भरपूर वजहें हैं कि क्यों रौंदा जाता रहा है ये देश हर एक आक्रमणकारी से
आलोचना किये जाने लायक तमाम अन्य देशों की संस्कृति की तरह यहां की संस्कृति में भी खोट मौजूद है। लेकिन अभिमानी आलोचक लोग कड़वे सच से मुंह फेर कर अपने घमंड में डूबने का आनंद लेना चाहते हैं।
भारत की संस्कृति में उगते सूरज को प्रणाम करने का चलन हैं। क्या इसका अभिप्राय मालूम है आपको?
क्या आप आज भी देख रहे हैं कि कैसे लोग दल बदल कर शासन में बैठे दल में घुस लेते हैं?
लोग कमजोर आदर्शों वाले व्यक्ति को अपना नेता चुनते हैं, जो कि आसानी से समझौता कर लेते हैं मूल्यों पर। ( या शायद अच्छे नेतृत्व की सूझबूझ की निशानदेही होती है कि जरूरत अनुसार मार्ग बदल लेना काबिल नेतृत्व का प्रमाण है।)
भारत के लोग कैसे हैं ? ऐसे लोग जो अपने कान जमीन से लगाए रहते हैं, आने वाली शक्ति की आहट को पहले से ही सुन कर पूर्वानुमान लगा लेने के लिए। और इससे पहले की वो शक्ति सूरज की तरह उगती हुई उनके सर पर चढ़े, वो पहले ही जा कर उगते सूरज को सलाम कर आते है। यानी पाला बदल के उसके आगे झुक कर संधि कर लेते हैं।
भारत में तन कर खड़े होने की संस्कृति और चलन नहीं है। यदि किसी ने भी ये सोच कर खड़े होने की कोशिश करी कि बाकी लोग साथ देंगे, तब उनको धोखा खा जाना तय है। क्योंकि कई सारे लोग तो संधि कर लेंगे , पलटी मार जायेंगे, और पता चलेगा की वो बेचारा अकेला ही खड़ा खड़ा, मारा जायेगा !
हिंदुओं के मूल्य और संस्कृति बहोत निम्न और कमजोर है। क्योंकि हिंदू नाना प्रकार के विश्वास को एक संग मानता है । सोचिए, उनमें से किस धर्म से तय करता है कि कब , कौनसा विश्वास पालन करना चाहिए? सच जवाब है — सुविधानुसार
तो फिर हिंदू आदमी किसी भी नए आक्रमणकारी मूल्य का विरोध करने के लिए खड़ा होने से डरता है।
क्यों? ये सोच कर कि पता नहीं कौन साथ निभायेगा, और कौन पीठ में खंजर डाल कर उगते सूरज को सलाम ठोकने को निकल पड़ेगा ! ऐसा मनोविज्ञान हमारे भीतर हमारे बहुईष्ट धर्म की देन है।
आधुनिक युग में विश्व का एकमात्र "प्राचीन" पद्धति वाला बहुईश्वरीय पंथ है हिंदू धर्म
पुराने समय में , आदिकाल में, समस्त धरती पर बहु- ईश्वरीय पंथ हुआ करते थे। मगर धीरे धीरे करके लगभग समस्त मानव जाति ने एक—ईश्वरीय संस्कृत को अपना लिया, शायद सिर्फ हिंदुओं को छोड़ कर ।
क्यों बदलाव किया समस्त मानव जाति ने बहु- ईश्वरीय प्रथा से, एक—ईश्वरीय प्रथा में? क्या असर हुआ इस बदलाव का,— समाज, और प्रशासन पर?
और क्या असर रह गया हिंदुओं पर बहु—ईश्वरीय प्रथा पर चिपके रहे जाने का?
बहु—ईश्वरीय समाजों में आपसी द्वंद बहोत होते थे, अलग अलग मान्यताओं के चलते। इससे परेशान परेशान इंसान को एकईश्वरीय प्रथा स्वाभाविक तौर पर पसंद आ जाते थे। और जब एकईश्वरीय पंथ एक विशाल, एकता वाला समाज देता था, तब वो सैन्य शक्ति में भी बहुत सशक्त होता था। जाहिर है, एक ईश्वरीय पंथ राजाओं को भी पसंद आने लगे, क्योंकि वो उन्हें मजबूत सैनिक शक्ति बना कर देते थे।
तो धीरे धीरे बहु ईश्वरीय प्रथा संसार से लगभग समाप्त हो गई। सिर्फ हिंदू ही बचे खुचे बहु—ईश्वरीय समाज में छूट गए हैं, मगर फिर जिनका रौंदे जाने वाला इतिहास तो सभी कोई जानता है। हिंदुओं के समाज की कमजोरी को आज भी देख सकते हैं, कि हिंदू समाज रीढ़ की हड्डी नहीं रखते है। कमजोर संस्कृति और मूल्यों वाले नेता आसानी से पलटी मार जाते हैं। यही तो भारत के हिंदू वासियों का सांस्कृतिक चलन रहा है सदियों से।
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