क्या ध्यान और योग ही भारतीय संस्कृति के विकास और वैज्ञानिक दर्शन के प्रगतिपथ का अवरोध है?
पिछले 4 -5 दिनों से योग और ध्यान (meditation) के कार्यों में लिप्त हूँ और भारत के तमाम साधुओं के विचारों को सुन रहा हूँ। संदीप माहेश्वरी, सद्गुरु जग्गी वासुदेव, श्री श्री, रामदेव - और youtube पर उपलब्ध कुछ अन्य चैनल भी - जैसे GVG Motivation ।
कुछ बातें मेरे मन में भी प्रकट हुईं और सोचा की कही न कहीं उनका भी लेखा दर्ज़ हो जाना चाहिए।
संदीप माहेश्वरी जी ध्यान की विधि में मन-मस्तिष्क को चिंतन शून्य होने के मार्ग को तलाशते हैं। जब की सदगुरु और श्रीश्री मन को शिथिल छोड़ देने की विधि को ध्यान का मार्ग बताते हैं। यानी जो भी विचार मन में आ रहे हैं, उन्हें आने दो, और उन्हें सुनो, सोचे, समझो। संदीप चाहते हैं की विचारो से मुक्ति लेने के प्रयास करो और इसके लिए आँखे बंद करो, कानो में 3M का ear plug लगाओ- जो बाज़ार में 15/- का मिलता है- और शांत हो कर अपनी सांसों की आवाज़ सुनो, अपने ही दिल की धड़कन को सुनो।
तो दो अलग-अलग मार्ग हैं ध्यान के। ठीक विपरीत , एक दूसरे के।
ध्यान का उद्देश्य है सुख प्राप्त करना। साथ में, ध्यान करने से मस्तिष्क को बौद्धिक शक्तियों का विकास होता है, आत्म-परिचय होता है, और इससे मस्तिष्क की क्षमताओं का भरपूर प्रयोग करना मालूम पड़ता है।
रामदेव शारीरिक व्यायाम की विधि बताते हैं। तरह तरह की शरीर को तोड़मोड़ देने वाली वर्जिश हालांकि जो की एक स्थान पर रहते हुए करि जाती है -या तो बैठे कर, या लेट कर, या खड़े हो कर। aerobic या बाकी अन्य व्यायाम स्थान बदल कर किये जाते हैं। भारतीय विधि का योग व्यायाम कोई भी उम्र का व्यक्ति इसीलिये आसानी से कर सकता है।
श्रीश्री , सदगुरु और संदीप जी कुर्सी पर या जमीन पर आलती-पालती मार कर झपकी लेने वाला ध्यान क्रिया बताते हैं, जिनमे सांसे के संग कुछ-कुछ करते रहना होता है। कुल मिला कर मज़ेदार नींद वाला, कुर्सी तोड़। रामदेव वाला कमर-तोड़ ध्यान मार्ग है, और ये वाला कुर्सीतोड़ निंद्रा वाला मार्ग।
बीच बीच में बातों में कुछ बुनियादी बातें प्रस्तुत करि जाती हैं, और प्राचीन भारत की बढ़ाई हो जाती है। रामदेव थोड़ा ज़्यादा ही बहक कर के evidence-based ज्ञान के विरुद्ध तेवर ले बैठते हैं। जिसमे गाय का मूत्र और तमाम तरह के juice का उपयोग शामिल है।
सुख का उद्देश्य में शरीर के कष्टों से मुक्ति का अभिप्राय होता है।
शरीर के कष्टों में जो ख़ास बात मुझे इन सभी के श्रोताओं में दिखती है वह है - auto immune disorders से उतपन्न तकलीफें। यह "कष्ट" (auto immune disorders) हमारी भारतीय नस्ल में बड़ी आबादी में होते हैं। लोगों को कष्टों का पश्चिमी वैज्ञानिक नज़रिया अधिकांशतः मालूम नही है कि उन्हें auto immune मर्ज़ करके जाना जाता है, लोग उन्हें साधारण तौर पर "कष्ट" समझते हैं , और योग और ध्यान से जिस "सुख" का धेय्य किया जाता है, वह शायद ईलाज़ है।
