अशुद्ध अंतर्मन के व्यवहारिक उत्पाद-- तर्क भ्रम, पाखण्ड और धूर्त न्याय तथा निर्णय
एक यह प्रश्न भी अन्वेषण का शीर्ष होना चाहिए की लोग तर्क भ्रम से ग्रस्त क्यों होते है।
शायद अंतर्मन का शुद्ध न होना सबसे बड़ा कारण है की लोग आसानी से तर्कभ्रम (fallacies) के शिकार हो जाते है। अंतर्मन शुद्ध नहीं होने का अभिप्राय है की मापदंड स्थिर नहीं है , वह किसी आदर्श और किसी निश्चित सिद्धांत की दिशा में प्रतिबद्ध नहीं है।
जहाज़ी की भाषा में समझे तो दिमाग का कॉम्पस भटका हुआ है।
मनोविज्ञान के किसी लेख में मैंने पढ़ा था की अंतर्मन (conscience) के विकास के लक्षणों में मनुष्य अपने जीवन में किसी व्यवस्था को तलाशने लगता है। इस व्यवस्था की स्थापना के लिए वह आदर्श और सिद्धांत को तलाशता है, जीवन में अस्त व्यस्त आचरणों को समाप्त करने का प्रयास करता है। आदिकाल युग में वनमानस से ग्राम वासी होने की क्रमिक विकास में मानव अंतर्मन ही वह केंद्रीय स्थान (Control room) था जिसने इस विकास को संचालित किया था। वन मानव चलित और अस्थिर लोग थे जो की निरंतर जल और भोजन के लिए पद गमन करते रहते थे। यह अंतर्मन में व्यवस्था तलाशने की भावना ही थी की आरंभिक ग्रामों की स्थापना हुई- जल स्रोतों के नज़दीक और भोजन के स्रोत शिकार से परिवर्तित हो कर खेती बने।
तो अंतर्मन में यदि व्यवस्था (अस्त व्यस्त जीवन से मुक्ति) प्राप्त करने की चेष्टा नष्ट हो जाये तो इंसान वापस जंगली बन सकता है। व्यवस्था के दौरान मनुष्य 'कार्य विधि'(method) पर बल देने लगता है। कार्यविधि के निर्माण में शुद्धता की आवश्यकता पड़ती है। यहाँ स्वच्छता और पवित्रता सब ही शमलित है। अब पवित्रता क्यों ??
--अंतर्मन की शुद्धता अत्यधिक घृणा या अत्यधिक मोह से भी नष्ट हो सकती है क्योंकि तब मनुष्य स्थिर आदर्श तलाशने से भटक जाता है।
शुद्ध अंतर्मन किसी कर्म को आदर्श क्रियाओं या विधि के अनुसार नहीं करे जाने पर विलाप करता है। उसे अन्तर्विलाप (guilt) कहते हैं। जो कर्म विधि के बहोत ही विपरीत हो, समाज की व्यवस्था को भंग करने का बल रखते हों, अंतर्मन उन्हें *अपराध (crime)* की श्रेणि देता है। वैज्ञानिक वर्ग में अभी तक मनुष्य में अपराध के स्वःज्ञान का बीज यही से उत्पन्न माना गया है। वर्तमान कानूनो में इसे cognizable offence कहते है- यानि वह कर्म जो की शुद्ध अंतर्मन से प्राप्त ज्ञान से ही अपराध होने का बोध देते हो।
शायद आरंभिक ग्राम वासी मनुष्य अंतर्मन के इन गुणों से अधिक ज्ञानी था इसलिए उसने घृणा या मोह में किये कर्म पर प्रायश्चित और पश्चाताप को धर्म बनाया। अन्तर्विलाप विधि के विरुद्ध किये कर्म से अशुद्ध हुए अंतर्मन को वापस शुद्ध बनाता है।
विधि किसी भी कर्म को करने में प्रयोग होने वाली क्रियाओं को कहते है जिनसे आदर्शता के समीप पंहुचा जा सके।
तो तर्कभ्रम से मुक्ति प्राप्त करनी है तो सर्वप्रथम अंतर्मन शुद्ध करने के प्रयासों को बलवान करना होगा।यानि मोह अथवा घृणा पर आत्मनियंत्रण करना होगा (=मन पवित्र करना होगा)। अगर आर्यों के वैदिक धर्म, या आधुनिक शब्दों में पुकारे जाने वाले हिन्दू धर्म की वाकई में संरक्षण करना है तो अंतर्मन को शुद्ध करने के प्रयासों को प्रबल बनवाना होगा। आर्य विद्या के भोगी थे, ज्ञान को तलाशते थे। ज्ञान उचित निर्णय और न्याय करने के कार्य में उपयोग होता है। उचित न्याय की आवश्यकता अंतर्मन को शुद्ध बनाये रखने के लिए होती है। अशुद्ध मन का न्याय अपराध और निष्-अपराध में गलतियां करता है। यो कहे कि मोह अथवा घृणा से पीड़ित मन अशुद्ध होता है और ऐसे कर्मो को घटित करता है जिनसे वह स्वयं भी अपराधिक बन जाता है।
अब अगर अंतर्मन शुद्ध नहीं होगा तब आप तर्कभ्रम से तो पीड़ित रहेंगे ही, आप धूर्त न्याय और आचरण की संगत में भी पड़ जायेगे। क्योंकि आप किसी निश्चित आदर्श और सिद्धांत की दिशा में प्रतिबद्ध नहीं होंगे। हिन्दू धर्म की असफलता का कारक आपके अंदर से ही व्यापत हो जायेगा।
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