आरएसएस और भाजपा नेताओं का अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था से गुप्त प्रेम

सुषमा स्वराज की बेटी खुद ऑक्सफ़ोर्ड से पढ़ लिख कर आई है...वह आरएसएस छाप किसी ऐरु-गेरू "सरस्वती शिशु मंदिर" से शिक्षा क्यों नहीं प्राप्त करती..इसके कारणों का विमोचन करना हमें देश में सामाजिक और राजनैतिक परिस्थितियों को समझने में बहोत मदद करने वाला है..
  मगर इस विमोचन से पहले हमें नरेंद्र भाई मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद की कुछ और घटनाओं को स्मरण करना होगा जो की हमारे को विमोचन में योगदान देने वाली है...
  सबसे पहले तो उस समाचार सूचना को स्मरण करें जिसमे गुजरात की शिक्षा बोर्ड की पुस्तकों में गांधी जी, द्वितीय विश्व युद, इत्यादि के बारे में ताथयिक गलत ज्ञान प्रचारित किया जाता है।
   फिर मोदी जी के प्रधानमंत्री बनने के बाद की इंडियन science कांग्रेस के अधिवेशन को याद करें जिसमे किसी आरएसएस समर्थित वक्त ने भारतीय पौराणिक "इतिहास" की व्याख्या में विमान और अंतरिक्ष अनुसन्धान का "पौराणिक भारतीय इतिहास"  बताया था । इस अधिवेशन को खुद नरेंद्र मोदी ने बतौर भारत के प्रधानमंत्री के रूप में उपस्थिति दर्ज़ करी थी। जबकि विदेशी अखबारों में इस प्रकार के वैज्ञानिक "इतिहास" की बहोत आलोचना हुई थी।
    फिर याद करे की कैसे मोदी जी के प्रधानमंत्री बनने के बाद ICHR नाम की संस्था जो की भारतीय इतिहास से सम्बंधित ज्ञान को संग्रह करती है..उसमे किसी अयोग्य या विवादास्पद व्यक्ति प्रमुख नियुक्त कर दिया गया है।
   और फिर शिक्षा मंत्री स्मृति ईरानी की हरकतों को याद करके हाल में घटे iit चेन्नई में एक छात्र दाल पर प्रतिबन्ध को याद करें।
   और सबसे अंत में याद करे अभी हाल में प्रकाशित एक सूची की जिसमे की विश्व के प्रथम सौ सबसे बेहतरीन शिक्षण संस्थाओं के नाम संग्रह किये गए है। और जिसमे की भारत का एक भी शिक्षण संस्था कोई स्थान नहीं प्राप्त कर सका है। आप याद करेंगे की भारतीय शिक्षण संस्थाओं की असफलता की यह घटना एक आम साधारण वाक्या है।
   
