#अंधभक्ति की समस्या है क्या.... ???

गहराई से विचार करें तो #अंधभक्ति की समस्या का मूल अर्थ है वह परिस्थिति जब मनुष्य सत्यापन की विधि में श्रद्दा के मनोभाव का अत्यधिक प्रयोग करता है, शरीर की इन्द्रियों का नहीं।
यानि #अंधभक्ति में मनुष्य सत्य उसी को "मानता है" जिसमे उसकी श्रद्धा है,अथवा जो उसकी वर्तमान श्रद्धा मनोभाव से तालमेल रखे,वह नहीं जो कि उसकी इन्द्रियों और तार्किक मस्तिष्क के गुणात्मक प्रयोग से निष्कर्ष निकले तथा वर्तमान श्रद्धा को विचलित करे।
  चरवाक् नामक के प्राचीन विचारक ने भारत में नास्तिक विचारधारा की नीव डाली थी। चरवाक् के अनुसार सत्य वह था जो इन्द्रियों द्वारा गृहीत किया गया हो।
   इससे पूर्व आर्यों की संस्कृति मूलतः विद्या ज्ञान पर आधारित थी । अगर मानव विकास की प्रक्रिया को अन्थ्रोपोलोगिकल दृष्टिकोण से देखें तो ज्यादा आसन हो जायेगा समझना कि आर्यों ने वनचर्य जीवन शैली से आ रहे क्रमिक विकास मानव को विद्या की ओर क्यों प्रेरित किया होगा और संस्कृति क्यों विद्या पर ही आधारित हुई होगी।
   बरहाल, विद्या गृहण करने के उपरान्त एक समस्या अक्सर उत्पन्न होती होगी की सही ज्ञान किसे माना जाये। ऐसा अक्सर होता है की एक से अधिक ,विरोधास्पद विचार दोनों ही सत्य ज्ञान होने का आभास देते हैं।
   अधिक work करने से इंसान की जिंदगी छोटी हो सकती है ,जबकि अधिक workout करने से शरीर स्वथ्य रहता है और इंसान अधिक लम्बा जीता है !!
   तो स्वाभाविक प्रशन उठता होगा की किस ज्ञान को सत्य ज्ञान माना जाये, और किसी परिस्थिति में किस ज्ञान का प्रयोग करा जाए इसका न्याय कैसे किया जाए ?
  आर्यों की संस्कृति में सभी प्रकार के विचारों का एक साथ सह-अस्तित्व करना स्वाभाविक ही था क्योंकि उस काल में एक-आस्था के विचार और सम्प्रदायों का जन्म होने की कारक-भूमि अभी तैयार नहीं हुयी थी।
   उस काल में बहु-विचारक आर्य संस्कृति ने न्याय करने की विधि के माध्यम से ही नैतिकता को खोज होगा जिसके आधार पर मनुष्य दूसरे मनुष्य से सम्बन्ध रख सके और एक समाज का निर्माण हो सके। निरंतर न्याय करते रहने की इस क्रिया को ही संभवतः "धर्म" कह कर पुकारा गया है, जो की आर्य संस्कृति का आधारभूत बनी। आर्य संस्कृति इस प्रकार से "धार्मिक संकृति" थी। धर्म से अभिप्राय वर्तमान काल में समझे जाने वाले 'हिंदुत्व' अथवा किसी भी कर्मकांडी मान्यता से नहीं था। धर्म का अभिप्राय न्याय,कर्तव्यपरायणता,उत्तरदायित्वों का निर्वाह इत्यादि से था जिससे एक मनुष्य दूसरे मनुष्य पर विश्वास कर सके और एक समाज बना कर सह-निवास कर सके।
   विद्या पर आधारित होने के वजह से आर्यों की संस्कृति को वैदिक संस्कृति कह कर पुकारा जाता है। और आपसी समाज के निर्माण का आधारभूत "धर्म" है, जो की बुनियादी नैतिकता का स्रोत है ।
   'धर्म' अपने आप में एक खुला हुआ स्रोत है जिसमे कोई भी योगदान दे सकता है। आधुनिक विचारधारा में समझे तो "धर्म" कोई Open Source Code program है ,जबकि नैतिकता के दूसरे स्रोत जो मनुष्यों ने भविष्य में विक्सित किये वह Closed Source Software थे जिसमे हर किसी को योगदान देने की अनुमति नहीं है।
