।
   यानि सौरभ भाई का उत्तर प्रदेश वाला दर्द बढ़ने वाला है, घटेगा नहीं। 😂

एक बात और,
भ्रष्टाचार के तार हमारे देश में जातिवाद और मुस्लमान तुष्टिकरण से कैसे जुड़े हुए है...इस बात पर गौर करें। ऊपर लिखे सिद्धांत में यह दिख जायेगा। भ्रष्टाचार को न मुस्लमान चाहता है, और न ही पिछड़ा या आरक्षित वर्ग। भ्रष्टाचार का लाभार्थी है पूंजीवादी वर्ग और राजनेता। छोटा , सरकारी पेशेवर लोगों वाला भ्रष्टाचार समस्या है ही नहीं। मूर्खदास मोदी उसे ही समस्या समझे पड़े हैं। वास्तव में सरकारी आफिस का भ्रष्टाचार तो दर्द तब देता है जब पैसा खिला कर भी काम न हो, और complain करने पर कार्यवाही भी न हो। आदमी को खलता तब है जब पैसा तो हाथ से गया ही, काम भी न हो। मुम्बई की कैम्प कोला बिल्डिंग के प्रकरण में मुझे यह अंश और सिद्धांत दिखाई पड़े हैं। बिल्डिंग निवासियों को शुरू से ही बिल्डिंग पर नियम उलंघन का मामला पता था। 1970 के युग में उन्होंने तब भी वहां घर खरीदे थे। दो कारणों से।
1) घर की आवश्यकता और मज़बूरी थी।
2) उन्हें देश में व्याप्त भ्रष्टाचार में यक़ीन था !!!! कि भ्रष्टाचार उनकी बिल्डिंग को बचा ही लेगा। मगर वह मुकद्दमा हार गए। मगर फिर राजनैतिक भ्रष्टाचार ने उन्हें बचाया, जो की सरकारी भ्रष्टाचार असफल हो गया था।
   सरकारी भ्रष्टाचार का बड़ा संरक्षक है राजनैतिक भ्रष्टाचार।
राजनैतिक भ्रष्टाचार होता है नेता और पूंजीवादी की मिली भगत में। सरकारी कर्मचारी इसे पकड़ने के लिए कर्तव्य बद्ध होता है। मगर वह भ्रष्टाचार करके उसे होने देता है, बदले में अपना हिस्सा लेता है, और बाकी सरकारी मुलाज़िमो के लिए सरकारी भ्रष्टाचार करने की छूट निकलवाता है राजनेताओं से।
   तो दोनों भ्रष्टाचारों की symbiotic रिश्तेदारी यूं बंधी है।
यहाँ जनता को डंडा चलाने का मौका देती है जनहित याचिका और सूचना का अधिकार। मज़े की बात है की यह दोनों भी कांग्रेस ही लायी थी। भाजपा के राज्यों में तो rti कार्यकर्ताओं की हत्या हो रही है, pil को ख़ारिज किया जाता है। न्यायपालिका में घुसपैठ करवाई गयी है।
   मोदी युग में ब्यूरोक्रेसी को pmo ने कड़ा नियंत्रण पर रखा है। काफी सारे बड़े पद के ब्यूरोक्रेट को निकाल दिया गया है। विदेश सचिव सुजाता सिंह, और iit mumbai प्रमुख। अब आप सोचेगे की pmo अच्छा काम कर रहा है ब्यूरोक्रेसी को बाँध कर। मैं कहूँगा की वह भ्रष्टाचार के symbiotic रिश्तेदारी को तोड़ रहा है सिर्फ अपने लोगों तक अवैध फायदा सीमित रखने के लिए। सरकारी पेशेवरों का बड़ा वर्ग भाजपा और मोदी से नाराज़ है। मोदी सूधार नहीं कर रहा है, बल्कि फायेदे के बंटवारे में हिस्सेदारी समेट रहा है।

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