evm प्रकरण पर ताज़ा हालत और इसकी इतिहसिक पृष्टभूमि

Evm की कहानी को 1990 दशक के आरंभिक सालों से शुरू करते हैं। बिहार में लालू यादव की सरकार बनती थी तो आरोप लगते थे की booth capturing करके बन रही है। लालू की राजनीति जय प्रकाश आंदोलन के भीतर से निकली थी और आरक्षण नीति के इर्दगिर्द में थी। लालू चुनाव जीतने लगे तो जाहिर हैं कि उनके विरोधी सर्वणों ने आरोप जड़े की लालू बूथ capturing से जीते हैं। उनके कहने का आशय हुआ कि लालू के पास वरना इतने समर्थक नही है इस मुद्दे पर !
बरहाल, इस आरोप में से टी एन शेषन, एक मुख्य चुनाव आयुक्त ने , देश पर यांत्रिक चुनाव पद्धति की क्रांति लाने का अवसर खोज निकाला, और इतिहास के पन्नों पर खूब वाहवाही लूटी।
धीरे धीरे यांत्रिक मतदान उपकरण पर तत्कालीन विपक्ष , यानी भाजपा, ने आरोप लगाना शुरू किया की इसे भी लूटा जा सकता है, जैसा की मतदान केंद्र को बिहार में लूट लिया जाया करता था, booth capturing बोल कर।
मज़े की बात है कि यांत्रिक उपकरण के लूटने की आरंभिक घटनाएं खुद गुजरात राज्य से ही आयी हुई हैं, जहां की भाजपा का ही वर्चस्व और शाशन हुआ करता था।।
तो,यानी केंद्र की राजनीति में भाजपा evm के विरुद्ध किताब लिखती थी, जिसके प्रस्तावना लेख खुद लाल कृष्ण आडवाणी जी लिखते थे, और गुजरात राज्य में शायद उसी पार्टी के स्थानीय यूनिट evm आरोप को सच साबित करने के लिए मेहनत करते थे !!
पहला दिलचस्प मोड़ 2012 में आया जब सुब्रमनियम स्वामी नामक व्यक्तिगत आरोप कर्ता जी ने कोर्ट में evm मशीन की लूटे जाने की संवेदनशीलता को साबित कर दिया की यह बिल्कुल सम्भव है। उन्होंने बताया की बटन दबाने पर वास्तव में वोट किस उम्मीदवार के खाते में दर्ज हुआ है, यह प्रत्यक्ष करना नामुमकिन है, इसलिये यह उपकरण विश्वसनीय नही हो सकता है, अतः इसके प्रयोग को अनुचित माना जाना चाहिए।
बरहाल, कोर्ट के भीतर शायद तब थोड़ी सी शर्म हुआ करती थी, सो उनकी बात को रख लिया गया, और वही से vvpat जैसे एक जुड़े उपकरण की कल्पना करि गयी की evm के साथ उसे भी रखना अनिवार्य होगा।
तो यह था evm के संदेह के प्रति प्रथम वाक्या- जो की evm skeptics ने जीत लिया था।
फिर evm पर 2014 लोकसभा चुनाव तथा उसके बाद और आरोप लगते रहे। चुनाव आयोग उन्हें 'तकनीकी गड़बड़' केह केह कर नकारता रहा है, जबकि तमाम वीडियो निकलते रहे की कैसे कैसे इस मशीन को कभी भीतरी सेटिंग से, तो कभी operation (यानी उपयोग) के दौरान मानव त्रुटियों के वजहों से गड़बड़ करि जा सकती है।
दो महत्वपूर्ण घटनाएं थीं, आंध्र प्रदेश के gkv प्रसाद करके एक अमुक यांत्रिकी वैज्ञानिक की, जिनका दावा था कि evm को उसके display plate पर नकली plate लगा करके आसानी से सेट किया जा सकता है।
दूसरा दावा था दिल्ली विधानसभा के भीतर mla श्री सौरभ भारद्वाज का, की चिप के प्रोग्राम में setting करके न सिर्फ किसी भी test के दौरान चकमा दिया जा सकता है, बल्कि वोटों को इधर से उधर भी किया जा सकता है, बिना total को गड़बड़ किये !
