क्या बुराई है भारत के दलित पिछड़ा समाज विज्ञानियों में

ये JNU छाप जितने भी तथाकथित दलित/पिछड़ा समाजविज्ञानी लोग है, सब से सदैव सावधान है क्योंकि ये सब एक से बड़ कर एक मूर्ख, बेअकल लोग हैं। ये लोग जितने भी  भेदभाव और ऊंच नीच का आरोप दूसरी जातियों , समूहों, समुदायों पर लगाते रहते हैं,  असल में जब भी इनके पक्षधर पार्टी सत्ता में आती है, तब वो भी यही बुराईयां उन दूसरी जातियों पर करने लगती है।




क्या आपने कभी सोचा है, कि किसी को भी कमियां और बुराईयां गिनाने में सबसे कठिन मानक क्या होता है?
ये कि उन बुराइयों का व्याख्यान ऐसे प्रकार से किया होना चाहिए कि यदि आप सत्तारूढ़ हो जाए तब कुछ बदलाव आ जाए जो उस बुराई को समाज में से समाप्त कर दे।
मगर अधिकांशतः तो सत्तारूढ होने पर सिर्फ प्रतिहिंसा कर रहे होते है या बदले की भावना से काम करने लगते हैं, जबकि सोचते ये है कि ऐसा करने से ही बुराई खत्म होती है।

ये सरासर गलत है । और ऐसा करने से ही दलित/पिछड़ा समाजविज्ञानियो की मूर्ख बुद्धि होने की पोल खुल जाती है।

पश्चिमी जगत में उनके दर्शन शास्त्रियों ने जब भी अपने समाज की बुराइयों को देखा, तब ऐसे व्याख्यान दिए, चारित्रिक विशेषता बताई कि यदि उनको सुधार दिया गया, तब समाज से वो बुराई समाप्ति की ओर बढ़ चली।
उदाहरण के लिए, सामंतवादी व्यवस्था से मुक्ति के लिए Lord AV Dicey ने Separation of Power का सिद्धांत दिया। केवल सामंतो को पानी पी-पी कर कोसते नहीं रहे! भेदभाव से मुक्ति के black लोगों के समुदाय में शिक्षा को प्रसारित किया। न कि केवल आरक्षण की मांग करते हुए, whites को पानी पी–पी कर कोसते रहे।

महत्वपूर्ण बात है कि बुराई की शिनाख्त एक ऐसे दार्शनिक स्तर से करी जानी चाहिए कि सुधार की गुंजाइश उत्पन्न हो। न कि केवल कोसाई, और अरोपीकरण होता रहे।



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