मद्यअध्यात्म, यौन सक्रियता और समाज में बढ़ता आपराधिक आचरण
सेक्स और धर्म के बीच का संबंध बहोत गेहरा है। हालांकि यह संबंध मात्र आपराधिक घटनाओं तक का नही है, वरण मनोवैज्ञनिक स्तर का भी है। सिर्फ चिन्मयानंद , आसाराम इत्यादि तक बात सीमित नही है, याद करें की जब मुल्लाह ओमर और ओसामा-बिन-लादेन को भी पकड़ा गया था तब उनके ज़ब्त किये सामान में अश्लील साहित्य और चलचित्र भी खूब बड़ी मात्रा में पकड़े गये थे। इसी तरह church व्यवस्था में भी आजतक बाल-यौन शोषण के inquisition चल रहे हैं और समय-समय पर उच्च स्तर के चर्च अधिकारियों को सज़ा दी जाती रही है ताकि जनता का चर्च व्यवस्था में विश्वास क़ायम रहे।
ओशो रजनीश ने कभी, किसी ज़माने में "संभोग से समाधि तक" करके पुस्तक रची थी जिसमे की संभोग (सेक्स क्रिया) के माध्यम से ईश्वरीयता को प्राप्त करने के मार्ग को तलाश किया था।
"प्राणिक उपचार" जैसे कुछ एक गैर-वैज्ञानिक, मगर परंपरागत , विषयों में भी सेक्स क्रिया, सेक्स सक्रियता और ईश्वरीयता(spiritual awakening) के बीच के रिश्ते की चर्चा स्पष्ट शब्दावली में करि जाती है। 'प्राणिक उपचार' विधि में यह माना जाता है की जैसे-जैसे इंसान में ईश्वरीयता का विकास होता है, उसकी "यौन कुंडलियां" भी सक्रिय होने लग जाती है। हालांकि आगे यह विधि यौन सक्रियता को काबू करने पर ही ज़ोर देती है, ओशो रजनीश यहां पर ही बाकी सभी परंपरागत विचारकों से भिन्न हो गये थे। ओशो के अनुसार यौन सक्रियता को सिमटने और रोकने के स्थान पर उनकी पूर्ण तृप्ति के आगे ही सम्पूर्ण ईश्वरीयता को प्राप्त कर लेने का मार्ग ही उचित था। तो ओशो के कहने का अभिप्राय था कि स्वच्छंद यौन आचरण के आगे ही इंसान को ईश्वर की प्राप्ति मिलती थी।
ओशो के विचारों को आज वैज्ञानिक विचारों में इतना अटपटा और गलत नही माना जाता है। जहां अधिकतर पंथों ने यौन आचरण को दमन और सिमटने में ही सदमार्ग की तलाश करि थी, वह सब के सब बहोत ही विकृत किस्म के यौन कर्मकांडों में लिप्त पाये गये थे। यही वह पंथ है जिन्होंने समाज में इंसान को उनके दुःखों से मुक्ति देने की बजाये समाज में मनोविकृति को बढ़ावा अधिक दिया है। छोटे बच्चों से लेकर, बुजुर्ग और यहां तक की पशुओं के संग में अनुचित यौन आचरणों में इसके शीर्ष नेतृत्व और अनुयायी लिप्त पाये जाते रहे हैं समय-समय पर।
प्राचीन काल में भारतीय संस्कृति में जब शायद सभ्यता और सामाजिकता इतनी विकसित नही हुई थी, तब स्वच्छंद यौन आचरण में ईश्वरीयता को तलाशना एक आम और सहज विधि थी, जिससे की फिर 'परमानंद' जैसी अवस्था मिलती थी, और जिसमे की "सभी शारीरिक और मानसिक दुखों से निजात' मिल जाता था। खुजराहो और कोणार्क के जैसे कामोत्तेजक शिल्पकला वाले मंदिरों का निर्माण शायद उसी पंथ विचारधारा का नतीज़ा है। जब शिव पंथ ने 'लिंग' की परम भूमिका न सिर्फ जीवन को सृजन और आरम्भ करने में देखी थी, बल्कि आजीवन दुखों - शारीरिक और मानसिक- से निराकरण में भी देखा था। ऐसा माना जाने लगा था कि जो भी मानव अधिक आयु तक यौन सक्रियता को प्राप्त कर सकेगा,वह ही अच्छा , गुणवत्ता पूर्ण जीवन व्याप्त कर सकेगा - यानी "परमानंद" अवस्था वाला जीवन- और वही शारीरिक और मानसिक दुखों से निजात प्राप्त कर सकेगा।
