Monotheist धर्म और Polytheist धर्म
Monotheist धर्म और Polytheist धर्मों में सांस्कृतिक फांसले ठीक वैसे ही हैं जैसे अशिक्षित मिठाईवाले के बेटा के विदेश से डॉक्टरी की पढ़ाई करके घर लौटने पर दिखते हैं।
Polytheist धर्म फ़िट बैठते हैं अशिक्षित मिठाईवाले की भूमिका में , जबकि monotheist धर्म उसकी विदेश से शिक्षित हो कर लौटी संतान के समान होते है।
Polytheist धर्मों ने दुनिया भर में जहां भी रहे , समाज में भयंकर अंतर द्वन्द को जन्म दिया। monotheist धर्म का जन्म इस द्वन्द की प्रतिक्रिया से प्राप्त समझदारी और चेतना में हुआ है। एक प्रकार से समझें तो monotheist धर्म एक निवारण थे।
शायद यूसु मसीह के बाद से polytheist धर्मो का उत्थान पूरी तरह से समाप्त हो गया। और जितने भी पुराने polytheist धर्म थे, वो सब के सब अपने अनुयायिओं में अप्रिय हो कर बंद होते चले गये।
क्या कारण रहे होंगे इनके लोगों में अप्रिय होने में?
दुनिया भर से polytheist पंथ के अनुयायी तब्दील हो कर नये युग की चेतना में प्रवेश कर गये, और monotheist धर्मो में धर्म परिवर्तित हो गये। शायद ही कुछ एक पिछड़ी, जड़ भूमियों में कुछ polytheist धर्म बाकी रह गये हैं, जैसे भारत में सनातन धर्म या हिन्दू धर्म के अनुयायी।
Polytheist धर्म पंथ की अपनी बहोत से कमियां थी, जो की वर्तमान के अनुयायी आजभी न तो समझते हैं, न स्वीकार करते हैं। मज़े की बात है कि ऐसा नही की इन कमियों के बाद इनके समाज स्वस्थ है, और शांति और विकास को प्राप्त कर रहे हैं। बल्कि इनके समाज बेहद अस्वस्थ हैं, बेहद हिंसा से ग्रस्त हैं, अशांत हैं, वापस अंतर द्वन्द को भोग रहे हैं, बाहरी आक्रमणकारियों का शिकार बनते रहते हैं, अंतरात्मा से बेहद भ्रष्ट हैं, नैतिकता में कमज़ोर हैं, विधि का पालन कर सकने में असक्षम हैं, नीति निर्माण में भेदभाव और पक्षपात से विनुक्त नही हो सकते हैं, बौद्धित विकास को प्राप्त नही कर सकते है, बौड़म होते हैं, तथा आज भी निरंतर पाखण्ड से जूझ रहे हैं, ठग और धोखाधड़ी, शोषण भोगते है धर्म के नाम पर।
और इन सबके चलते खुद इनके भीतर आज भी नित नये monotheist उपपंथ जन्म ले रहे हैं, अपने अपने स्थानीय समाजों को एकत्र करके संरक्षित करने के लिए। उन्हें सुरक्षा और शांति दे कर विकास पथ पर अग्रसर करने हेतु।
Polytheist धर्मों में क्या कमियां होती है?
