समाचार सूचना और जन-चेतना
क्या अर्थ होता है जब किसी समाचार सूचना में उसका संवाद-दाता , या फिर उसका समाचार चैनल बार बार इस वाक्य को प्रसारित करते हैं की "यह खबर उपको सबसे पहले 'फलाना ' चेनल के हवाले से दी जा रही है "।
मस्तिष्क एक विचारों वाली भूलभुलैया में चला जाता है की इस वाक्य का अभिप्राय क्या है , लाभ क्या है , इशारा क्या है । क्या "सबसे पहले " खबर पहुचने में भी कुछ , किसी विलक्षण किस्म की सूचना छिपी होती है , जो की शायद में मंद मस्तिष्क को समझ में नहीं आई ?
समाचार सूचना की कम्पनियों (न्यूज़ चेनल ) में आपसी प्रतिस्पर्धा इस बात की होती है की कौन सी कम्पनी सबसे बड़ी है जो मानव अभिरूचि के हर कोने-कोने में घटने वाली घटनाओ को तुरंत आम प्रसारण कर के दे सकती है । अपनी इसी व्यापक पहुच को "प्रमाणित "कराने के लिए न्यूज़ चेनल बार-बार इस वाक्य पर जोर देते है की "सबसे पहले " वह खबर उनके माध्यम से आप तक पहुंची है ।
अभिप्राय होता है की जो सबसे पहले खबर तक पहुँच रहा है , वह सबसे व्यापक है , यानि हर कोने-कोने में मौजूद है ।
मगर कुछ एक समाचार संवाद-दाता अपनी प्रतिस्पर्धा के इस पहलू को जनता के नज़रिए से सोच कर एक बहुत ही अजीबो-गरीब कारगुजारी कर देते है । जनता के दृष्टिकोण से सोचे तब यह भाव आता है की जनता सोचती होगी की 'सबसे पहले' खबर पहुचने के कारनामे से उन्हें क्या लाभ है । "भई, खबर तो सभी कोई पंहुचा ही देते। सबसे पहले नहीं तो बाद में ही सही ।"
इस भाव में जनता की समझ को कम आँक कर कुछ समाचार संवाद-दाता जनता को सही ज्ञान ,सही समझ देने की बजाय अपने प्रतिस्पर्धी पर निशाना-कशी करते है । वह यह काम एक प्रशन-बोधक भ्रामक के माध्यम से करते है , यह सवाल उठा कर कि, "कहाँ थे वह लोग जो यह बार करते थे की ..."।
तो एक सीखने और समझने वाली बात यह भी है की कुछ प्रशन महज़ एक प्रशन नहीं है , वरन प्रशन-बोधक भ्रामक है जिनका असल मकसद किसी एक की किसी कमी को 'नग्न' करने का है , या फिर की किसी का प्रचार-प्रसार करने का है ।
अगर कोई चुनावी पार्टी भी यही करती है , यह सवाल उठा कर कि "कहाँ तह भा&&& वाले , और कहाँ थे कों%%% वाले ", तब यह सवाल एक प्रचार-अर्थी क्रिया होती है ।
लक्षण वरन प्रमाण
आम शाशन व्यवस्था से सम्बंधित कई विषयों को *निर्णायक प्रमाण* के माध्यम से स्थापित नहीं किया जा सकता है , वरन वह *लक्षणों* के माध्यम से ही महसूस किये जा सकते है । ज़ाहिर है , लक्षण के माध्यम से कहे गए व्यक्तव्य बहोत ही subjective होते है जिसे कुछ स्वीकार करेंगे , और कुछ लोग नहीं । समाचार संवाद-दाताओं को इस बात का बोध रखना ही चाहिए की वह किसी विचार को प्रमाणों के आधार पर प्रस्तुत कर रहे है , या लक्षणों के आधार पर ।
लक्षणों द्वारा प्रस्तुत विचारों की सीमाओं को तय करना , यह गणित में सांख्यकी विषय का अपना एक विज्ञानं है । इस एक विस्तृत विषय की चालत समझ समाचार संवाद दाताओं में भी होनी चाहिए , अन्यथा वह सूचना के मध्यम से जन-चेतना बढाने की बजाये कम कर रहे होते है ।
मस्तिष्क एक विचारों वाली भूलभुलैया में चला जाता है की इस वाक्य का अभिप्राय क्या है , लाभ क्या है , इशारा क्या है । क्या "सबसे पहले " खबर पहुचने में भी कुछ , किसी विलक्षण किस्म की सूचना छिपी होती है , जो की शायद में मंद मस्तिष्क को समझ में नहीं आई ?
