रेफरी विहीन shouting मैच है भारत की राजनैतिक प्रशासनिक व्यवस्था
प्रश्न:-
Via Mani M
अपना मानना है कि यदि नरेंद्र मोदी लड़कपन में संघ दफ्तर नहीं पहुंचते और उसकी जगह शेयर बाजार पहुंचते तो वे अरबपति बने हुए होते । वे राजनीति में आए तो धुन ने ही उनको संघ परिवार के शीर्ष पर पहुंचाया। इस धुन का कोर तत्व मार्केंटिग है। मोदी के जीवन के हर चरण में मार्केटिग ही सफलता की सीढ़ी रही है | मार्केटिंग का पहला और अंतिम मूल मंत्र यह है कि ग्राहक को रिझाने के लिए ऐसा कुछ लगातार होता रहे जिससे वह लगातार विश्वास दिए रहे।
इस बात को और बारीकी से समझना है तो सोचें क्या राहुल गांधी झाडू ले कर स्वच्छ भारत का आईडिया या इवेंट बना सकते थे? क्या ममता बनर्जी संकट की घड़ी में अपनी मां को बैंक में भेज कर नोट निकलवाने का आईडिया सोच सकती थीं? क्या नीतीश कुमार अरबपतियों का जमावड़ा कर मेक इन इंडिया जैसा इवेंट कर सकते हैं? क्या अरविंद केजरीवाल अचानक लाहौर पहुंच कर नवाज शरीफ के साथ पकौड़े खा सकते थे? क्या मनमोहनसिंह हैदराबाद हाउस में बराक ओबामा के आगे लखटकिया सूट पहन चाय पिलाने, उन्हें तू और मैं के संबोधन वाले दोस्त का फोटो सेशन का आईडिया बना सकते थे? क्या आटे की बात करने वाले लालू यादव डिजिटल इंडिया का आईडिया निकाल सकते हैं? क्या नीतीश कुमार न्यूयार्क में प्रवासी भारतीयों का जमावड़ा बना कर रॉक स्टार शो दे सकते हैं? क्या कोई भी एक्सवाई नेता एक दिन टीवी पर यह घोषणा कर सकता था कि आज रात 12 बजे बड़े नोट बंद? क्या अखिलेश यादव गंगा में नरेंद्र मोदी की भगवा, रूद्राक्ष माला वाली पोशाक के साथ आरती का आईडिया बना सकते? क्या मायावती पीओके के भीतर सर्जिकल स्ट्राइक कर उससे देश को सन्ना देने का आईडिया सोच सकती थीं?
य़े सब आईडिया हैं, घटनाएं हैं जो चौबीस घंटे जनता को मैसेज देने की धुन के मकसद से हैं। हर दिन ऐसा कुछ जिससे लोगों में मैसेज बने और आंखों के आगे, दिमाग में नरेंद्र मोदी का चेहरा घूमता रहे। इसमें पूरा महत्व विजुअल का है। तस्वीर को, बात को अलग-अलग तरीकों से पैठाने का है। कभी दहाड़ कर, कभी रो कर, कभी अपनी कुर्बानी को याद दिला कर, कभी राम बन कर, कभी सेवक बन कर तो कभी ललकार कर!