चुनाव आयोग ने बचाव में यह दलील रखी थी की यह किसी को नही पता होता है की किस बटन पर कौन से उम्मीदवार का नाम लिखा जायेगा, इसलिये यह गड़बड़ नही करि जा सकती है। इसको randomisation केह कर बुलाया गया। चुनाव आयोग ने यह माना था कि evm मशीन में किसी भी भीतरीघात को रोकने की वजहों से वह खुद भी evm चिप के software code को न तो जानता है, और न ही सार्वजनिक करेगा। उसके अनुसार evm को निर्विघ्न करने के गुण software code में ही नही, बल्कि उपयोग के प्रबंधन में भी जुड़े हुए हैं की randomisation तथा अंतिम-पग की testing से किसी भी भीतरी घात को रोक सकने के अतिरिक्त प्रयास किये गये हैं, हालांकि यह सब कुछ 100% शुद्ध नही हैं। चुनाव आयोग के अनुसार किसी भी संभावित setting के लिए मार्ग में पड़ने वाली बड़ी बाधाएं ही evm की इमानदारी का सूबा थी , जबकि पूर्णतः विश्वसनीय तरीका तो कुछ भी अन्य नही था, vvpat के अलावा। बल्कि vvpat को जोड़ा जाना भी पूर्णतः 100% विशुद्ध नही था, क्योंकि तत्कालीन आरोप के अनुसार chip पर लिखे हुए गुप्त code की मदद से vvpat पर पर्ची कुछ और, तथा मशीन की memory में कुछ और वोट दर्ज कर सकना सम्भव था। चुनाव आयोग इस आरोप को खारिज़ कर देता था यह केह कर की यह बहोत दूर की कौड़ी थी, जो कि करने के लिये बहोत सारे संसाधन एकत्र करे बिना संभव नही था, और कि जिसके दौरान पकड़े जाना बनता है।
तो, फिर कोर्ट में vvpat का जोड़ा जाना एक अतिरिक्त अच्छा उपाय मान लिया गया, और अनिवार्य बना दिया गया। लोगों ने फिर से आरोप लगाये कि कई जगह vvpat ने दिखाया है की पर्ची भी केवल भाजपा के मत वाली छपी थी। इसमे मध्य प्रदेश में घटी घटना महत्वपूर्ण थी। तो अब लोगों को दिखने लगा था की , पहले, की evm की कोई भी बटन दबाने के बावजूद लाल बत्ती सिर्फ भाजपा के उम्मीदवार की जलती थी, और दूसरा, की vvpat भी सिर्फ भाजपा के उम्मीदवार की ही पर्ची छापती थी।
चुनाव आयोग ने यह सब ताकीनकि गड़बड़ करार दे दिया, या फिर की मानव त्रुटि, मशीन को test के उपरान्त reset करना भूल जाने की वजहों से हुए नतीज़े।
देखा जाये तो यह दूसरा round भी evm sceptics ही जीत ले गये थे। वीडियो में साफ साफ दिख रहा था कि पर्ची भी भाजपा के पक्ष में ही छप रही थी। यानी vvpat में भी सेंघ मारी सम्भव थी, यदि चुनाव आयोग के लोगों से मिलीभगत कर ली जाये तो।
महाराष्ट्र में कई जगहों पर zero वोट वाले वाकये भी उभरे , जब उम्मीदवार ने दावा किया की उसके परिवार ने तो कम से कम उसे ही वोट दिया था, तब फिर कैसे ज़ीरो वोट आये। चुनाव आयोग इस दावे को मात्र खिल्ली उड़ा कर ही खारिज़ कर देता था कि उस उम्मीदवार के परिवार वाले उसे ही झूठ बोल रहे हैं !!
इस वाकये से संदेह बढ़ता था, हालांकि evm setting की पद्धति पर अभेद तरीके से गड़बड़ पकड़ सकना सम्भव नही बनाता था। यहाँ से लोगों को समझ आने लगा कि शायद केवल कुछ-एक प्रतिशत मशीनों को ही set किया गया है, जबकि बाकियों को बक्श दिया गया है। ऐसा कर देने से setting करने वालों को आड़ मिल सकेगी ,जब आरोप कर्ताओं को साबित करना मुश्किल होने लगेगा की कौन सी वाली मशीन को वह नमूने के तौर पर ले अपने आरोप को साबित करने के परीक्षण के लिए।
यह तर्क असल में दमदार थे, हालांकि चुनाव आयोग इसे अपने सरकारी शक्ति के घमंड के चलते अनदेखा करता रहा है। क्या गारंटी थी कि 100% सभी मशीने चुनाव आयोग के मानक के अनुसार बनी थी, कहीं कोई सेंघ मारी नही हुई है? इतने बड़े देश में, जिसका भूगौलिक विस्तार इतना विशाल है, जहां जनसंख्या अरबों लोगों की है, और जहां लाखों मशीने प्रयोग करि जाती है, कितनों ही चरण में किये गये चुनावों के दौरान, तो 100% मशीनों में वह यांत्रिक गड़बड़ को पकड़ना और प्रत्यक्ष करने का एकमात्र भरोसे लायक विधि तो केवल यही है की इसको न ही प्रयोग करो !!
चुनाव आयोग अपनी मशीन के घमंड में चूर चूर हुआ, वापस ballot या फिर किसी भी mechanical voting उपकरण पर उतरने को तैयार नही था। उसका तर्क था की इससे नतीज़े जल्दी मिलते थे, समय बचता था और बूथ capturing रोकने में मदद मिलती है।
तो यह एक हल्का फुल्का round भी evm sceptics ने जीता था। विदेशों में ज्यादातर paper ballot को ही उपयोग किया जाता था, बूथ capturing को आधुनिक mobile phone और , cctv, live news tv के युग में अन्य तरीकों से आसानी से पकड़ा जा सकता था, और जहां तक समय बचाने की बात थी, तो आज कल जितने चरण में।चुनाव होते हैं भारत में, इसमे ज्यादा धन और समय जाया हो जा रहा था !
जाहिर है कि नौकरशाहों की अखण्ड पीठ बन चुका चुनाव आयोग अब भारत के लोकतंत्र पर शंकराचार्य बनने का इच्छुक हो चुका है। वह अपनी कमियों को कदाचित स्वीकार करने वाला नही है, बल्कि कुछ न कुछ मूरखियत वाले सवाल उठा कर ball दूसरे के पाले में फेंक दे रहा है।
अब सबसे हाल का कांड है खुद एक ias सेवा से त्यागपत्र दे कर आये अधिकारी का, जिन्होंने पोलपट्टी खोल दी है कि vvpat को evm से जोड़ने के दौरान randomisation की दीवार भी असल में सुराख करि जा सकती है, और जो की चुनाव आयोग अनदेखा कर रहा है।

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