भक्त धूर्त क्यों हैं ?-- विचार मंथन
भक्त एक विशाल समूह है धूर्त लोगों का।
अगर सपा और बसपा जैसी पार्टियों को मौकापरस्ती की राजनीती के लिए दोषी माना जायेगा, तब भक्तों की पार्टी को भी अपनी धूर्तता के लिए दोषी लेना चाहिए।
धूर्तता, मतलब असमान न्याय मापदंड, भक्तों में कूट कूट कर भरे हुए हैं। भक्त धूर्त कई कारणों से है। सिर्फ इसलिए नहीं की अधिकांश भक्त व्यापारी और समाज के शुरू से ही लाभान्वित वर्ग से है। जिसके चलते स्वार्थ और प्रलोभ में टिके रहना उनकी सांस्कृतिक मानसिकता है।
बल्कि इसलिए भी घूर्त है क्योंकि वह आदर्श और सिद्धांत की बातों पर दिमाग नहीं चलाते है। शायद इसलिए क्योंकि इस तरह की बातों का कोई सीधा व्यापारिक लाभ नहीं है। आदर्श और सिद्धांतो की बातें सिर्फ प्रशासनिक उपयोग की होती है, व्यापारिक उपभोग की नहीं।
तो, आदर्श और सिद्धांत की अनुपस्थिति में कोई स्थिर मापदंड नहीं रह जाता है, किसी पर टिपण्णी करने को, या न्याय प्रदान करने को। इसलिए भक्त किसी एक ही समान परिस्थिति में दो अलग अलग टिपण्णी और न्याय देते है। यही आचरण धूर्तता कहलाता है। फिर अपने बदलते मापदंडों के बचाव में कुतर्क करने पड़ते है, तर्क-भ्रम लगाने पड़ते है। भक्त बातों में निपुण लगने लगते हैं।
जब केजरीवाल ट्रेन से चलता है तब भक्तों की टिपण्णी में जनता को असुविधा होती है, और जब मोदी जी चलते है तब जनता को प्रेरणा मिलती है।
जब केजरीवाल दुबई जाता है तब भक्तों की टिपण्णी में वह वहां उनके सामने नाच करके, उनका तुष्टिकरण करके पैसा मांगता है, मगर जब मोदी जी जाते है तब वह fdi लाते है, और भारत का विश्वव्यापक सफलता का प्रतीक बन जाते है, सभी सम्प्रदायों में आम स्वीकृति का प्रमाण दिखाते है।
जब राहुल अपनी माँ की कहानी सुनाते है तब भक्तों की टिपण्णी में राहुल एक रोंदू बच्चा बन जाते है, उपहास के पात्र बन जाते है; मगर जब देवता जी अपने बाल जीवन की व्यथा रो कर सुनाते है तब भक्त भाव विभोर हो कर सुहानुभूति देते है।
यह धूर्तता का आचरण है, और इसका संभावित कारण है की स्पष्ट और स्थायी मापदंड नहीं है क्योंकि आदर्श और सिद्धांत को चिन्हित करने में बौद्धिक रूप में सक्षम नहीं है। और यह असक्षमता इसलिए है क्यों सांस्कृतिक धरोहर में ही लाभ और स्वार्थ को तलाशना ही सीखने को मिला है, त्याग और परमार्थ नहीं।
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