बरहाल, यह सब उस काल की बातें और विचार थे जब आधुनिक विज्ञान अभी शायद जन्म ही ले रहा था और इतना सुदृण और विकसित नही था जितना की आज है। तब न ही आधुनिक चिकित्सा पद्धतियां हुआ करती थी, न ही आधुनिक विधि व्यववस्था, और न ही psychopathy , psychotherapy जैसे विषय जिसको विद्यालय शिक्षा या अकादमी शिक्षा के माध्यम से प्राप्त करके कोई भी व्यक्ति पेशेवारिय तौर पर समाज में इंसानों को उनके शारीरिक और मानसिक दुखों से निजात दे सके, पूर्ण वैधानिक जिम्मेदारी के संग, कि यदि कुछ ग़लत ईलाज़ किया तो फिर कोर्ट कचहरी के चक्कर काटने पड़ जाएंगे, सज़ा भी मिल सकती है।
आधुनिक विज्ञान ने बहोत सारे परमपरागत यौन आचरणों को "विकृति" के रूप में पहचान करि है , और कुछ एक यौन आचरणों को "विकृति" के बोद्ध से मुक्त किया है। वर्तमान विधि व्यवस्था आधुनिक विज्ञान के दिये तर्क को ही अपराध संबंधित व्यवहारों को समझने का आधार मानती है। उदाहरण के लिए, आधुनिक मनोविज्ञान ने पशु , छोटे बच्चों और बुजुर्ग लोगों के संग किये यौन संबंधों को "विकृति" माना है, और समलैंगिकता को हाल फिलहाल के दशकों में "विकृति" के बोध से मुक्त कर दिया है। आधुनिक विज्ञान, यानी psychology में यह ज्ञान कुछ अध्ययन और आपसी सहमति के आधार पर तय किये गये "मानकों " के अनुसार किया गया है। "मानक" जैसे कि, किसी भी आचरण को "विकृति" की शिनाख़्त देने के लिए उसको जनसंख्या में सहजता से उपलब्ध नहीं होना चाहिए; उसे अच्छे सामाजिक आचरण में बाधा पहुंचाने का दोषी माना जाना चाहिए - जैसे कि, हिंसा या ज़ोर-जबर्दस्ती करने का प्रेरक स्रोत- ; वह अस्थायी हो, और उसके ईलाज़ की संभावना इत्यादि हो, यानी यह सम्भव हो सके कि किसी दूसरी परवरिश के माध्यम से उस प्रकार के आचरण को टाला जा सकता है। तो यानी, जो भी आचरण इन "मानकों" पर खरे उतरते है, वही "मनोविकृति" के रूप में शिनाख़्त किये जाते हैं। और फिर विधि व्यवस्था उन्ही को अपराध मानती है।
हालफिलहाल के शोध में मद्य-आध्यामिकता (spiritual intoxication), यौन सक्रियता और उसको तृप्त करने के लिए हिंसा का प्रयोग, जबर्दस्ती , छल, नशीली दवाएं या मादक पदार्थ, इत्यादि के बीच संबंध को देखा गया है। जैसा की ओशो पंथ और प्राणिक उपचार , दोनों में ही, माना गया है कि आध्यामिकता में प्रवेश करने पर इंसान में यौन सक्रियता भी आ जाती है। और अक्सर करके यह सक्रियता मद्य-आध्यामिकता में तब्दील हो जाती है। आधुनिक मनोविज्ञान और विधि-विधान में इस मद्य-आध्यात्मिकता से उतपन्न यौन सक्रियता को यौन हिंसा, बलात्कार, मादक पदार्थों का दुरुपयोग , समाज में व्यापक मनोविकृत आचरण का दोषी पाया गया है। यहां तक की आतंकवाद और अतिवाद भी इसी प्रकार के संकीर्ण यौन आचरण से प्रेरित होते देखे गये है, और संकीर्ण यौन आचरण को मद्य-आध्यात्मिकता से प्रेरित होता। मद्य-आध्यामिकता ने जनता की अंतरात्मा को दूषित किया है, असामाजिक अमानवीय आचरणों और कृत्यों की चेतना को क्षीर्ण कर दिया है, और आपराधिक कृत्यों को सहज चलन में ला दिया है। जनता की अंतरात्मा में धर्म और अधर्म के बीच भेद कर सकने की स्वचेतना मूर्छित होती रही है जिससे की समाज में अपराध का प्रसार बढ़ा है।
