क्यों कोई भी समाज अंत में संचालित तो अपने हेय दृष्टि से देखे जाने वाले बुद्धिजीवी वर्ग से ही होता है?
बुद्धिजीवियों को लाख गरिया (गलियों देना) लें , मगर गहरा सच यह है कि किसी भी समाज में अतः में समाज पालन तो अपने बुद्धिजीवियों के रचे बुने तर्क, फैशन, विचारों का ही करता है।
बुद्धिजीवी वर्ग कौन है, कैसे पहचाना जाता है?
बुद्धिजीवी कोई उपाधि नही होती है। ये तो बस प्रत्येक व्यक्ति का व्यक्तिगत दृष्टिकोण होता है किसी दूसरे व्यक्ति के प्रति, कि किसे वह अपने से अधिक पढ़ा- लिखा, ज्ञानवान और अधिक प्रभावशाली मानता है। अब चुकी हर व्यक्ति का अपना एक अहम होता है, तो फिर वह स्वाभाविक तौर पर हर एक आयाराम–गयाराम को तो अपने से श्रेष्ठ नहीं समझने वाला है। सो, वह बहोत छोटे समूह के लोगों को ही "बुद्धिजीवी" करके देखता है। नतीजतन, बुद्धिजीवी वर्ग प्रत्येक समाज में एक बहोत छोटा वर्ग ही होता है, मगर ऐसा समूह जो की समाज की सोच पर सबसे प्रबल छाप रखता है।
और बड़ी बात ये है कि बुद्धिजीवी माने जाने का कोई मानक नही होता है। यानी, कोई शैक्षिक उपाधि ये तय नहीं करती है कि अमुक व्यक्ति बुद्धिजीवी है या नहीं। हालांकि प्रकट तौर पर सबसे प्रथम बात जो कि हमारे भीतर दूसरे व्यक्ति के प्रति सम्मान उमेड़ती है, वो उसकी शैक्षिक उपाधि ही होती है !!! यानी बुद्धिजीवी पहचाने जाने का ' प्रकट ' मानक शैक्षिक उपाधि होती है।
आम तौर पर समाज में लोग किन व्यक्तियों को बुद्धिजीवि माना जाता हैं?
आम व्यक्ति अक्सर करके टीवी संवाददाताओं, पत्रकारों, समीक्षकों, चुनाव विश्लेषकों, लेखकों, फिल्मी कलाकारों, खेल कमेंटेटरों, नाटककारों, गीतकारों, कवियों, कहानिकारों, और "बेहतर अंग्रेजी बोलने वालों" को बुद्धिजीवी मानते हैं।
ज्याद "साधारण लोग"(=अनपढ़ अशिक्षित लोग) अक्सर भगवा–धारी साधु संतों, "महात्माओं", को भी बुद्धिजीवी मान कर तौल देते हैं
सवाल ये भी बनता है कि समाज क्यों बुद्धिजीवी की ही सुनता है अंत में? इसकी समीक्षक दृष्टिकोण से क्या वजह होती है?
अपने जीवन का गुरु (या बुद्धिजीवी) तलाशने की फितरत प्रत्येक इंसान में एक कुदरती इच्छा होती है। मस्तिष्क को आभास रहता है कि वह संसार का समस्त ज्ञान नही रखता है। न ही वो पुस्तकालय रखता है, और न ही वो हर एक पुस्तक को खोल कर टटोलने का सामर्थ्य रखता है। मगर वो फिर इतना दिमाग तो रखता ही है कि किताबों को खोले बिना भी ज्ञान को अर्जित करने का दूसरा तरीका होता है कि अपने आसपास,मित्रमंडली में ऐसे लोगो का संपर्क रखे जो कि किताबे खोलते और टटोलते हैं। जो ज्ञान का भंडार होते हैं। ऐसे ज्ञानी लोग ही दूसरे व्यक्ति को उसके मस्तिष्क की ज्ञान की भूख को शांत करवा सकते हैं।
जरूरी नहीं होता है कि जिस दूसरे इंसान को हम ज्ञानवान·बुद्धिजीवी समझ रहे हों, वो वास्तव में खरा, सत्यज्ञान रखता है। हो सकता है कि हम निर्बुद्धि लोगो को यह ज्ञान भी नहीं होता हो कि असली ज्ञान की परख कैसे करी जाती है। और ऐसे में हम किसी खोटे "ज्ञानी" आदमी को ज्ञानवाव–बुद्धिजीवी मान बैठे। जैसे, अक्सर करके अधिकांश साधु महात्मा type ज्ञानी लोग ऐसे किस्म के खोट्टे "बुद्धिजीवी* होते है, मगर जिन्हे की अनपढ़, अशिक्षित लोग परख नही कर सकने के कारण कुछ बेहद ज्ञानी मान बैठे हुए रहते हैं।
एक सच यह भी है की समाज में सत्य की स्थापना होने का मार्ग उनके बुद्धिजीवियों के माध्यम से हो होता है, हालांकि प्रत्येक समाज बुद्धिजीवियों को बहोत घर्षण देता हैं सत्य को प्रतिपादित करने में। और घर्षण क्यों देता है? क्योंकि आरंभ में प्रत्येक तथाकथित बुद्धिजीवी किसी भी विषय से संबंधित अपने ही तरीके से सत्य को देखता और समझता रहता है। ऐसे में सत्य, जो की अपनी कच्ची अवस्था में रहता है, उसे वयस्क , गोलमटोल, संपूर्ण होने में सहायता मिलती रहती है, हालांकि फिर वयस्क तथा सम्पूर्ण होते होते समय भी जाया होता रहता है। तमाम बुद्धिजीवी लोगों का घर्षण ही सत्य को निखरने में सहायता कर रहा होता है। और जब वह अच्छी निखार में आ जाता है, तब वो समाज से सभी सदस्यों के द्वारा स्वीकृत कर लिया जाता है, और वो एक "आम राय" या "सहज ज्ञान" बन जाता है। और तब फिर समाज में वो सत्य "प्रतिपादित"(=established) हुआ मान लिया जाता है।
ये दार्शनिक व्याख्यान है कि क्यों कोई भी समाज अंततः दिशा संचालित तो अपने छोटे, और ' घृणा से देखे जाने वाले ' बुद्धिजीवी वर्ग से ही होता हैं, हालांकि जिसे वह निरंतर हेय दृष्टि से देखता रहता है, घृणा करता है, और मार्ग की बांधा मानता रहता है।
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