आखिर क्या गड़बड़ है बीमारू राज्यों की छात्र राजनीति में

ये शायद उत्तर प्रदेश, बिहार , पश्चिम बंगाल जैसे बीमारू राज्य ही है जहाँ की घटिया, आपराधिक राजनीति समूची देश की जनता को प्रेरित करती है JNU मामले में यह कहने के लिए की छात्रों को राजनीति में नही, class room में होना चाहिए।
अन्यथा तो राजनीति जिन प्रक्रिया से जन्म लेती है - वह प्रक्रिया तो छात्र जीवन का सबसे महत्वपूर्ण अंश होता है क्योंकि ज्ञान की तलाश और मूल उत्पत्ति भी वही से होती है -- जिस वजहों से राजनीति और छात्रों के बीच एक अकाट्य संबंध होता है।
वह प्रक्रिया है - मंथन ।

मगर बड़ी ज्ञान की बात है कि मंथन के कई प्रकार होते है, जिसमे कि JNU और यह बीमारू राज्य एक दूसरे से भिन्न है। शायद आम आदमी, जनता इस बारीकी को नही समझती है, और वह सीधे सीधे उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल जैसे राज्यों की छात्र राजनीति, अपराध औऱ यौन शोषण को जानते-समझते हुए यही प्रस्ताव लेती है कि छात्रों को तो राजनीति में आना ही नही चाहिए। जबकि मंथन प्रक्रिया के तमाम पहलुओं में मद्देनज़र यह तो असंभव विचार है। खुद भाजपा के ही दिग्गज़ नेता दिल्ली विश्वविद्यालय की छात्र राजनीति की देन थे और है। सूची में बड़े नाम हैं, जैसे स्व. अरुण जेटली, स्व. सुषमा स्वराज इत्यादि।

तो सवाल है कि उत्त्तर प्रदेश, बिहार ,पश्चिम बंगाल की छात्र राजनीति में क्या गड़बड़ है?
गौर से देखै तो वास्तव में मंथन कई किस्म के होते हैं। अंग्रेज़ी भाषा मे इन किस्म की पहचान पहले ही करि गयी है, और अलग अलग शब्द दिए गए है - debate, dialectic, sophistry, polemics, rhetoric, इत्यादि।  बीमारू राज्यों की शिक्षा पद्धति कमज़ोर है, छात्रों की और अध्यापकों की विद्धवानता पर्याप्त नही है, वह debate , या dialectics जैसे मान्य किस्म में नही होते हैं। आखिर नीति निर्माण की बहस के प्रबल तर्क तो इन्हीं दोनों किस्म से  शोध किये जाते हैं। और फिर किसी भी प्रजातंत्र व्यवस्था के दो सर्वोच्च संस्थाएं तर्क करने के लिए ही निर्माण करि जाती हैं - संसद और न्यायालय।

मगर sophistry , polemics (हिंदी अनुवाद  तू-तू-मैं-मैं) , जो सब कुतर्क वाले अमान्य प्रकार होते मंथन के, वह ही इन बीमारू राज्यों के छात्र नेताओं को जन्म देते हैं। आप इन  राज्यों के युवा या छात्र नेताओं को कभी भी , सर्वप्रथम तो, तर्क करते दिखेंगे ही नही। अन्यथा वह अगर मुँह खोलेंगे तो भी इन अमान्य, कुतर्क वाले के प्रकारों में लिप्त पाएंगे।

आप ख़ुद से पड़ताल कर लें। बीमारू राज्यों के किसी वही युवा नेता के सोशल मीडिया profile और posts को देखें। ज्यादातर पोस्ट किसी ख़ास वर्ग की मिलेंगी, जिसकी समीक्षा करके आप उनके बौद्धिक अवस्था का अंदाज़ा लगा सकते है। तमाम posts के वर्ग में जो post होंगी वह है - किसी की मृत्यु के अफ़सोस जताने की, किसी त्योहार की बधाई, किसी दिवंगत महापुरष की स्मृति में शत-शत नमन करने वाली, और विपक्ष के कृत्यों पर कुछ छोटे मोटे अफ़सोस जताने भर,  जिसमे मानो की उन्हों खुद कोई पीड़ा या कष्ट नही था, वह तो मात्र हमदर्दी रखते हैं। आप इनको किसी भी controversial विचार को रखने से कतराते हुए आसानी से देख सकते हैं। बहोत होगा तो कुछ ताथयिक घटना का वर्णन कर देंगे, जैसे 'आज हमने फलां जगह उपस्थिति दी"। कोई समीक्षा, कोई विश्लेषण तो यह लोग कतई भी नही करेंगे।और हाँ, अपनी पार्टी के नेता से सम्बंधित हर पोस्ट में उसकी प्रशंसा और गुणगान करने अनिवार्य है, आलोचना नही कर सकते, भले ही मुंह बंद करके चुप्पी रख लें।

यह सब बीमारू राज्यों के छात्र नेता हैं। इनमे मजबूत तर्क देने की काबलियत जाहिर तौर पर नही होती है।क्योंकि इनके पास तर्क नही है। क्योंकि यह debate करने लायक बौद्धिक विकास को प्राप्त नही किया है।

इनका खुद का इतिहास छात्र जीवन मे अपराघी या हिंसक घटनाओं को अंजाम देने से ही आरम्भ होता है, जहां इनकी छवि दबंग गुंडे वाली बनती हो, जिससे कि वोट वसूल सकने की गंध मिले।

यह होती है बीमारू राज्यों की छात्र राजनीति।

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