व्यंग्योक्तियों का जन चेतना पर प्रभाव

ऐसा नहीं है की चुनाव प्रचार अभियान के दौरान जन संवाद में प्रकट हुयी व्यंगोक्तियों (Sarcasm) की शिकायत मैं प्रथम व्यक्ति हूँ जो यह कर रहा हूँ। आम चुनाव के दौर में कुछ एक नेताओं ने भी अपने अपमान का क्रोध व्यक्त किया था। मगर टीवी के समाचार चेनलों ने इस क्रोध को यह कह कर खारिज करवा दिया की हमारे देश के नेता लोग अपने को कुछ ज्यादा ही गंभीरता से लेते है और तनिक भी, हल्का फुल्का व्यंग्य जो उनके विरुद्ध हो उसे पसंद नहीं करते हैं। यानी,यह राजनेता कुछ ज्यादा ही "बड़ा ज़मींदार साहब" वाला व्यवहार रखते हैं।
   निर्वाचन आयोग ने अपनी आचार संहिता में विरोधियों का उपहास करने वाले प्रचार पर प्रतिबन्ध पहले ही घोषित किया हुआ है। मगर स्वतंत्र अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकार से इस नियम के टकराव के चलते यह भेद करना मुश्किल रहा है कि इस नियम का उलंघन कब हुआ।
इन सब से भी बड़ी बात यह है कि जन जागृति में यह ज्ञान लगभग विलुप्त ही है कि किस तार्किक कारणों से विरोधियों का उपहास प्रतिबंधित किया गया है !! सिर्फ यह कि इससे किसी का अपमान होता है या कि किसी नेता के मन की भावना को चोट पहुचती हैं --यह अपने आप में कोई तर्क है ही नहीं क्योंकि फिर इस तर्क पर तो सभी प्रकार के व्यंग्य को प्रतिबंधित ही करना पड़ेगा । स्पष्ट है कि ऐसी कार्यवाही स्वतंत्र अभिव्यक्ति पर प्रतिकूल असर डाल सकती है।
  मेरी व्यक्तिगत खोज में व्यंग्योक्ति का भाषा विज्ञानं तथा जन-चेतना की दृष्टि से एक अन्य कार्य भी साधने का उद्देश्य नज़र में आया है। वह है कि गंभीर जन-संवाद जब प्रतिकूल निष्कर्ष दे रहा हो तब व्यंग्योक्ति , अपमानजनक शब्द, अथवा व्यंग्यात्मक लघु कल्प(जोक्स) के प्रयोग से विरोधियों को जन चेतना में सत्य छवि से गिराया जा सकता है। देश के नागरिकों में चल रहे राजनैतिक मंथन और गंभीर संवाद को व्यंग्योक्ति भंगित कर देती है और कूटनैतिक उद्देश्य पूर्ण करते हुए किसी विशेष दल अथवा व्यक्ति के हित में जन-भावना को मोड़ देती है।
    इस वजह से निर्वाचन आयोग को व्यंग्योक्ति पर नियंत्रण लगाने की आवश्यकता हो सकती।नियंत्रण से मेरा अर्थ प्रतिबन्ध कतई नहीं है। मात्र वैधानिक चेतावनी भी पर्याप्त कार्यवाही हो सकती है।

  स्मरण हो की चुनाव के दौरान कई सारे समाचार चेनलों ने "गुस्ताखी माफ़" और "आदाब अर्ज़ है" जैसे कुछ "हलके फुल्के" व्यंगात्मक पेशकश आरम्भ करे थे। यह 'हलकी फुल्की' पेशकश संभवतः जन चेतना में पल रहे असल और क्षतिग्रस्त  करने वाले व्यंग्यों की सफलता से प्रेरित थी।
   व्यंग्योक्ति जन समुदाय में गंभीर राजनैतिक विचार विमर्श और मंत्रणा को भंगित कर देती है। सोची समझे षड्यंत्र में व्यंग्योक्ति को जन-चेतना को दिशा नियंत्रित करने के कूटनैतिक उद्देश्य से प्रयोग किया जा सकता है। व्यंग्योक्तियाँ निर्वाचन आयोग की आखों में धुल झोंक कर ऐसा कर देती हैं। निर्वाचन आयोग का उत्तरदायित्व है कि चुनावों के दौरान नागरिकों में चल रहे मंथन पर कोई व्यक्ति अथवा दल बाहरी प्रभाव न डाले।