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उत्तर :-
बात सही है। मगर मार्केटिंग की ऐसी ट्रिक्स कामयाब ही इसलिए हो रही है कि right knowledge देने वाली जनमान्य संस्था देश मे कोई बची ही नही है।
मोदी जी की मार्केटिंग तकनीक से वाशिंगटन पोस्ट, बीबीसी , न्यूयॉर्क टाइम्स , या nobel prize विजेता, लंदन school ऑफ economic जैसी संस्थाएं प्रभावित कभी भी नही करि जा सकती है।जैसा कि हम देख भी रहे हैं।
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मोदी की मार्केटिंग तकनीक नही है, यह भारत के राजनैतिक प्रशासनिक तंत्र की कुव्यवस्था का नतीजा है कि झूठ ज्यादा बिक रहा है सच से।
*क्योंकि भारतीय व्यवस्था में कोई भी स्थायी संस्था नही है जो कि व्यवस्था में keeper of the conscience की भूमिका अदा कर सके।*
क्या है यह भूमिका इसको समझने के लिये कुछ अन्य व्यवस्थाओं से तुलनात्मक अध्ययन करने पड़ेंगे।
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भारत ने अपना प्रशासनिक तंत्र ब्रिटेन से हस्तांतरण में प्राप्त किया था।
और ब्रिटेन ने यह तंत्र स्वयं अपने विशिष्ट सामाजिक -ऐतिहासिक घटनाओं से trial and error से रचा बुना था।
इसीलिये उनके तंत्र की खासियत आज भी यह है कि वह republican डेमोक्रेसी नही, बल्कि monarchical डेमोक्रेसी है। ऐसा इसलिए क्योंकि वहां डेमोक्रेसी तब आयी जब जनता के आक्रोश ने राजा को आंतरिक युद्ध के बाद हरा दिया था।
मगर उनके विचारक चालक बुद्धिमान थे। उन्होंने यह मानवीय ज्ञान प्राप्त कर लिया की power corrupts, absolute power absolutely corrupts। तो उन्हें पावर को नियंत्रित करने का तरीका ढूंढा power balance (या checks and balance) के सिद्धांत पर। इसके लिए राजशाही को खत्म नही किया बल्कि संसद बना कर राजशाही को लगाम में कर दिया।
इससे क्या मिला , जो कि भारत मे नकल करके लिए republican democracy तंत्र में नही है ?
भारतीय तंत्र में ब्रिटेन के मुकाबले Keeper of the conscience की भूमिका देने वाला पद कोई भी नही बचा। britain में चूंकि राजशाही dynasticism पर है, इसलिए वह आजीवन उस पद पर रहते हैं , और उनके उपरांत पद का उत्तराधिकारी संसद के चुनाव से नही, बल्कि वंशवाद पद्धति से आता है। यानी राजा स्वंत्र चिंतन का व्यक्ति है।
भारत मे राष्ट्रपति संसद ही चुनता है, और वह पांच साल में रिटायर भी होता है। इसलिए वह मोहताज़ है अपने अगले कार्यकाल के लिए politicial class का।तो वह keeper of conscience की भूमिका नहीं देता है । अगर राष्ट्रपति कलाम साहब की तरह propriety का सवाल करे तो फिर फाइल को उनकी मेज़ तक नही पहुचने दो, उसके रिटायरमेंट के इंतेज़ार कर लो !!। तंत्र को छकाने के जुगाड़ी तरीके तमाम है। मगर ब्रिटेन में तो आजीवन बने रहने वाली राजशाही है। और britain के बढ़े शिक्षण संस्थाएं, और बीबीसी जैसे जन सूचना संस्थाएं सीधे राजा के अधीन है, संसद के नही। और उनका धन खर्च गणितीय फॉर्मूले से स्वतः मिलता है।
अमेरिका का republican democracy सिस्टम का उत्थान उसकी अपना सांस्कृतिक-इतिहासिक घटना क्रम है। यह तंत्र व्यवस्था भी check एंड3 balance सिद्धांत पर टिका है, मगर यहां power के पदाधिकारी britain व्यवस्था से पूरे भिन्न है। वहां यह check and balance संसद (जिसे Congress बोलते है) और वहां के राष्ट्रपति के बीच का है। राष्ट्रपति को जनता के बीच से सीधा चुनाव से निर्वाचित किया जाता है। मगर वहां के न्यायायलय के पद स्वतंत्र है और यहां तक कि मुख्य न्यायालय के न्यायधीश रिटायर नही होते। वह आजीवन कार्यकाल के होते है, या फिर की जब तक वह अपनी इच्छा से retirement न ले, या फिर unsound mind की वजह से हटाए न जाएं।
भारत ने दोनों देशो की भिन्न भिन्न तंत्र व्यवस्था का मिला जुला तंत्र बनाया है, और असल मे सब गुड़गोबर कर दिया है।
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