Polytheist धर्मों में औघड़ पना होता है। औघड़ पन को आप neanderthalism करके समझें। यह इंसान के क्रमिक विकास की वो अवस्था थी जब आदिमानव इंसान अभी जंगली वनमानुष से थोड़ा विकास करके गुफ़ाओं में आ कर निवास करना आरम्भ ही किया था। ऐसे काल में मनुष्य की ज़रूरत थी अपने भय पर काबू करना। धार्मिकता का उत्थान उसी मनोवैज्ञनिक आवश्यकता में से हुआ है, आदिमानव के भीतर। भय को काबू करने की ज़रूरत।
इसके लिए प्रत्येक आदिमानव ने जब , जहां जो भी शक्तिशाली महसूस किया, जो की उनके भय के पदार्थ /वस्तु को पराजित कर सकता हो, उनकी आराधना आरम्भ कर दी, ताकि उस आराध्य ईष्ट देव की शक्ति के भरोसे खुद को संरक्षित कर सकें।
तो यहाँ से आरम्भ हुआ आदिमानव इंसानी दिमाग में "भगवान" या देवीदेवता नामक ईष्ट के चलन का। और यही से धर्म निकाल पड़ा।
धर्म ने समाज को बसाने में बहोत अहम भूमिका निभाई हुई है, जो कि वह आज भी निभा रहा है। धर्म से ही आरंभिक नैतिकता निकली है, और नैतिकता के नये आधुनिक युग के संस्करणों से ही विधि यानी कानून और संविधान का निर्माण हुआ है। हालांकि नैतिकता सदैव हर युग में स्थायी नही रही है। पुरानी नैतिकताएं कच्ची-पक्की थी, अभी भी बहोत कमज़ोर थी कि जिनसे वो समाज के बढ़ते दायरे में से राष्ट्रों का निर्माण कर सकें। प्राचीन नैतिकताएं खामियों से भरी हुई हुआ करती थी, अन्याय और अमानवीयता के कर्मो और कार्यों से प्रदूषित थी। समय काल में बौद्धिकता के बढ़ते प्रभाव और प्रसार में इंसानो ने इन अशुद्धियों को समाप्त किया, इन पर विजय प्राप्त करे, और तब जा कर वह छोटे छोटे समाज आपस में जुड़ कर आधुनिक राष्ट्र वाले अवस्था को प्राप्त कर सके।
शक्तिशाली राष्ट्र की अवस्था नैतिकता में और अधिक शुद्धता लाने से निर्मित होती है।
Polytheist पंथों की नैतिकताओं में अशुद्धता बहोत अधिक होती थी और है। उदाहरण के तौर पर - यह समाज भ्रष्टाचार से ग्रस्त रहते हैं क्योंकि लेन-देन या ईश्वर की खुशामद करना, "प्रसाद चढ़ना" इनके अंदर मान्य प्रक्रिया होती है। वहां ये चलन बकायदा प्रसारित करि जाती है। इसी प्रकार, polytheist पंथ में शोषण (आर्थिक और श्रमिक) के विचार के लिए स्थान नही ही। वहां इसको झेलने की शक्ति प्राप्त करने की ईश्वर स्तुति करि जाती है, बजाये की ईश्वरीय आदेश से शोषण को नियंत्रित करें या समाप्त करें।
Polytheist पंथ के समाजों में स्वामी और दस के संबंध में आज भी विचरण करते हैं। इनमें स्वाधीनता के विचार का प्रसार नही है। बल्कि कई इंसानो की अन्तरात्मा आज भी बड़ी सहजता से इस प्रकार के संबंध को स्वीकार करे हुई है। वहां शोषण की पहचान नही है, बल्कि दासत्व में ही निर्वाण और मुक्ति देखी जाती है, ईश्वर से समीप सम्बद्ध प्राप्त करने का मार्ग दिखता है। तो फ़िर आवश्यकता के अनुसार तथाकथित शोषण को झेलने की आवश्यक शक्ति दी जाती है, न कि विद्रोह करके मुक्ति पाने की युक्ति !
Polytheist पंथों में तर्क बेहद प्रौढ़ अवस्था में होते है, जिसके चलते इनके अनुयायी मानसिक तौर पर बौड़म होते हैं। बल्कि polytheist पंथ तर्क से कम, विश्वास के सहारे अधिक खड़े हुए हैं। polytheist पंथ उस काल में उत्पत्ति लिए है जब ज्ञान का भंडार बना ही नही था। तब इंसान सिर्फ विश्वास , या श्रद्धा के अनुसार ही जीवन की समस्यायों का समाधान करता था। तब तर्क नही के बराबर हुआ करते थे। यह विश्वास ही आधुनिक युग में, तर्कों के प्रसार के उपरान्त "अंधविश्वास" बनते चले गये। दिक्कत यह है की polytheist पंथों के अनुयायी आज भी अंधविश्वास और तर्क में भेद कर सकने में मानसिक तौर पर योग्य नही होते हैं, और इसलिये बौद्धिक विकास में अपरिपक्व , यानी बौड़म होते हैं।
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