क्या योग और ध्यान से मनोरोग समस्यायों की सामाजिक चेतना नष्ट होती है?
ध्यान और योग को आजकल stress से जोड़ कर के भी प्रसारित किया जाता है, कि इन्हें करने से stress से मुक्ति मिलती है। आधुनिक जीवन में stress बहोत अधिक मात्रा में होने के तथ्य को बारबार उछाला जाता है, क्योंकि जब ये बात जनमानस में पकड़ में आयेगी, तब ही तो लोग ईलाज़ के लिए ध्यान और योग की ओर खींचेंगे।
मगर इन सब सोच में भी सांस्कृतिक मोह की छाप है। आवश्यक नही है कि सभी सभ्यताएं , धर्म और संस्कृतियां stress यानी तनाव के प्रति यही समझ रखते हों! कल ही योग और ध्यान विषय से संबंधित internet पर कुछ खोजते समय Dialectical Behavioural Therapy (DBT) पर कुछ दिखाई पड़ने लगा। कुछ वक्त लगा सोचने में की योग/ध्यान का DBT से क्या संबंध है। अगली ही search में DBT से बात सीधे Boderline Personality Disorder (BPD) की ओर चली गयी।
BPD से पीड़ित व्यक्ति छोटे छोटे तनावों के दौरान mood की लहरों पर सवारी करता है, और चंद minute के भीतर अपने mood बदलते रहता है ! BPD के संभावित ईलाज़ में DBT आता है।
तो शायद कुछ अन्य संस्कृतियों में stress का निराकरण आवश्यक नहीं की योग और ध्यान में ही ढूंढा जाता है। व्यक्ति अक्सर करके अन्य समस्याओं से पीड़ित होते हैं और उनके ईलाज़ में हम मात्र योग/ध्यान को प्रस्तावित करके छोड़ देते हैं। जबकि वास्तविक विषय मनोरोग का हो सकता है, या किसी अन्य रोग का- जिसके बारे में न तो कोई शोध होता है, न ही कोई पहचान होती है रोग की ! लोग मनोरोगी के बद-व्यवहार की निंदा और आलोचना करते हुए आगे निकल जाते हैं। बजाये कि उनको सहायता पहुँचाएँ । भारतीय संस्कृति में यह जो जनमानस में धिक्कार कर देंने की प्रवृत्ति है, इसका आगमन शायद ऐसे ही है - योग और ध्यान समाज को अबोध बनाते है। कैसे? लोग रोगों को समझने, पहचानने और ज्ञान संग्रहित करने में मार्ग से दूर चले जाते है। फिर यदि कोई भीषण ग्रस्त रोगी बद-आचरण करता हुआ प्रस्तुत हो जाता है, तब हम उसको धिक्कार कर के, निंदा करके उसे असहाय अवस्था में छोड़ कर दूर हट जाते हैं, कि यह व्यक्ति योग और ध्यान नही करने की वजह से ऐसा हो गया है !!!
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