ओशो रजनीश ने कभी, किसी ज़माने में "संभोग से समाधि तक" करके पुस्तक रची थी जिसमे की संभोग (सेक्स क्रिया) के माध्यम से ईश्वरीयता को प्राप्त करने के मार्ग को तलाश किया था।
"प्राणिक उपचार" जैसे कुछ एक गैर-वैज्ञानिक, मगर परंपरागत , विषयों में भी सेक्स क्रिया, सेक्स सक्रियता और ईश्वरीयता(spiritual awakening) के बीच के रिश्ते की चर्चा स्पष्ट शब्दावली में करि जाती है। 'प्राणिक उपचार' विधि में यह माना जाता है की जैसे-जैसे इंसान में ईश्वरीयता का विकास होता है, उसकी "यौन कुंडलियां" भी सक्रिय होने लग जाती है। हालांकि आगे यह विधि यौन सक्रियता को काबू करने पर ही ज़ोर देती है, ओशो रजनीश यहां पर ही बाकी सभी परंपरागत विचारकों से भिन्न हो गये थे। ओशो के अनुसार यौन सक्रियता को सिमटने और रोकने के स्थान पर उनकी पूर्ण तृप्ति के आगे ही सम्पूर्ण ईश्वरीयता को प्राप्त कर लेने का मार्ग ही उचित था। तो ओशो के कहने का अभिप्राय था कि स्वच्छंद यौन आचरण के आगे ही इंसान को ईश्वर की प्राप्ति मिलती थी।
ओशो के विचारों को आज वैज्ञानिक विचारों में इतना अटपटा और गलत नही माना जाता है। जहां अधिकतर पंथों ने यौन आचरण को दमन और सिमटने में ही सदमार्ग की तलाश करि थी, वह सब के सब बहोत ही विकृत किस्म के यौन कर्मकांडों में लिप्त पाये गये थे। यही वह पंथ है जिन्होंने समाज में इंसान को उनके दुःखों से मुक्ति देने की बजाये समाज में मनोविकृति को बढ़ावा अधिक दिया है। छोटे बच्चों से लेकर, बुजुर्ग और यहां तक की पशुओं के संग में अनुचित यौन आचरणों में इसके शीर्ष नेतृत्व और अनुयायी लिप्त पाये जाते रहे हैं समय-समय पर।
प्राचीन काल में भारतीय संस्कृति में जब शायद सभ्यता और सामाजिकता इतनी विकसित नही हुई थी, तब स्वच्छंद यौन आचरण में ईश्वरीयता को तलाशना एक आम और सहज विधि थी, जिससे की फिर 'परमानंद' जैसी अवस्था मिलती थी, और जिसमे की "सभी शारीरिक और मानसिक दुखों से निजात' मिल जाता था। खुजराहो और कोणार्क के जैसे कामोत्तेजक शिल्पकला वाले मंदिरों का निर्माण शायद उसी पंथ विचारधारा का नतीज़ा है। जब शिव पंथ ने 'लिंग' की परम भूमिका न सिर्फ जीवन को सृजन और आरम्भ करने में देखी थी, बल्कि आजीवन दुखों - शारीरिक और मानसिक- से निराकरण में भी देखा था। ऐसा माना जाने लगा था कि जो भी मानव अधिक आयु तक यौन सक्रियता को प्राप्त कर सकेगा,वह ही अच्छा , गुणवत्ता पूर्ण जीवन व्याप्त कर सकेगा - यानी "परमानंद" अवस्था वाला जीवन- और वही शारीरिक और मानसिक दुखों से निजात प्राप्त कर सकेगा।