तो कुल मिला कर हम evidence based ईलाज़ को तलाशने से बच रहे होते हैं। भारत के करीब करीब सभी बाबा और प्रोत्साहन अभिवाचक , सब के सब वैज्ञानिक तर्क, सवाल, और उत्तर ढूंढने के मार्ग के रोहड़ा बन कर खड़े हैं। ध्यान और योग शायद हमारे समाज की तरक्की का अवरोध बन गया है, क्योंकि लोग "कष्टों" का ईलाज़ "witch hunt" विधि यानी ध्यान और योग में ढूंढने लगते है, बजाये की शोध-प्रेरक सवाल करें, और उत्त्तर ढूंढे।
यह सब लोग कुछ न कुछ "आयुर्वेदिक दवा" भी उपयोग करने का प्रचार भी करते हैं, जिन पर सवाल कोई भी नही करता है। सब लोग संभावना के तौर पर आयुर्वेद को स्वीकार करते हैं, प्रमाण को तालश करने में कोई भी व्यक्ति रूचि या मार्ग नही रखता है।
सोचता हूँ की क्या कभी किसी ने हल्दी की उपयोगिता को प्रमाणित करने वाले प्रयोग पर कोई बातचीत करि ? क्या कभी किसी ने भी "कष्टों" को गहराई से पहचान कर लेखाजोखा तैयार किया है? क्या कोई भी बाबा , साधु , motivation speaker ने प्रमाण और उनकी प्रकृति पर चर्चा करि है? क्या कोई भी पूछता है की आखिर coronavirus क्या है, क्या किसी ने देखा है, कैसे पता चला की रोग इस virus से होता है, या virus साबुन या alcohol युक्त hand sanitizer से आसानी से नष्ट होता है, इसका प्रमाण क्या है? या कि face mask धारण करने से उसे रोक जा सकता है , इसका प्रमाण क्या है?
सब के सब इन दिनों दम लागए हैं कि अपना inmune system मजबूत करो, और फिर इसके लिए कुछ काढ़ा , गर्म पानी का प्रयोग, हल्दी- दूध का प्रयोग, और भाँप लेना इत्यादि पर ज़ोर दे रहे हैं।
सब बातें ठीक है, मगर कोई इन सब तरीकों से immume system का "मज़बूत होने" या कि virus को नष्ट कर सकने की क्षमता पर शोध-प्रेरक सवाल क्यों नही करता है?
सब के सब लोग श्रद्धा के प्रचारक हैं, तर्क के नही! कोई भी शोध प्रेरक विचार प्रस्तुत नही करता है, बल्कि "ध्यान" के नाम पर सवालों को नष्ट कर देने की दिशा में कार्य कर रहा होता है। हम आज भी तैयार नही है वह सभ्यता बनने के लिए जो कि की सूक्ष्मदर्शी यंत्र ईज़ाद करके virus को या bacteria को देखें अपनी आँखों की इंद्रियों से। यह सब कार्य तो हमने सोच लिया है कि यह तो हमारी औकात के बाहर का कार्य है, और सिर्फ पश्चिमी संस्कृति में ही ऐसे "भोगवादी" मार्ग से मानव जाती के "कष्ट" को समझ करके "सुख" देने वाला ईलाज़ किया जाता है। हम तो ध्यान और योग और हल्दी-युक्त आयुर्वेद में ही ईलाज़ साधते हैं, alcohol युक्त hand santizer और face mask के प्रयोग के साथ ! !!
खोट संस्कृति में है या नही, आप खुद से सोचें। हम शायद कर्महीनता को ध्यान(Meditation) के नाम से सीखते और अपनाते है, तथा अल्पबुद्धि में कर्महीनता को ही "कर्मठता" मानते हैं।
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