समाचार सूचना की कम्पनियों (न्यूज़ चेनल ) में आपसी प्रतिस्पर्धा इस बात की होती है की कौन सी कम्पनी सबसे बड़ी है जो मानव अभिरूचि के हर कोने-कोने में घटने वाली घटनाओ को तुरंत आम प्रसारण कर के दे सकती है । अपनी इसी व्यापक पहुच को "प्रमाणित "कराने के लिए न्यूज़ चेनल बार-बार इस वाक्य पर जोर देते है की "सबसे पहले " वह खबर उनके माध्यम से आप तक पहुंची है ।
अभिप्राय होता है की जो सबसे पहले खबर तक पहुँच रहा है , वह सबसे व्यापक है , यानि हर कोने-कोने में मौजूद है ।
मगर कुछ एक समाचार संवाद-दाता अपनी प्रतिस्पर्धा के इस पहलू को जनता के नज़रिए से सोच कर एक बहुत ही अजीबो-गरीब कारगुजारी कर देते है । जनता के दृष्टिकोण से सोचे तब यह भाव आता है की जनता सोचती होगी की 'सबसे पहले' खबर पहुचने के कारनामे से उन्हें क्या लाभ है । "भई, खबर तो सभी कोई पंहुचा ही देते। सबसे पहले नहीं तो बाद में ही सही ।"
इस भाव में जनता की समझ को कम आँक कर कुछ समाचार संवाद-दाता जनता को सही ज्ञान ,सही समझ देने की बजाय अपने प्रतिस्पर्धी पर निशाना-कशी करते है । वह यह काम एक प्रशन-बोधक भ्रामक के माध्यम से करते है , यह सवाल उठा कर कि, "कहाँ थे वह लोग जो यह बार करते थे की ..."।
तो एक सीखने और समझने वाली बात यह भी है की कुछ प्रशन महज़ एक प्रशन नहीं है , वरन प्रशन-बोधक भ्रामक है जिनका असल मकसद किसी एक की किसी कमी को 'नग्न' करने का है , या फिर की किसी का प्रचार-प्रसार करने का है ।
अगर कोई चुनावी पार्टी भी यही करती है , यह सवाल उठा कर कि "कहाँ तह भा&&& वाले , और कहाँ थे कों%%% वाले ", तब यह सवाल एक प्रचार-अर्थी क्रिया होती है ।
लक्षण वरन प्रमाण
आम शाशन व्यवस्था से सम्बंधित कई विषयों को *निर्णायक प्रमाण* के माध्यम से स्थापित नहीं किया जा सकता है , वरन वह *लक्षणों* के माध्यम से ही महसूस किये जा सकते है । ज़ाहिर है , लक्षण के माध्यम से कहे गए व्यक्तव्य बहोत ही subjective होते है जिसे कुछ स्वीकार करेंगे , और कुछ लोग नहीं । समाचार संवाद-दाताओं को इस बात का बोध रखना ही चाहिए की वह किसी विचार को प्रमाणों के आधार पर प्रस्तुत कर रहे है , या लक्षणों के आधार पर ।
लक्षणों द्वारा प्रस्तुत विचारों की सीमाओं को तय करना , यह गणित में सांख्यकी विषय का अपना एक विज्ञानं है । इस एक विस्तृत विषय की चालत समझ समाचार संवाद दाताओं में भी होनी चाहिए , अन्यथा वह सूचना के मध्यम से जन-चेतना बढाने की बजाये कम कर रहे होते है ।
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