संविधान का आलोचनात्मक अध्ययन
संविधान का आलोचनात्मक अध्ययन
ऐसा नही की यह संविधान बिना किसी आलोचना के, सर्वस्वीकृत पारित किया था। खुद अम्बेडकर जी ,जो कि ड्राफ्टिंग समिति के अध्यक्ष थे, उन्हें भी संविधान के अंतिम स्वरूप को एक workable document कहकर पुकारा था, यह समझते हुए की इस डॉक्यूमेंट से सभी गुटों की मांगें और जायज आलोचनाएं पूर्ण नही हो सकी है, मगर इससे अधिकांश जायज आलोचना को शांत करने का मात्र एक प्रयास हुआ है। उन्होंने संविधान के अंतिम प्रपत्र को सभा को देते हुए उम्मीद जताई कि शायद भविष्य में इन के द्वारा निर्मित प्रक्रियों को अपना करके हमारा देश भविष्य काल मे कभी सारी जायज आलोचना को शांत कर सकेगा।
क्या थी भारत के संवीधन की आलोचनाएं, यह इस लेख में चर्चा का बिंदु है।
1) सर्वप्रथम आलोचना थी कि अधिकांश उच्च वर्ग, उच्च जाति (upper class, upper caste) गुटों ने आरक्षण सुविधा को स्वीकृत नही किया था। यह गुट वैसे भी भारतीय समाज मे हुए भेदभाव के ऐतिहासिक तथ्य को सत्य नही मानता है, और इसलिए भेदभाव के उपचार को भी स्वीकार आखिर क्यों करता ?
2) संविधान की एक आलोचना यह थी कि वह इतना विस्तृत और घुमावदार भाषा , तथा अनुच्छेद वाला है कि साधारण, विशेष अध्ययन किये बिना किसी को उसके भीतर की मंशा और तर्क प्रवाह समझ मे ही नही आएगा।
खास तौर पर अमेरिका के नागरिक अधिकार, ब्रिटेन के सरल कानूनों के समक्ष भारत का संविधान बहुत ही जटिल लेखा जोखा है।
इस आलोचना के प्रतिउत्तर में अंबेडकर और अन्य लोगो ने कहा कि इतना जटिल , विस्तृत करने से दोहरे उच्चारण की संभावना निम्म हो जाती है।
हालांकि वर्तमान में पलट कर देखें तो लगेगा कि असल मे आलोचक ही सही साबित हुए। संविधान की जटिलता के चलते कानून में से predictibility का गुण नष्ट हो गया है। आज वास्तव में कोई भी नागरिक पूर्ण विश्वास के साथ अंदाज़ा नही लगा सकता है कि किस स्थिति में सही उच्चारण क्या है !? कानून सिमट करके के कोर्ट के चौखटे के भीतर जज की मनमर्ज़ी बन गया है, और जज सही कह रहा है या नही, इसको माप करने का कोई मापदंड बचा ही नही है।। कोर्ट के चौखटे के बाहर सिर्फ जज का निर्णय निकलता है, उसका तर्क और विपक्ष की आलोचना या कटाक्ष नही, और जिसका कुछ किया भी नही जा सकता।
3) एक आलोचना यह भी रही थी कि केंद्रीय सरकार कही अधिक बलवान और शक्तिशाली हो जाएगी राज्य सरकारों से, और राज्य सरकार शक्तिशाली हो जाएगी स्थानीय सरकारों से।
इस आलोचना के प्रतिउत्तर में अम्बेडकर जी का जवाब था कि यह तो दुनिया भर में सर्व सत्य है , और इसे रोकना बहोत मुश्किल होगा। संविधान में प्रयास है कि राज्य सरकारों या स्थानीय सरकारों के लिए कुछ विषय संरक्षित किये जा सकें। इतना भी यदि प्राप्त कर सके तो काफी होगा।
मगर आज यदि हम पलट कर सोचे तो देखेंगे कि आलोचक ही सही साबित हुए। केंद्र कही अधिक शक्तिशाली हो कर सरकारों को राज्यपाल के हस्तक्षेप से गिरवा भी लेता है। या स्थानीय सरकार में विपक्ष आ जाये तो असहयोग करके, या बजट के चाबुक से उसे जनहित कार्य करने में बंधित करता है। ताकि जनता में उस पार्टी की छवि धूमिल कर के अपने नंबर बढ़ा लें।
4) एक आलोचना यह थी कि न्यायपालिका के अवैध, अनैतिक आचरण के प्रति संविधान में कोई भी रोकथाम उपलब्ध नही है। यदि न्यायपालिका ही नागरिक हित को खाने लगे तो फिर आगे कुछ भी मार्ग नही बचता।
इस आलोचना के जवाब में अम्बेडकर जी ने man is vile by nature , then कहकर खंडन किया और उम्मीद रखी कि शायद महामहिम राष्ट्रपति जी का शक्तियों का प्रयोग इसको रोक सकेगा, और यदि राष्ट्रपति भी अंतरात्मा के रक्षक की भूमिका नही दे सके तो फिर शायद हम सबको स्वीकार कर लेना होगा कि इंसान का स्वाभाविक चरित्र निर्माण ही अनैतिकता से हुआ है और ऐसे में दुनिया का कोई भी संविधान बेकार हो जाने वाला है।
आलोचकों ने यहाँ राष्ट्रपति पद के नियुक्ति और कार्यकाल प्रक्रिया पर कटाक्ष किया कि अपरिपक्व हैं , इसमे ही गलती है। अम्बेडकर जी के man is vile वाले प्रतिउत्तर के premature होने की आलोचना हुई कि अभी सभी प्रयास और विकल्प तलाशे बिना ही अम्बेडकर जी इस विचार पर आ गए। मगर इस आलोचना को अनदेखा , अनसुना से कीया गया। राष्ट्रपति के non-partisan या bi-partisan होने का debate यही से आरम्भ हुआ था। आज तो उल्टे partisan व्यक्ति ही राष्ट्रपति बनते हैं।
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