The UPSC C-SAT Issue and the alleged anti-Hindi exam process
It seems like the Hindi speaking UPSC candidates are seeking a political solution to a technical challenge before them of passing the C-SAT (civil services aptitude test).
We don't expect any other thing than 'Politicing' when such candidates come around through UPSC into the bureaucracy. That India's fate is in the hands of Idiots and buffoons is a foregone conclusion now, who come in various shapes and forms such as the Bureaucracy, Politicians and the vernacular news media.
C-SAT consist of logical reasoning, language comprehension, analytical ability-those very mental skills which make up the IQ(intelligent quotient) of a person. Being unable to clear this exam-the obvious failed candidates are lobbying up as "Rural background,hindi speaking candidates" (being discriminated against systematically through the CSAT).
From a distance it should be a default conclusion that a candidate who cannot come through the test of these brain skills is NOT "capable"(i am deliberatly avoiding the word "unworthy") of serving the society and the nation through the bureaucracy. In my own experience, just as the pressure of RTI Act has begun to mount higher on the presently serving bureacracy to adopt more transparent decision-making process, communication skills-cum-analytical ability have become more important requisites for a bureaucrat.
How then does this lobby of unsuccessful candidates demand and convince the people of india of their potentials and their capacities? The contest they make is not just against the Government BUT THE ENTIRE NATION.
Does this lobby not have the Intellect to know that raising a political demand to lower the standards of the UPSC exam (by scrapping the CSAT exam on the pretext of Language discrimination) is no wiser solution THAN to resolving BY improving their standards. How does this lobby convince to everyone that their standards are already ripened and saturated, and that no language-fix can be an alternate solution??
There are no samples of the CSAT paper in the public domain for everyone to fairly judge the problem aspect by his own senses. Is it fair and reflecting good on the wisdom of this lobby to press their demand without having come openly in the public space?
India suffers from illness of Stupidity and I, for one, is keen to detect where all does the stupidity creep into our system. In the CSAT issue, I see a big source of the illness making the inroads.
हिंदी अनुवाद:
ऐसा लगता है की हिंदी भाष्य लोक सेवा परीक्षार्थी अपने समक्ष प्रस्तुत "लोक सेवा मनोभाव योग्यता परीक्षा" की तकनीकी चुनौती का समाधान एक दल-गत कूटनीति के दरवाज़े से चाहते हैं।
भविष्य में ऐसे समाधान द्वारा सफल हो कर आये इन परीक्षार्थियों से हमे दल गत कूटनीति के अलावा कोई बेहतर निवारणों की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए। यह तो मान कर ही चलें की भारत का भविष्य मानसिक और बौद्धिक रूप से असक्षम और अयोग्य व्यक्तियों के हाथों में है जो की कई रूपों में, जैसे नौकरशाही, राजनेता और स्थानीय भाषा में की पत्रकारिता, इत्यादि रूपों में हमारी नियति पर विराजमान हैं।
लोक सेवा मनोभाव-योग्यता परीक्षा में परीक्षार्थी की तार्किक सक्षमता, भाषा- संवाद-संचार सक्षमता, विश्लेषण सक्षमता की जांच करी जाती है। यह सब सक्षमताऐ मनुष्य की समुचित मानसिक और बौद्धिक योग्यताओं का अंश होती हैं। अब इस प्रकार की परीक्षा में असफल हो रहे परीक्षार्थी जाहिर तौर पर एक दल बना रहे हैं, "ग्रामीण परिवेश, हिंदी भाषी" नामक वर्ग के तहत और अपनी असफलता का तकनीकी समाधान के स्थान पर दल-गत कूटनैतिक समाधान दूंढ रहे हैं यह आरोप लगा कर की परीक्षा के माध्यम से उनके विरुद्ध व्यवस्था-प्रसारित भेद-भाव किया जा रहा है।
दूर से समस्या का मुआयना करने पर समस्त देशवासियों को यही आरंभिक आभास होना चाहिए कि जो परीक्षार्थी इस मनोभाव परीक्षा में असफल होते हैं उनके लोक-सेवा कार्य (समाज और राष्ट्र निर्माण के कार्य) के लिए "अन-उपलब्ध" ही माना जाना चाहिए (यहाँ एक ख़ास प्रायोजन से मैं इन परीक्षार्थियों को 'अयोग्य' नहीं कहना चाहूँगा)। मेरे खुद के विचारों में आज जहाँ सूचना अधिकार अधिनियम का दायरा बड़ा और विक्सित हो रहा है, वर्तमान नौकरशाहों के ऊपर सूचना अधिनियम एक दबाव बनाता सा लग रहा है की वह अपनी निर्णय-प्रक्रिया को और अधिक पारदर्शी बनायें, ऐसे में नौकरशाहों को संवाद-संचार तथा विकीश्लेषण क्षमता की अधिक विक्सित योग्यताओं की आवश्यकता पड़ने वाली है।
ऐसे हालात में यह असफल परीक्षार्थियों का उभरता हुआ दल कैसे अपनी जटिल और विक्सित मानसिक क्षमता का भरोसा हम देशवासियों को दिलाना चाहेगा? यह परीक्षार्थी दल अपना विवाद सिर्फ सरकार के विरुद्ध नहीं कर रहा है, यह समस्त देश के विरुद्ध भी है।
क्या इस दल की बौद्धिक क्षमता इतनी निम्न है कि वह यह भी ऐहसास भी नहीं कर सक रहे हैं की वह एक चुनौती का निवारण उसे पार लगाने की अपेक्षा उस चुनौती के स्रोत को ही नष्ट कर देने में दूंढ रहे हैं-यह आरोप लगा कर की यह मनोभाव-योग्यता परीक्षा उनके विरुद्ध भाषा-गत भेदभाव है। यह दल कैसे इस देश के नागरिकों को यह विश्वास दिलाना चाहेगा की उनकी मनोभाव-योग्यता परिपूर्ण है और संवाद-संचार तथा विश्लेषण क्षमता पूर्णतः समृद्ध हैं , इस लिए परीक्षा का निरस्त्रीकरण ही एकमात्र समाधान है , तथा परीक्षा पत्र की भाषा में सुधार की गुंजाइश से समाधान नहीं हो सकता है।
लोक सेवा मनोभाव योग्यता परीक्षा का उद्धाहरण प्रश्न पत्र अभी जन जागृति में नहीं है जिसे की कोई भी नागरिक स्वयं अपनी इन्द्रियों के प्रयोग से तय कर सके की इस दल की समस्या है क्या। ऐसे में क्या इस "ग्रामीण परिवेश, हिंदी भाषी" दल का आरोप उनकी बुद्धिमानी पर ही प्रश्न चिन्ह नहीं खड़ा करता है की बिना पूर्ण तथ्य को जग-जाहिर किये वह एक विरोद्ध प्रदर्शन और अन्याय का आरोप लगा रहे हैं।
मेरे विचारों में भारत मूर्खता (मानसिक और बौद्धिक असक्षमता) के रोग से ग्रस्त है और मैं बहोत उत्तेजित हूँ यह जानने के लिए कि यह मूर्खता हमारी व्यवस्था में कैसे-कैसे प्रवेश करती है। लोक सेवा परीक्षा से सम्बंधित इस विवाद में मैं मूर्खता को प्रवेश करने के लिए एक विशाल द्वार को खुलता हुआ देख रहा हूँ।
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