भीड़ में जाने पर क्या झेलना पड़ता है
बचपन में जब कभी train से जाना होता था, तब sleeper boggie में बैठी भीड़ के संग में बैठा पड़ता था।
भीड़ किसको कहते हैं?
ढेर सारे आदमी जब एक साथ इक्कठे हो जाते हैं, उसे भीड़ कहते है।
दिक्कत क्या है भीड़ में?
हर एक इंसान का अलग चालचलन, अलग उठने बैठने का तरीका, अलग खाने पीने, और self cleaning का तरीका होता है। कोई मुंह खोल कर चबाता है, कोई मुंह बंद करके,
कोई नाक से सांस लेता है, कोई मुंह से। किसी के मुंह से बदबू आती है, किसी के नहीं। कोई नाक में उंगली डाल कर सफाई कर देता है, यूं ही खुल कर सबके सामने नाक में जमा मलबा निकाल कर, कोई हिचकता है और केवल बाथरूम में जा कर सफाई करता है।
कोई तो ऐसी सफाई करके हाथ तक साफ नहीं करता है; बस यूं ही चुप मार कर बैठ जाता है। कोई hygiene समझता है, पूरी सफाई करता है , हाथो से लेकर चहरे तक की।
कोई गला खराश करके यूं ही कही, अपने आसपास या बगल में थूक देता है,
और कोई बाथरूम में।
ये सब देख कर अंदर से गंदगी में घिर जाने की बेहद घृणा वाली feeling आने लगती है , अपने भीतर में। और हमारा अपना खाना पीना , सांस लेना गंदा लगने लग जाता है।
ये होता है भीड़ का चरित्र।
इतने सारे लोगो के एक साथ जमा होने से उनके शरीर की बदबू भी एक साथ इतनी मजबूती से उठती है, कि सांसे को पता लगने लगता है। और याद उनसी भीड़ में कोई पेट की गैस भी निकाल दे, तो ...और स्वाहा हो जाता भी वातावरण !
ये वाला भीड़ का चित्रण पूराने जमाने से बड़े बड़े लेखको ने किया है। वह लोग भीड़ को अपने आप में एक काल्पनिक इंसान मानते थे, न की तमाम इंसानों का एक साथ इकठ्ठा होना ! इस तरह उनको आसानी होती थी, एक बार में , एक ही शब्द में अपने तमाम दुर्दशा को बता देने में कि वह क्या बदतर हालात का जिक्र कर रहे है ।
सिर्फ एक शब्द में सारी बातों को समा दिया जाता था --- भीड़ !
और तो और, भीड़ बेअक्ल भी होती है , बेकाबू और हिंसा करने पर उतारू। भीड़ के सदस्य एक दूसरे को समझा बुझा नहीं सकते हैं।
भीड़ को नियंत्रित करने के लिए या तो कोई भीड़ प्रभावशाली व्यक्ति चाहिए होता है, जिसको सभी लोग सुनते और मानते हों, बिना सवाल जवाब किया,
या फिर, भीड़ को पुलिस बल से नियंत्रित किया जा सकता है। ताकत और डंडे से। पिटाई लगा कर।
और अगर ऐसी भीड़ में कोई शक्तिशाली आदमी कहीं से आ जाए, जो केवल खुद के लिए आराम, ढेर सारी जगह और खास सुरक्षा, मस्ती से रहने का स्थान बना ले ,
तब भीड़ हमे अंदर से खुद के तुच्छ होने का अहसास देने लगती है। एक बेहद अपमानजनक भावना।
जैसे कि, कोई बड़ा अधिकारी, या नेता या कोई गुंडागर्दी करने वाला इंसान।
तब मन में और अधिक कुंठा आने लगती है कि इस आदमी में क्या खास है, हमे क्यों नहीं ऐसा सब खास ओहदा मिलता, क्या हमारा कोई अधिकार नहीं होता है। अहसास आता है की असल में आपके अधिकार को केवल किसी किताब में लिख देने भर से नहीं मिल जाता है, अपने अधिकार को भीड़ में पाने के लिए शक्ति भी चाहिए होती है !
शासन शक्ति, पुलिस शक्ति।
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