ऐसा क्यों हुआ यूपी बिहार के समाजों में? क्यों यहां के लोग आर्थिक शक्ति बनने में कमज़ोर पड़ते चले गए?
यूपी बिहार के लोगो की आर्थिक हालात देश मे सबसे ख़स्ता हाल है। यहां के गरीब इंसान के परिवार के बच्चे सिर्फ राजनीति की बिसात पर पइदा बनने के लिए ही जन्म लेते हैं। कुछ बच्चे तो बड़े हो कर कौशल हीन मज़दूर बन कर दूसरे सम्पन्न राज्यों में प्रवास करके, झुग्गी झोपड़ियों में रहते हुए मज़दूरी करते हैं, उन राज्यों के मालिक के शोषण, मार और गालियां, उनके घमंडी हीन भावना का शिकार बनते है,
और बाकी बच्चे देश की सेनाओं और पैरामिलिट्री में भर्ती को कर बॉर्डर पर भेज दिए जाते हैं, गोली खाने।
और बाकी बच्चे देश की सेनाओं और पैरामिलिट्री में भर्ती को कर बॉर्डर पर भेज दिए जाते हैं, गोली खाने।
ऐसा क्यों हुआ यूपी बिहार के समाजों में? क्यों यहां के लोग आर्थिक शक्ति बनने में कमज़ोर पड़ते चले गए? गौर करें तो यह सिलसिला आज से नही , बल्कि पिछले कई शताब्दियों से है। क्या गलतियां है? क्यों ऐसा हुआ?
मेरा अपना मत है कि इसका कारण छिपा हुआ है यूपी बिहार में प्रायः पायी जाने वाली धार्मिकता में। प्रत्येक समाज को सशक्त और विकास के पथ पर अग्रसर करने की सबसे महत्वपूर्ण कड़ी होती है - आपसी विश्वास। और आपसी विश्वास का जन्म और स्थापना होती है उस समाज के प्रचुर धार्मिक मूल्यों से।
दिक्कत यूँ है कि यूपी बिहार के समाजों में प्रायः पाए जाने वाले धार्मिक मूल्य बहोत अधिक दूषित हो चुके हैं। यहां कुतर्क और आत्ममोह का बोलबाला है।
यूपी बिहार ने पिछले कई दशकों से कोई भी बड़े धार्मिक नेतृत्व देने लायक जनप्रिय नेता भी नही दिया है। गौर करें कि जो भी दिग्गज नेता यूपी से आये है जो राष्ट्रीय राजनीति पर राज कर सके , वो ब्राह्मण कुल से थे। ब्राह्मण कुल में स्वार्थ , आत्म मुग्धता बहोत अधिक मिलती है। वही हश्र हुआ है इन क्षेत्रों की धार्मिकता का भी। अटल बिहारी बाजपेयी भी कोई इतने अधिक जनप्रिय नही बन सके कि खुद अपनी पार्टी की सरकार को दुबारा कायम कर सके थे।
वो व्यक्तिगत तौर पर बड़े नेता हुए, मगर जनप्रियता में इतने सक्षम नही थे कि सामाजिक कायापलट कर दें।
वो व्यक्तिगत तौर पर बड़े नेता हुए, मगर जनप्रियता में इतने सक्षम नही थे कि सामाजिक कायापलट कर दें।
धार्मिक नेता का उत्थान समाज को विकास की राह पर मोड़ने के लिए आवश्यक कदम होता है। महाराष्ट्र में शिरडी के साईं बाबा से लेकर बाल गंगाधर तिलक और खुद वीर सावरकर ने भी बहोत कुछ योगदान दिया अपने समाज के धार्मिक मूल्यों को उच्च और निश्छल बनाये रखने के लिए।
धार्मिक मूल्यों की निश्छलता को कायम रखना और जनमानस में उनके प्रति आस्था को बनाये रखना आपसी विश्वास की सबसे प्रथम कड़ी होती है।
मगर यूपी में यह कमी पिछले कई शताब्दियों से उभर कर सामने आई है। लोग आस्थावान तो हैं, बिखरे हुए हैं अलग अलग धार्मिक नेतृत्व की छत्रछाया में। लोग अंध श्रद्धा वान बनते चले गए हैं
और बड़ी दिक्कत है कि धार्मिकता ने स्वयं की शुद्धता , पवित्रता और आधुनिकता को बनाने के प्रयास समाप्त कर दिए हैं। जबकि इधर महाराष्ट्र , गुजरात मे आधुनिक धार्मिक शिविर जैसे iskcon और स्वामीनारायण ने जन्म लिए और धर्म को नव युग की आवश्यकता के अनुसार संचालित करने कार्य निरंतर पूर्ण किया है।
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