वर्तमान प्रजातांत्रिक युग में नियम रचने की व्यवस्था की आलोचना

पहले के जमाने में, जब जमींदारी प्रशासन व्यवस्था का युग था, कानून और न्याय का चरित्र मनमर्ज़ी हुआ करता था। ऐसे नियमावलि जो कि छिपे हुई- गुप्त, जिनकी कोई पूर्व घोषणा नहीं हुई हो, एक संग दो या अधिक नियम जो की विपरीत अर्थ वाले हों, discretion और arbitrariness से भरे हुए । 

फिर जब दुनिया में इस तरह के 'सामंतीय' कानूनों से निर्मित हुए 'न्याय' का विरोध हुआ, और जवाब मे इंग्लैंड में लॉर्ड डाईसी ने Rule of Law की नींव रखी, और फ्रांस में droit administratif लाया गया, तब भारतीय सामंत लोगों ने भी दुनिया के संग चलने मे चतुराई दिखाते हुए इन्होंने भी rule of law की मांग कर दी।

मगर फिर जब मनमर्ज़ी के कानूनों को बदल कर rule of law के अनुसार लिखने का समय आया तब भारतीय सामंतों ने न्याय-कानून कुछ यूँ लिखा:-

1) पहला नियम, कि boss के पास हर बात में, हर मुद्दे पर discretion होगा की वह तय करे कब, कौन सा वाला नियम लागू होगा।

2) नियम ऐसे बनाओ कि कोई काम नियम-आधीन किया भी जा सकता है, और नही भी। तो वह काम कब होना है, कब नही , boss ही तय करने का निर्णय करेगा।

3) कब काम को अनदेखा कर देना "छोटी से भूल है" और कब "blunder" है, यह भी boss का judgement होगा।

4) सारे कानून एक जगह संग्रह नही किये जा सकते है, क्योंकि "व्यावहारिक ज़रूरते हैं"। कुछ नियम operational manual मे लिखो standard operation procedure बना कर, कुछ नियमों का निर्माण circular बना कर निकालो, कुछ नियमों को order बना दो, कुछ Gazette में, और कुछ नियमों का अस्तित्व "आपसी समझ" के हवाले कर दो।

5) interpretation of statute मे ही असली चाबी रखो की आखिर सही क्या है। और कोर्ट मे जज के पदो पर अपने लोगों को बिठाओ की interpretation of statute वही वाले जायज़ ठहराये जाएं, जो उनके फायदे के है।

6) वैसे तो ISO, और बाकी सभी मानदंड संस्थाओं की सदस्यता रखी जायेगी, SOP रखे जाएंगे और पालन करने का आभास देंग, मगर नियमों को सरल, एकीकृत, और सार्वजनिक करना "आसान नही है"-- शिक्षा में यही सबक पढ़ाया जाये।

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