   कुछ एक अदृश्य व्यक्ति समूह द्वारा हाल के दिनों में विरोधी दलों के व्यक्तियों के लिए बहुतायात क्षतिग्रस्त करने वाली व्यंग्योक्तियाँ इन्टरनेट और सोशल नेटवर्क द्वारा प्रक्षेपित करी गयी है। कुछ अपमानजनक शब्द की सूची इस प्रकार है--
1)राहुल गांधी के लिए पप्पू शब्द का प्रयोग ,और संभवतः मंद बुद्धि होने का आरोप
2) सोनिया गाँधी के लिय राहुल की माता होने का व्यंग्योक्ति प्रभाव वाली छवि जिससे की पाठकों को आभास हो कि सोनिया देश की सभी प्रकार के समस्याओं की भी माता हैं।
3) दिग्विजय सिंह के नाम को विकृत करना और सीधे सीधे एक समुदाय विशेष का शत्रु और दूसरे समुदाय का हितेषी दर्शाना
4) अरविन्द केजरीवाल को व्यंग्योक्ति में "दूध का धुला" , "ईमानदारी का पुतला" इत्यादि कहना।
5) लालू प्रसाद पर अत्यधिक हसौड़ और बेअकल जन-छवि बनाने वाले जोक्स(व्यंग्योक्ति कल्प)
6) मनमोहन सिंह को रोबोट और कठ पुतला इत्यादि दर्शाना।
     व्यंग्योक्ति काल्पनिक तथा वास्तविक घटनाओं के मिश्रण से आभासीय सत्य होने का प्रभाव देती हैं। जैसे कि, किसी व्यक्ति विशेष द्वारा करी गयी कोई गलती- व्यंग्योक्ति इसके प्रभाव को वास्तविक अनुपात से कही अधिक विस्तृत कर देती है। और कभी-कभी वास्तविक अनुपात से लघु कर देना। आवश्यकता के अनुसार व्यंग्योक्ति का प्रयोग किसी वाद-विवाद में जब प्रतिकूल निष्कर्ष आने वाले हों तब विषय को विरोधी पर पलट देती है । यानि बचाव का उत्तरदायित्व विरोधी का हो जाता है, उसका नहीं जो की सहज रूप से दोषी है। अरविन्द केजरीवाल को "दूध का धुला" इसका अच्छा उदाहरण है। जिसपर भ्रष्टाचार का आरोप नहीं है उसी को स्वयं को सत्यवान और ईमानदार प्रमाणित करने का उत्तरदायित्व दे दिया जाता है !!!

    व्यंग्योक्ति कल्प (jokes) के जन चेतना पर प्रभाव भी इसी प्रकार के है। उदाहरण के लिए--
स्मरण करे हाल में प्रधानमन्त्री मोदी जी द्वारा जापान से बुलेट ट्रेन तकनीक के आयत से सम्बंधित समाचार सूचना। जन समुदाय में प्रचलन में आये एक joke में लालू प्रसाद को यह कहते दर्शाया गया की बुलेट ट्रेन देश के नागरिकों की जान के लिए खतरा है क्योंकि लालू प्रसाद की समझ से देश के नागरिकों का ट्रेन पटरियों पर निवृत होना एक अधिकार है !!
   एक गंभीर मंथन में देखे तो प्रशन उठेगा की क्या वाकई में लालू प्रसाद के कथन यह थे या उनका आशय यही था? यानी कही यह अपमानजनक असत्य-कल्प तो नहीं है (और असत्य कल्प ने क्या उद्देश्य प्राप्त किया) ??
दूसरा की, गंभीरता से सोचें तो आज भी देश की आवश्यकता अत्यंत गरीबी में रह रहे मानव जीवन की अमानवीय जीवन शैली का निवारण है, बुलेट ट्रेन से कही अधिक महत्वपूर्ण ।
  मगर मोदी जी का देश के उच्च और मध्यम वर्ग को संतुष्ट करने वाले महत्वकांक्षी परियोजना को लालू के विचारों से परास्त होने से बचाने में व्यंग्योक्ति का उपयोग किया गया। मोदी जी ने लालू के विचारों से उत्पन्न उत्तरदायित्व को 'स्वच्छता अभियान' आरम्भ करके निभा दिया और साथ ही साथ उनके समर्थकों ने लालू प्रसाद की जन छवि क्षतिग्रस्त करने के लिए व्यंग्योक्ति को आरम्भ कर दिया।
     राहुल गाँधी से सम्बंधित व्यंग्योक्ति में जापानी कार्टून डोरेमोन और सिनचैन से न मिलाने का विरोध दर्शाया गया। यह व्यंग्य उनकी  क्षतिपूर्ण "पप्पू" वाली जन छवि का पोषण करता है।
    इन्टरनेट इस दिनों व्यंग्योक्तियों से लबा-लब है। यह गंभीरता से सोचने का विषय है कि क्या इसका जन-चेतना पर कुछ भी विशिष्ट प्रभाव नहीं है ??।

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