     धर्म पर टिकने वाली बहु-विचारी आर्य संस्कृति को आगे के काल में प्रमाण के नियमों की आवश्यकता भी स्वाभाविक रूप से पड़ी होगी। न्याय को प्रमाणों के सत्यापन के बिना नहीं किया जा सकता है।
    तब यहाँ से दो विचारधाराओं का जन्म हुआ-जिसमे भिन्नता प्रमाण के नियमों के लेकर हुयी। आस्तिकता एवं नास्तिकता। आस्तिकता विचारधारा में सत्य को अंततः श्रद्धा का गुणक मान गया - सत्य वही है जिसमे तुम्हारी श्रद्धा है,बाकी सब असत्य है। इन्द्रियों से गृहित तथ्य भी सत्य नहीं हो सकता क्योंकि इन्द्रियां धोखा दे सकती है। Optical Illusion जैसे कितनों ही प्रयोग आधुनिक इन्टरनेट पर छाये हुए हैं जिनसे बार-बार यह निष्कर्ष आता है की कैसे आखों देखा भी सत्य होने का सम्पूर्ण ज्ञान नहीं "माना जा" सकता है। यानि इन्द्रियां भी धोखा दे सकती हैं।
   तो आस्तिकता विचारधारा में इस समस्या का आसान समाधान यही समझा गया कि "मान लेना" ही सत्य का अंतिम स्वरुप है, और इसलिए श्रद्धा मनोभाव को ही सत्य ज्ञान का केंद्र समझना चाहिए। जो "मान लिया" वह सच है,जो नहीं "माना" वह सच नहीं है।
    यहाँ से #अंधभक्ति की समस्या का उद्गम होता है। आस्तिकता। आस्तिकता का एक-बिंदु अर्थ यह नहीं है कि "वह जो ईश्वर में आस्था रखता है"। आस्तिकता से अर्थ है वह जो श्रद्धा मनोभाव को सत्य ज्ञान का केंद्र मानता है ।
    अब चुकी श्रद्धा का पात्र अक्सर ईश्वर ही होता है इसलिए शायद भूल से आस्तिकता का अर्थ "ईश्वर में आस्था रखने वाला" निकल पड़ा है।
   आस्तिकता वादियों के साथ मुठभेड़ (तर्क वाद) में नास्तिकों को तथ्यों की सूची (Inventory of Facts) तैयार करने में भी बहोत दिक्कत आती है। इसलिए क्योंकि आस्तिक लोग तथ्य तो उसी इन्द्रिय ज्ञान को मानते है जो उनकी श्रद्धा भाव को विचलित न करे। हर वह इन्द्रिय ज्ञान जो उन्हें कष्ट दे सकता है वह स्वीकार नहीं करते है ,जब तक कि उस इन्द्रिय ज्ञान उनके विश्लेषण से ऐसे निष्कर्ष न निकले जा सके जो उनके श्रद्धा मनोभाव को कष्ट न दे।
     आस्तिक और नास्तिक विचारों में मेल होना करीब-करीब असंभव है। यह नदी के दो किनारे हैं जो शायद कभी भी नहीं निलेंगे। बहु-विचारी आर्य संस्कृति ऐसी है जो दोनों को ही साथ लेकर गंगा की धारा के समान बहती ही रहती है।
    आस्तिकता का परिणाम आधुनिक भारत में पंथनिरपेक्षता यानि Secularism के विचार पर पड़ता ही रहेगा। Secularism जिस प्रकार से पश्चिम संस्कृति और इतिहास में जन्म ली , वह मूल विचार आस्तिकतावादियों की श्रद्धा पर गहरी चोट दे सकती है। इसलिए वह इसे स्वीकार करेंगे ही नहीं।
   समस्या यह है कि प्रजातंत्र भी पश्चिमी उपज है और प्रजातंत्र में भिन्न विचारधाराओं के मध्य न्याय करने के लिए वैज्ञानिक विचारों एवं विधियों को ही स्वीकार किया जा सकता है। वैज्ञानिकता फिर से नास्तिकों से अधिक मेल रखती है, आस्तिकों से नहीं। अर्थ यह हुआ कि Secularism के बिना Democracy का सफल होना संभव नहीं है। और Secularism आस्तिकों को भाता नहीं। यानि आस्तिकों को बाहुल्य देश सफल Democracy नहीं बनाया जा सकता है !!!!!

Comments

Popular posts from this blog

The Orals

Why say "No" to the demand for a Uniform Civil Code in India

About the psychological, cutural and the technological impacts of the music songs