ग़ुलामी और दासता में क्या अंतर है? पूर्वी संस्कृति में स्वतंत्रता के अभिप्राय क्या है?

ऑफिस के कंपाउंड में एक खुल्ली जगह पर एक कैंटीन हैं। कैंटीन वाले ने अंदर ही एक बड़े से पिंजड़े में दो तोते पाले हुए हैं। वो रोज़ दोपहर में पिंजरे को एक-दो घंटे के लिए खोल देता है। तोते बाहर आते हैं, उड़ कर इधर उधर पेड़ो की डालियों पर बैठते हैं। शायद थोड़ा मटरगश्ती करते है। फिर कैन्टीनवाला एक छड़ से उनको थोड़ा परेशान करता है, या शायद इशारा करता है। दोनों ही तोते थोड़े समय मे खुद ही उड़ते हुए आ कर पिंजरे में बैठ जाते हैं, और फिर पिंजरे का दरवाजा बंद कर दिया जाता है।

फिर बगल में 10-12 कबूतरों वाला पिंजरा है। उनके साथ भी यही सिलसिला दोहरता है।

अब दोनों ही पक्षियों के संग यह पूरा सिलसिला प्रतिदिन कई सालों से होता आ रहा है।

कहने का मतलब है कि जो लोग यह सोचते हैं कि पंक्षी का निवास आज़ादी से खुल्ले आकाश में उड़ना है, तो वो लोग शायद गलत है। अगर आराम से रोज़ाना भोजन यूँ ही आसानी से मिलता रहे, और संग में रहने को सुरक्षित छत्र-छाया, और फिर थोड़ी-सी एक-आध घंटों की आज़ादी, तो फिर यह तथाकतीत ग़ुलामी तो पंक्षियों को भी खराब नहीं लगती हैं।

बड़ी बात सोचने वाली यह है कि ग़ुलामी और पालतू बनाये जाने में ज्यादा अंतर नही है। 

जो लोग आज़ादी के लिये लड़ रहे हैं, या जो किसी किस्म की राजनैतिक व्यवस्था - जैसे कि तानाशाही, या प्रजातन्त्र,- के पक्ष अथवा विरोध में रहते हैं, उन्हें इस सूक्ष्म बात पर दीर्घ चिंतन करना चाहिए।

 आखिर क्या अंतर है ग़ुलामी और पालतू में ? और ,क्या गुण-लाभ होते हैं मनुष्य को ग़ुलामी या पालतू बनने में?

इंसानी जीवन मे पालतू शब्द का प्रयोग उचित नहीं माना जाता है, क्योंकि इसमें तिरस्कार और अनादर का भाव होता है। मगर इसका यह मतलब नही की ऐसा कोई व्यवहार इंसान में पाया ही नही जाता है। इंसानों में इसी तरह के मिलते-जुलते व्यवहार को भक्ति भी कहते है और ग़ुलामी भी।

 मगर फिर भक्ति और ग़ुलामी  में क्या अंतर है?

 भक्ति स्वेच्छित होती है, और ग़ुलामी अस्वेच्छित। बल्कि हिंदी भाषा मे तो शायद यह अंतर कभी टटोला ही नही गया है, क्योंकि दोनों के लिए शब्द विचार ही एक है - दास  !!

 यदि पूर्व की संस्कृति से सोचा जाए तो दास बनने के अपने ही गुण लाभ होते हैं। दास बनने में मन-मस्तिष्क को शांति मिलती है। जब आप सहर्ष किसी को अपना ईष्ट स्वीकार कर लेते हैं, तो आपकी स्वतंत्रता की जंग का अंत हो जाता है, और इससे दोनों को - स्वामी और दास- को शांति मिल जाती है। इससे दोनों के मध्य आपसी प्रेम का प्रसार होता है, इससे दोनों में एक दूसरे के प्रति विनम्रता और सम्मान आता है, इससे किसी भी किस्म के शोषण - आर्थिक या श्रमिक का विचार ही नष्ट हो जाता है, इससे समाज मे सौहार्दय बढ़ता है।