बरहाल, यह सब उस काल की बातें और विचार थे जब आधुनिक विज्ञान अभी शायद जन्म ही ले रहा था और इतना सुदृण और विकसित नही था जितना की आज है। तब न ही आधुनिक चिकित्सा पद्धतियां हुआ करती थी, न ही आधुनिक विधि व्यववस्था, और न ही psychopathy , psychotherapy जैसे विषय जिसको विद्यालय शिक्षा या अकादमी शिक्षा के माध्यम से प्राप्त करके कोई भी व्यक्ति पेशेवारिय तौर पर समाज में इंसानों को उनके शारीरिक और मानसिक दुखों से निजात दे सके, पूर्ण वैधानिक जिम्मेदारी के संग, कि यदि कुछ ग़लत ईलाज़ किया तो फिर कोर्ट कचहरी के चक्कर काटने पड़ जाएंगे, सज़ा भी मिल सकती है।
आधुनिक विज्ञान ने बहोत सारे परमपरागत यौन आचरणों को "विकृति" के रूप में पहचान करि है , और कुछ एक यौन आचरणों को "विकृति" के बोद्ध से मुक्त किया है। वर्तमान विधि व्यवस्था आधुनिक विज्ञान के दिये तर्क को ही अपराध संबंधित व्यवहारों को समझने का आधार मानती है। उदाहरण के लिए, आधुनिक मनोविज्ञान ने पशु , छोटे बच्चों और बुजुर्ग लोगों के संग किये यौन संबंधों को "विकृति" माना है, और समलैंगिकता को हाल फिलहाल के दशकों में "विकृति" के बोध से मुक्त कर दिया है। आधुनिक विज्ञान, यानी psychology में यह ज्ञान कुछ अध्ययन और आपसी सहमति के आधार पर तय किये गये "मानकों " के अनुसार किया गया है। "मानक" जैसे कि, किसी भी आचरण को "विकृति" की शिनाख़्त देने के लिए उसको जनसंख्या में सहजता से उपलब्ध नहीं होना चाहिए; उसे अच्छे सामाजिक आचरण में बाधा पहुंचाने का दोषी माना जाना चाहिए - जैसे कि, हिंसा या ज़ोर-जबर्दस्ती करने का प्रेरक स्रोत- ; वह अस्थायी हो, और उसके ईलाज़ की संभावना इत्यादि हो, यानी यह सम्भव हो सके कि किसी दूसरी परवरिश के माध्यम से उस प्रकार के आचरण को टाला जा सकता है। तो यानी, जो भी आचरण इन "मानकों" पर खरे उतरते है, वही "मनोविकृति" के रूप में शिनाख़्त किये जाते हैं। और फिर विधि व्यवस्था उन्ही को अपराध मानती है।
हालफिलहाल के शोध में मद्य-आध्यामिकता (spiritual intoxication), यौन सक्रियता और उसको तृप्त करने के लिए हिंसा का प्रयोग, जबर्दस्ती , छल, नशीली दवाएं या मादक पदार्थ, इत्यादि के बीच संबंध को देखा गया है। जैसा की ओशो पंथ और प्राणिक उपचार , दोनों में ही, माना गया है कि आध्यामिकता में प्रवेश करने पर इंसान में यौन सक्रियता भी आ जाती है। और अक्सर करके यह सक्रियता मद्य-आध्यामिकता में तब्दील हो जाती है। आधुनिक मनोविज्ञान और विधि-विधान में इस मद्य-आध्यात्मिकता से उतपन्न यौन सक्रियता को यौन हिंसा, बलात्कार, मादक पदार्थों का दुरुपयोग , समाज में व्यापक मनोविकृत आचरण का दोषी पाया गया है। यहां तक की आतंकवाद और अतिवाद भी इसी प्रकार के संकीर्ण यौन आचरण से प्रेरित होते देखे गये है, और संकीर्ण यौन आचरण को मद्य-आध्यात्मिकता से प्रेरित होता। मद्य-आध्यामिकता ने जनता की अंतरात्मा को दूषित किया है, असामाजिक अमानवीय आचरणों और कृत्यों की चेतना को क्षीर्ण कर दिया है, और आपराधिक कृत्यों को सहज चलन में ला दिया है। जनता की अंतरात्मा में धर्म और अधर्म के बीच भेद कर सकने की स्वचेतना मूर्छित होती रही है जिससे की समाज में अपराध का प्रसार बढ़ा है।
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