  हमें यह मंथन करने की आवश्यकता है की कैसे आधुनिक मानव का इतिहास आदि काल के ग़ुफ़ाओं वाले जीवन यापन करते हुये, राजा रजवाड़ों के सामाजिक -राजनैतिक परिस्थितियों से होता हुआ वर्तमान के प्रजातंत्र स्वरुप में आ गया है। यह समझना ज़रूरी है की प्रजातंत्र कोई सर्वश्रेष्ठ पद्धति नहीं है, मगर अभी तक के मानवीय इतिहास में सबसे उत्तम यही है...क्योंकि तभी यह इतने हज़ारों और खरबों सालों से डलता हुआ आज वर्तमान का सबसे लोकप्रिय शासन प्रकार है। हालात ऐसे हैं की उत्तरी कोरिया जो किम जोंग के अत्याचारों से ग्रस्त है, वह भी आधिकारिक तौर पर खुद को "प्रजातान्त्रिक" देश ही घोषित करता है।
    प्रजातंत्र में एक --- अकेला--- वह विचार जो इसे आज तक का सर्वोत्तम शासन पद्धति बनाता है ..वह है इसकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता।
   अब हमें अंग्रेजी शिक्षा पद्धति और अंग्रेज़ो के देशों से प्राप्त प्रजातंत्र शासन व्यवस्था की इस बुनियादी स्वतंत्रता के बीच के गठजोड़ पर ध्यान केंद्रित करना होगा...जो हमें समझा सकेगा की कैसे कोई वास्तविक प्रजातंत्र देश तकनीकी, उद्योगिकी और सामाजिक, आर्थिक तथा नैतिक रूप में भी सफल हो सकने की क्षमता रखते हैं।
      हमारी खुद से चुनी हुई शासन व्यवस्था के अनुसरण करने का प्रथम केंद्र खुद हमारे विद्यालय और उच्च शिक्षण संस्थान होते हैं । बल्कि शायद इसका उल्टा विचार भी सत्य है-- कि, हम अपने विद्यालयों तथा उच्च शिक्षण संस्थानों में जिस प्रकार के शासन व्यवस्था को भुगतते हुए पलते, विक्सित हुए होते है,  हम आगे चल कर देश में वही व्यवस्था समूचे देश में भी कायम कर देते हैं।
     ब्रिटेन और अमरीका के विचारकों से निकली प्रजातान्त्रिक स्वतंत्र अभिव्यक्ति की प्रकृति ऐसी है की यह हमें विभिन्न प्रकार के विचारों प्रकट करने की स्वतंत्रता देती हुए भी अंत में उनकी आपसी प्रतिस्पर्धा करवा देती है, जिससे की एक सर्वश्रेष्ठ निष्क्रय प्राप्त करके देश में एक नीति-न्याय कायम किया जा सके। नीति और न्याय का एक होना इसलिए ज़रूरी है की कहीं किसी प्रकार का भेदभाव नहीं होये। तो ज़मीनी परिस्थिति में सभी नागरिकों को अपने अपने विचार रखने की स्वतंत्रता तो मिलती है, मगर विचारों की प्रतिस्पर्धा के चलते अधिकाँश विचार समूह अपने विचार के हार जाने का मनोभाव पालने लगते हैं।
    शायद मनोवैज्ञानिक दृष्टि से प्रजातान्त्रिक स्वतंत्र अभिव्यक्ति से वैचारिक प्रतिस्पर्धा की इस क्रिया में कुछ अन्याय-सा घटित हो जाता है।
  यही पर हमें गौर करने की ज़रुरत है। राष्ट्रिय स्वयंसेवक और भाजपा छाप मानसिकताओं में अधिकाँश तौर पर आप एक तालिबानी प्रकार के *पीड़ित मानसिक भाव*(victimization) को देखेंगे की कैसे अंग्रेजी, मैकौले की शिक्षा व्यवस्था ने उनके विचारों को *जानबूझ कर* नाकारा है।
    एक हाल फिलाल के अमुक भारतीय नागरिक के विचारों को मैंने एक वाद विवाद-- कि, रामायण और महाभारत कल्प हैं या की तथयिक इतिहास-- के दौरान कही पर पढ़ा था। मुझे उसके विचार बहोत पसंद आये थे।जबकि सभी नरेंद्र मोदी समर्थक और आरएसएस शिक्षा से आये नागरिकों का कथन मुझे इसी *पीड़ित मानसिकता भाव* का स्मरण करवा रहा था, वह अमुक भारतीय नागरिक का कहना था की भले ही अंग्रेजों और मैकौले की शिक्षा पद्धति ने भारतियों के साथ कुछ अन्याय और भेदभाव किया होगा, मगर अंग्रेजों ने अपनी शिक्षा पद्धति में वैचारिक प्रतिस्पर्धा और स्वतंत्र अभिव्यक्ति का वह सबसे केंद्रीय अंश भी दिया है जिससे की कोई भी मानव समाज खुद से ही किसी अन्याय और भेदभाव को पहचान कर के सुधार कार्य कर सके। इसलिए वह अमुक भारतीय नागरिक तथयिक , वैज्ञानिक प्रमाण के अभाव को समझते हुए रामायण और महाभारत को एक कल्प ही मानता है, "इतिहास" नहीं।
    शिक्षा पद्धति का यही वह केंद्रीय अंश है जो की आरएसएस और भाजपा समर्थकों में बिलकुल भी नहीं दिखता है। इनमे तर्क , न्याय की उच्च बौद्धिक क्षमताओं की बहोत कमी है। इसके स्थान पर इनमे पीड़ित मनोभाव भरा हुआ होता है। शायद यही वजह है की न सिर्फ शुष्मा स्वराज, बल्कि महाराष्ट्र के भाजपा मुख्यमंत्री देवेन्द्र फड़नवीस की खुद की संताने ऑक्सफ़ोर्ड और कान्वेंट स्कूलों में पढ़ती है जबकि दूसरों के लिए यह लोग अपने वही "अड़ियल, पीड़ित मानसिक भाव" वाले स्कूलों को रख छोड़ते हैं।
    नरेंद्र मोदी खुद आत्म मोहित व्यक्तित्व वाले शख्सियत हैं। वह खुद आपने नाम से काढ़ा लाखो रुपयों का कोट पहन कर अतिथि राष्ट्रपति से मिलते हैं। और 'सेल्फ़ी' खीचने का शौक रखते हैं। फिर भाषणों में खुद के प्रधानमंत्री बन जाने के बाद देश का "गौरव" बढ़ा देने का कबूलनामा लेते हैं। उनके समर्थकों में अपने विरोधियों का उपहास करने की प्रवृति है। मोदी समर्थक तर्क का सामना नहीं कर सकने पर उसको किसी उपहासजनक विरोधी की विशिष्ट पहचान दिखलाने में यकीन करते हैं।
     मोदी खुद वैचारिक प्रतिस्पर्धा से भागते हैं। मुख्यमंत्री काल के दौरान गुजरात विधानसभा की कार्य सारणी का रिकॉर्ड देश में सबसे न्यूनतम है। संसद में और यहाँ वहां भाषण देते दिखने को तैयार हैं, मगर किसी प्रकार की विचार प्रतिस्पर्धा उनकी क्षमताओं से बिलकुल परे है। उसको वाद विवाद में आप नहीं देखेंगे। चुनावी प्रचार के दौरान उनके टीवी साक्षात्कारों को पूर्व सुनियोजित करके करवाने की खबरें खूब आई थी। उनकी शख्सियत में तानाशाही होने की खबरें भी बराबर आती रहती हैं। न्यापालिक को कार्यपालिका और विधायिका से विशिष्ट स्वतंत्रता को समझौता साफ़ साफ़ दिखने लगा है।
   जब वैचारिक प्रतिस्पर्धा की मानसिक और बौद्धिक योग्यता नहीं होती है तब इंसान तानाशाही पर उतर आता है। जब अपने कर्मो की जवाबदेही और न्यायोचित्य नहीं बनती है, तब वह जवाबदेही के तरीकों को भी प्रतिबंधित कर देता है। RTI पर लगाम की खबरें भी बराबर पढने को मिलने लगी है।
    इन सब के पीछे एक ख़ास शिक्षा पद्धति का हाथ मालूम देता है।

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