भेदभाव आचरण को प्रमाणित कर सकने की न्यायिक मुश्किलें

कानून और तर्क के पेचिंदियों में सही-गलत को साबित करना आसान है, मगर भेदभाव को साबित करना बहोत मुश्किल होता है। गलत वह है जिसके लिए सीधे और स्पष्ट , परिभाषा वाले कानून मिल जायेंगे। मगर भेदभाव को करने के अनगिनत तरीके होते हैं और उसे जायज़ साबित करने के अनेकों तर्कपूर्ण बहाने मिल जाते हैं। इसलिए भेदभाव के आरोपों को न्यायलय में साबित करना बहोत मुश्किल होता है।
   भेदभाव , यानि unfariness, के अभियोग अक्सर करके श्रमिक कानून(labour laws) के क्षेत्र में उत्पन्न होते हैं। हालाँकि याद कदा ऐसे आरोप किसी व्यापारिक प्रतिस्पर्धा (business competition) के क्षेत्र में भी उत्पन्न हो सकते हैं।
   भेदभाव के आरोप को साबित करने में एक बड़ी तार्किक मुश्किल यह होती है की इसमें कोई भी सीधा प्रमाण (direct evidence) नहीं मिलता है। जाहिर है,क्योंकि भेदभाव करने वाला पक्ष कोई लिखित सबूत नहीं छोड़ना चाहेगा की वह किसी खास व्यक्ति को निशाना बना कर कोई कार्यवाही कर रहा है। इसलिए अब मजबूरन भेदभाव को हालात के सबूत , परिस्थिति जन्य सबूतों (circumstantial evidence) के बिनाह पर ही साबित करने का प्रयास करना पड़ता है। ऐसे में कोर्ट, न्यायधीश की व्यक्तिगत संवेदना, और उस क्षेत्र के तकनीकी विशेषज्ञों पर बहोत कुछ निर्भर करने लगता है की वह किन परिस्थितियों को भेदभाव आचरण मानते हैं, और किन परिस्थितयों के 'बहनों' को 'वैध आचरण' मानते हैं।
    भेदभाव आरोप के अभियोग में बड़ी मुश्किल तो यह भी होती है की तर्क और विधान की पेचिदियों को नहीं समझने के वजह से लोग अकसर यही साबित कर देते हैं की भेदभाव नाम की कोई आचरण होता ही नहीं है, बजाये यह साबित करने के की भेदभाव नहीं हुआ है। भेदभाव को साबित करने के लिए श्रमिक को तुलनात्मक आधार(comparative basis) की ज़रुरत पड़ती है। उसे इसके लिए data चाहिए होता है जिससे वह तुलना कर सके की उसको दिया कार्य या वेतन दूसरे अन्य सहयोगियों के मुकाबले कितना कम या कितना भिन्न है। एक मुश्किल यह है की छोटे और जायज़ परिवर्तन और अंतर तो प्रत्येक कार्यक्षेत्र में अक्सर आते ही रहते है। इसलिए यदि कोई श्रमिक मात्र एक घटना के आधार पर भेदभाव के आरोप लगाता है तो शायद वह इसे तकनीकी विशेषज्ञों की राय के मद्देनज़र इसे साबित नहीं कर पायेगा। भेदभाव को साबित करने के लिए दीर्घकालीन और कभी-कभी तो किसी खास लाभर्ती परिस्थिति में हुए अपमान को साबित करने की आवश्यकता पड़ जाती है। इसके लिए आरोप कर्ता को और अधिक ब्यौरे की ज़रुरत होती है, मगर जो की अकसार उसके पास उपलब्ध नहीं होते हैं।
    भेदभाव अक्सर करके किसी वैध कार्य पद्धतियों के मध्य अमान्य आचरण को छिपा कर किया जाता है। भेदभाव में वैध कार्य पद्धिति और अमान्य आचरण /चुनाव का मिश्रण किसी दूध-पानी के मिश्रण के कम जटिल नहीं होता, -- दोनों को पृथक कर सकना करीब-करीब असंभव होता है। इसलिए यदि कोई संस्था खुद अपनी तरफ से भेदभाव की पहचान/ रोकथाम के लिए आवश्यक नियमावली फेरबदल नहीं करे तो फिर भेदभाव को प्रमाणित कर सकना और अधिक मुश्किल बन जाता है।
