निजीकरण से प्रजातंत्र खत्म नहीं होते हैं, बल्कि सशक्त होते हैं


यहां पर मैं असहमत हूँ तबरेज़ भाई, की निजीकरण कर देने से प्रजातंत्र खत्म हो जायेगा ! मेरा मानना है की निजिकरण की वास्तविक पहचान होती है बाज़ारीकरण , और प्रजातंत्र सशक्त होता है जब नागरिक खुद अपने हाथों में आर्थिक स्वतंत्रता के स्रोत को थाम लेता है, और बाज़ार की स्पर्धा में रहते हुए नित नये प्रयोग, नये अन्वेषण करता है।
यह जो "देश के चंद पूंजीपति" वाला मामला है, यह तो एक नियति और नतीज़ा है, हमारे आजतक के समाजवाद वाले सरकारीकरण का !! नौकरशाहों से मिलिभागति करके कुछ व्यपारिक जातियां (समुदाय) व्यापार करने में आगे निकल गये भ्रष्टाचार के भारोसे, और पिछड़ी और दलित जातियां आरक्षण की लालच में फंस कर के upsc की नौकरी की चाहत में सरकारीकरण का बचाव करते है। उनको सरकारीकरण में आरक्षण के मावे से सजी हुई खीर दिखती है, समाज की परोसा जा रहा भ्रष्टाचार का ज़हर नही दिखता है।
'चंद पूंजीवादियों' का समाज में जन्म ऐसे ही हुआ है, जिनको आज हम भलाबुरा बताते हैं।
नौकरशाही एक खुल्ला आमंत्रण है नाकलबियत को समाज का शासक बनने का, और भ्रष्टाचार की दीमक बन कर राष्ट्रीय खजाने को चाट जाने का, बिना भय और रोकटोक के । पूंजीवाद के जन्म भी सरकारीकरण में से ही होता है।
प्रजातंत्र का वास्तविक सार बाज़ारवाद में है, और बाज़ारवाद का सार है निजीकरण में।
बल्कि अगर कोई एक खास पहचान प्रजातंत्र की कुछ है, तो वह यही है :- निजी संपत्ति का अधिकार ! Right to property । जब आप निजी संपत्ति को जन्म लेने देने के ही पक्षधर नही हैं, तो फिर आपका प्रजातंत्र आखिर किस बात है ? वोट देने भर का,? ताकि कौन व्यक्ति सरकारी बाबुओं का boss बना मिलिभागति में भ्रष्टाचार करके खायेगा?

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