प्रचारकों और सुधारकों के मध्य की निरंतर युगों से चलती आ रही राजनैतिक क्रीड़ा
भारत की साधुबाबा industry में बतकही करने वाले ज़्यादातर साधुबाबा लोग के अभिभाषण एक हिंदू धर्म के प्रचारक(promoter) के तौर पर होते हैं, न कि हिंदू धर्म के सुधारक(reformer) के तौर पर।
अगर आप गौर करें तो सब के सब बाबा लोग सिर्फ़ और सिर्फ़ धर्म की तारीफ़ , प्रशंसा के पक्ष से ही अपनी बात को प्रस्तावित करते हैं, आलोचना(-निंदा) कभी भी कोई भी नही करता है। यह प्रकृति एक प्रचारक (promoter) की होती। इन सब के व्याख्यान बारबार यही दिखाते है, सिद्ध करने की ओर प्रयत्नशील रहते हैं कि "हम सही थे, हमने जो किया वह सही ही था, हमने कुछ ग़लत नही किया"।
मगर एक सुधारक की लय दूसरी होती है। सुधारक गलतियों को मानता है, सुधारक का व्याख्यान ग़लत को समझने में लगता है।
दिक्कत यूँ होती है कि सुधारक को आजकल "apologists" करके भी खदेड़ दिया जाता है। उसके विचारों को जगह नही लेने दी जाती है जनचिंतन में।
वैसे promoter और reformer के बीच का यह "राजनैतिक खेल" आज का नही है, बल्कि सदियों से चला आ रहा है। धार्मिक promoters हमेशा से ज़्यादा तादात में रहे हैं धार्मिक reformers के। reformatiom(सुधारक) अनजाने में promoters(प्रचारकों) के business पर attack कर रहे होते हैं। इसलिये प्रचारक कभी भी उन्हें पसंद नही करते हैं। बल्कि promoters की लय यह होती है कि आलोचना करने की कोई आवश्यकता नही होती है, क्योंकि यदि आपको कुछ भी ग़लत या ख़राब लगता है, तब फ़िर आप धर्म की आलोचना करने के स्थान पर प्रचारक के तौर पर अपना खुद का नया सुधारकृत पंथ आरम्भ कर सकते है ! इस प्रकार आप मौजूद स्थिति का विश्लेषण और आलोचना करने से बच जाएंगे और फिर आप अप्रिय भी नही होंगे।
आलोचना और सुधार की बात करने वाले लोग हमेशा अप्रिय होते है। 'प्रचारक' लोग इस तथ्य का लाभ कमाते हैं। वह अंत में अपने बिंदु वही से ग्रहण कर रहे होते है जो बातें (और कमियां) कि आलोचक या सुधारक बोल रहे होते हैं, बस प्रचारक लोग चतुराई से उस बात कि लय बदल देते हैं जिससे की वह अप्रिय न सुनाई पड़े। वह बात में सुधार की लय को बदल कर प्रचार की लय को रख देने में माहिर होते है। इस तरह वह बात जनप्रिय बन जाती है।
प्रचारकों और सुधारको के मध्य ये "राजनीति का खेल" जनप्रियता को प्राप्त करने के इर्दगिर्द चल रहा होता है। जबकि एक कड़वी सच्चाई यह है कि प्रचारकों की प्रवृति के चलते ही धर्म और संस्कृति में बारबार ग़लत को प्रवेश करने का मार्ग मिलता है। इसलिये क्योंकि प्रचारक कभी भी ग़लत को स्पष्ट रूप से ग़लत नही कहते हैं। ऐसा करने से जनचेतना विकसित होने में अपरिपक्व बनी रहती है कि आखिर ग़लत होता ही क्या है। जनमानस ग़लत को समझने में क्षुद्र होने लगता है। और कहीं न कहीं हर बार कोई ग़लत किसी प्रचारक की थोड़ा से चतुराई के चलते मरोड़े हुए परोक्ष रूपरेखा से धर्म में प्रवेश कर जाता है।
प्रचारक और सुधारक , दोनों के अपने अपने महत्व होते हैं।
मगर दिक्कत यह है की जनचेतना पर इस बिंदु पर चर्चाएं अभी तक भरपूर नही हो सकी है। इसलिये जनता बारबार प्रचारकों के प्रिय सुनाई पड़ने वाले अभिभाषणों से मोहित होकर उनकी ओर झुकाव रखती है। सुधारकों के अप्रिय "कड़वे बोल" से दूर भागती है और फ़िर गलत को स्पष्टता से समझने में पर्याप्त बौद्ध विकसित नही कर पाती है।
पश्चिम में संसद भवनों को दो भागो में विभाजित करके रचने के पीछे में जो दार्शनिक उद्देश्य है - bi cameral parliament - जिसमे एक upper house होता है, और एक lower house , उसका दर्शन प्रचारकों और सुधारकों में मध्य निरंतर चलने वाले "राजनैतिक खेल" से ही होता है।
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