'प्रमाण के नियम' का सामान्य ज्ञान
जीवन में 'प्रमाण के नियम' (laws of evidencing ) को समझना बहोत जरूरी होता है / आये दिन के निर्णयों में तथ्यों और आकड़ो की संतुलित समीक्षा के लिए यह जानना जरूरी है की क्या तथ्य है, क्या विश्वास है, क्या आरोप है, क्या विश्वास करने का तथ्य है , इत्यादि/ विश्वास और 'विश्वास करता है का तथ्य ' दो अलग अलग बातें हैं/ प्रमाण की नियमो के बिना इंसान शंका, अनिश्चितता , भ्रम, अनंतता के विचारों में उलझ जाता है / वैसे तथ्यों की तथ्यों से भ्रमित करने की गणित भी इंसान ने आज़ाद कर ली है , जिसे हम सांख्यकी (स्टेटिस्टिक्स , statistics ) कह कर बुलाते हैं / तो भ्रमित करने के संसाधन बढ़ते जा रहे हैं, और दुविधा सुलझाने का ज्ञान दुर्लभ हो रहा है / प्रमाण के नियम को सर्वप्रथम तीसरी शताब्दी एं एक भारतीय ऋषि , अक्षपाद गौतम , द्वारा रचा गया था/ पश्चिम में भी करीब करीब इसी स्तर के प्रमाण के नियम का विकास हुआ / यह नियम प्राकृतिक समझ के आधार पर बनाये गयें है , और इनमे आपके भक्ति मान विश्वासों और आस्था को स्थान नहीं दिया गया है/ यानि आप किसी भी संप्रदाय से हो , यदि प्रकृति की कार्यवावस्था की समझ रखते हो तो अंततः आप खुद भी प्रमाण की जिस नियमो को स्वीकार करेंगे वह यही हैं ।
समालोचनात्मक विचारसिद्धि (Critical Thinking) में प्रमाण की नियमो को जानना या स्वयं से ही विक्सित कर लेना आवश्यक है / भारत में माता-पिता अपनी संतानों के द्वारा अपनी अधूरी चाहते पूरा करने के लिए बदनाम रहे है / शादी कहाँ करनी है, कहाँ किस स्कूल में शिक्षा लेनी है, क्या-क्या विषय पढ़ने है , कब कितने बजे से पढाई करनी है , कपडे कैसे और कौन कौन से पहने है , इत्यादि / असल में इन सब निर्णयों में वह बच्चों को स्वयं से निर्णय लेने की समझ का विकास करवाना भूल जातें है / गलत-सही, निर्णय लेने की समझ का विकास ऐसी ही अनुभव द्वारा स्वयं विक्सित करना होता है / इन सब निर्णयों में कही न कहीं कभी हर एक को प्रमाण के नियम की समझ की ज़रुरत आन पड़ती है /
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