   भेदभाव का प्रथम उदग्म संवेदना से होता है। भेदभाव को झेलने वाला व्यक्ति इसे महसूस करता है, मगर वह आरम्भ दौर में वह आशंकाओं से भरा होता है की वह जिस आचरण के प्रति संवेदना महसूस कर रहा है वह वाकई में है , या मात्र यह उसकी अत्यंत सम्वेदन प्रवृति ही है। फिर, वह कुछ काल तक इंचार्ज के आचरण निगरानी करता है कि क्या बार-बार, या की critical क्षणों में उसको जानबूझ कर नकार दिया जा रहा है। यानि casual कारणों के बहाने तौर पर उसको नज़रअंदाज़ किया जा रहा है , या किसी मान्य/ उचित casual कारणों  से। यही पर भेदभाव के पीड़ित की प्रथम तार्किक मुश्किलें आती है-- कि, उसको targeted (निशाना बद्ध) तौर पर नज़रअंदाज़ किया गया है, या की casual (आकस्मक) तौर पर। प्रत्येक क्षेत्र में ऐसे पल आते है जिसमे कुछ अल्प पद/कार्यों के लिए तमाम श्रमिकों में से किसी एक का चयन करना पड़ता है। अधिकांशतः, ऐसे में seniority को बिनाह बता कर यह चयन(selection) किये जाते है। मगर जब चयन किसी और बिनाह पर होता है, तब भेदभाव के लिए यह प्रक्रिया खुल जाती है। भेदभाव के अर्थ में दोनों ही आचरण आते है : favourtism और dislike । इंचार्ज यहाँ किसी ख़ास का पक्ष लेने के खातिर , या किसी के प्रति अपनी नापसंदगी जताने के खातिर भेदभाव कर सकता है।। चयन की प्रक्रिया के दौरान एक दौर निकल पड़ता है:  कारक और बहनों का - causation और excuses का । अब हालात दूध और पानी के मिश्रण तैयार हो चुके जैसे होते हैं। जैसे किसी मिश्रण में यह पता लगाना मुश्किल होता है की कहाँ दूध हैं और कहाँ पानी, वैसे ही इस परिस्थित में यह समझना मुश्किल हो जाता है की क्या उचित कारक है, और क्या एक बहाना।
     यहाँ पर अब न्यायलय को निष्पक्ष technical expert की राय की आवश्यकता पड़ती है। विशेषज्ञ ही बता सकते है की उस परिस्थिति में किन आचरणों को उचित कारण माना जा सकता है, और किन आचरणों को बहाना माना जाना चाहिए। तकनीकी विशषज्ञों की मुश्किल यह रहती है की प्रत्येक मनुष्य अलग अलग किस्म की प्रतिक्रिया करने के लिए स्वतंत्र होता है, इसलिए विशेषज्ञ मात्र उचित विकल्पों पर इशारा कर सकते हैं, उस इंचार्ज के उठाये कदमों को सही अथवा गलत नहीं कह सकते हैं।  अब यदि किसी संस्था ने पहले से ही भेदभाव के निपटारण के लिए कुछ नियमावली सार्वजनिक घोषणा करी हुई होती है, तब फिर इंचार्ज के तमाम विकल्पों में से चयन किये गए विकल्प पर भेदभाव के सवालों को खड़ा किया जा सकता है, अन्यथा फिर न्यायलय को मात्र भेदभाव की सम्भावना को ही प्रमाणित करके भेदभाव आरोप के औचित्य को तय करना पड़ता है। मगर मात्र सम्भावना के आधार पर भेदभाव करने वाले को सजा नहीं दी जा सकती है। इसलिए ऐसे में न्यायलय एक विशिष्ट अनुदान (specific relief) दे कर रह जाता है, कोई दंड नहीं दे सकता है। दंड दे सकने के लिए आवश्यक होता है कि संस्था के अपने नियम होने चाहिए भेदभाव के पहचान और रोकथाम के लिए ।
   

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