क्या योगदान था भारतीयों का गणित विषय शून्य के प्रति?

साधारण तौर पर यह तो हर भारतीय बढ़ चढ़ कर जानता है और बखान करता फिरता है कि "मालूम है..." , शून्य का अविष्कार हम भारतीयों ने किया है, मगर हम वाकई में एक बहोत ही आत्ममुग्ध संस्कृति हैं ! इसलिये हम यह जानकारी - जो की संभवतः अस्पष्ट और त्रुटिपूर्ण है - सिर्फ इसलिये सहेज कर दिमाग़ में रखते हैं की हमारी आत्ममुग्धता को गर्व करने का नशा मिल सके। गर्व या गौरव करना ,जो की आत्ममुग्ध दिमाग़ का नशे दार भोजन स्रोत होता है - वह क्योंकि सिर्फ  इतने भर से मिल जाता है, इसलिये हम गहरई में शोध नही करते हैं सत्य को तलाशने की। बस उतना ही ज्ञान जमा करते है जहां से नाशेदार भोजन मिल जाये। भारतीय चिंतकों ने आज़ादी के दौर के आसपास यह बात टोह ली थी हमारे भारतीय लोगों में आत्मविश्वास की कमी होती है, इसलिये हम विजयी संस्कृति नही बन सकते हैं। तो फ़िर मर्ज़ के ईलाज़ में उन्होंने भारत की संस्कृति का गर्व (गौरवशाली) ज्ञान बांटना शुरू किया जिससे भारतीय में आत्मविश्वास जगे। 

मगर नतीज़े थोड़ा उल्टे मिल गये । आत्मविश्वास से ज्यादा तो आत्ममुग्धता आ गयी लोगों में ! अब लोग सत्य को गहराई में टटोलना आवश्यक नही समझते हैं। दूसरी सभ्यताओं के योगदान और उपलब्धियों के प्रति प्रशंसा और सम्मान नही रखते हैं। देसी भाषा में आत्ममुग्धता को "घमंड" नाम के बुरे आचरण से पुकारा जाता है। आत्ममुग्धता शायद मनोचिकितसिय नाम है , विकृत आचरण का।

तो BBC के अनुसार शून्य तो पहले से ही अस्तित्व में था। इसे चीनी और अरबी सभ्यताओं में पहले भी प्रयोग किया जा रहा था। मगर जो योगदान भारतीयों ने किया - आर्यभट्ट और रामानुजन - जैसे गणितज्ञों ने - वह था की उन्होंने शून्य को संख्या क्रम में सबसे प्रथम स्थान से दिया - जो की एक क्रांतिकारी conceptual अविष्कार साबित हो गया तत्कालीन समाज में रोजमर्रा के वाणिज्य में ! 
कैसे ?
वास्तव में संख्याओं का ज्ञान तो इंसानी समाज में आरम्भ से ही आ गया था - संभवतः नैसर्गिक तौर पर। बल्कि वैज्ञानिक शोध बताते हैं कि कुछ तो पशु पक्षी भी 6 या 7 तक की गिनती करना जानते हैं । संभवतः कौए और कुत्ते 7 तक की गिनती करना जानते हैं। यदि उनको 7 रोटियां दिखा कर छिपा दो, ताकि वह ढूंढ कर ला सके, तो वह तब तक छिपी हुई रोटियां खोजते हैं जब तक उनकी गणना की सात तक की रोटियां नही मिल जाती है। 
मगर इंसानो में जो नैसर्गिक बोध था संख्याओं का-वह उनको हाथों की उंगुलियों के जितना भर ही था। यानी एक से लेकर दस तक।

लोगों को यह अहसास भी था कि यदि कुछ नही होता है -यानी जब सारी ही उँगलियाँ मुट्ठी में बंद हो- तब उसको भी गिनने और दर्शाने के जरूरत होती थी दैनिक वाणिज्य - लेनदेन और बाज़ार में। मगर यदि 0 को अतिरिक्त गिनती करते थे तब कुल गिनती 11 की हो जाती था , जो की फ़िर अन्य लेन देन के लेखे जोखे में मुश्किल खड़ी कर देती थी ।
1 से लेकर 10 तक 10 संख्याएं, और एक 0, -- कुल मिला कर ग्यारह !! साधारण तर्क वाले वाले जोड़ और घाट करने के नियम 11 की संख्या तंत्र पर लागू नही होते थे ,-जाहिर है -वह नियम 10 के आधार वाले संख्या तंत्र के लिए ही थे

मगर भारतीयों ने दुनिया की यह समस्या सुलझा दी । उन्होंने संख्याओं का वर्णन बदल कर 0 से लेकर 9 तक कर दिया - जिससे वो वापस 10 हो गयीं !
आज के जमाने में यह बात सुनने में आसान और बेकूफी लगे - मगर उस समय यह बहोत क्रांतिकारी बदलाव साबित हुआ ! कुल संख्या 10 हो जाने से वापस लेखे जोखे की किताब की समस्या सुलझ गयी और "कुछ नही" का हिसाब जमा करने का रास्ता भी खुल गया ! 0 के प्रयोग के नियम जानना ज़रूरी हो गया, बस। 

ऐसा कैसे हुआ?
दुनिया भर में संख्याओं का नैसर्गिक अविष्कार मनुष्य के हाथों में दी गयी 10 उंगलियों के होने की वजहों से था। बंद मुट्ठी में से पहली उंगली बाहर निकालो तो संख्या बनती है एक - 1। तो फिर सब लोग संख्या का आरम्भ 1 से करते थे और इस तरह 10 तक जाते थे ।
भारतीय तरीके ने उंगलियों से सीखे गये नैसर्गिक तरीकों की कमियों को पहचान करके, इसका प्रयोग बन्द कर दिया। अब रेत में उपलब्ध कंकडों की सहायता से  संखयों को समझनाआरम्भ कर दिया। कंकड़ प्रतिनिधित्व करते थे व्यापार की वस्तु का ! यानी व्यापार के दौरान ऐसी परिस्थति जब ख़रीदे गये कुल सामान और वापस लौटाये गये सामान बराबर हो जाएं तो कुल लेन देन को शून्य दिखाने का बोध नैसर्गिक संख्या-ज्ञान को विस्थापित करके नये मानवीय तरीके से संख्याओं को समझने की विधि। इस नये मानवीय तरीके में संख्या का आरम्भ 1 से न हो कर शून्य से हो, तब जा कर यह सम्भव हो सका।

स्वाभाविक तौर पर --भारतीयों ने शून्य के संग में दुनिया को negative numbers का भी ज्ञान दे दिया। यानी वाणिज्य के दौरान वह स्थिति जब कुल ख़रीदे गये सामान से कही अधिक वापस लौटा दिया जाये तो इस लेनदेन को किताबो में प्रदर्शित करने का तरीका !

और सिर्फ यही नही, भारतीयों ने यह भी बता दिया की यदि किसी अन्य संख्या को शून्य से विभाजित किया जाये तो उसका उत्तर "असंख्य" माना जाना चाहिये।

यह सब सम्भव हो सका सिर्फ इस बिनाह पर कि संख्याओं का बोध नैसर्गिक मार्ग से प्राप्त करने के स्थान पर कंकडों से किया जाने लगा !!!! नैसर्गिक तरीका - यानी हाथों की उँगलियाँ- हमे 1 से 10 तक गिनने में बांधती थी- शून्य 11वी संख्या बनने लगता था - जिससे सब हिसाब किताब बहोत मुश्किल हो जाता था। 

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