तो हम समझ सकते हैं कि दास बनने के बहोत ही लाभ होते है। 

पूर्व की संस्कृति में दास जीवन के बहोत सारे आदर्श उपलब्ध हैं। हनुमान जी भगवान् श्रीराम के दास ही हैं।  

मगर पश्चिम की संस्कृति में दास के सम्मानजनक उदाहरण शायद एकदम भी जाने ही नहीं जाते हैं। वहां दास और ऐसी परिस्थिति को हमेशा ही नकारात्मक छवि में ही जाना जाता है। दास का सीधा अर्थ है शोषण - आर्थिक और श्रमिक।

 तो फिर उनके दृष्टिकोण से दास परिस्थिति में नुकसान क्या-क्या है?
सर्वप्रथम तो यह कि दासता में समालोचनात्मक चिंतन यानी critical thinking का नाश हो जाता है। जब आप दास बन जाते हैं , तब आप कई सारे प्रश्नों को पूछना ही स्वयं से स्वेच्छित ही त्याग कर देते हैं, या फिर उन प्रश्नों के भ्रमकारी उत्तरों को बिना गहन विश्लेषण ही स्वीकार कर लेते हैं। इसमे आप प्राकृतिक शक्तियों के टटोलने और समझने के प्रयास ही बंद कर देते हैं, और उसकी जगह आप इन शक्तियों के आगे नतमस्तक हो कर चिंतन विहीन बन जाते हैं। दिक्कत यह हो जाती है कि आप वैज्ञानिक विचारधारा वाले व्यक्ति नहीं रह जाते है। आप कई सारी प्राकृतिक आपदाओं के सामने आसानी से हार जाते हैं - जैसे कि बीमारियां,भूकंप, तूफान, समुन्द्र की गहराई,आकाश और अंतरिक्ष की ऊंचाई।  दासता में शोषण को चिन्हित करने की काबलियत ही विकसित नहीं हो पाती है। इसके अलावा आप मे एक विचित्र किस्म की असहिष्णुता भी उत्पन्न हो जाती है, जो कि तब ही प्रकट होती है जब आप किसी दूसरी संस्कृति या दूसरे ईष्ट के भक्त से रूबरू हो रहे होते हैं। किसी एक ईष्ट का भक्त  या दास , किसी दूसरे ईष्ट के दास से बस तब ही तक सहअस्तित्व कर सकता है जहां तक दोनों की प्रथाएं टकराएं न। दोनों एक दूसरे को समझ कर आपसी संघर्ष को टालने में बिल्कुल भी प्रयास नही करते है। क्योंकि आपसी समझ की प्रक्रिया के दौरान दोनों ही अपनी सूक्ष्म दृष्टिकोण को देखकर आत्मग्लानि के शिकार हो सकते है। 

 दासता में अन्तर्रात्मा के विकास का बंधित हो जाना आसान है। यानी दास भाव में वाले इंसान में संवैधानिक मान्य(वैधता) या अमान्य (अवैधता) को चिन्हित कर सकने की क्षमता कमज़ोर होती है। वह "तर्कशील"  प्रमाण के नियम नहीं पहचान सकता है। उसके स्थान पर वह "विश्वास-कारी  प्रमाण के नियम  का प्रयोग ही करता है। 

तो फिर समझ सकते हैं कि भारत जैसी संस्कृति में प्रजातन्त्र व्यवस्था की समस्या यह है कि बहोत बड़ी आबादी दासता के "सुखमयी" जीवन मे जी रही है, और इसे असल मे पश्चिमी अभिप्रायों वाली स्वतंत्रता नही चाहिए, बस पश्चिमी स्वतंत्रतावाद के कुछ एक वैज्ञानिक और तकनीकी उत्पाद ही चाहिए जैसे कि बीमारी के निराकरण की तकनीकें, और प्राकृतिक आपदाओं की पूर्व सूचना वाले कुछ एक उपकरण इत्यादि। बस। और जो कि वह विदेश से आयात करके मंगवा करके काम चला लेते हैं। थोड़े बहोत छोटे मोटे श्रमिक शोषण निरोधी कानून। मुक्ति को यहां स्वतंत्रता में नही,बल्कि सहर्ष-स्वीकृत , स्वेच्छित दासता में तलाशा जाता है।

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