अयोध्या फैसला -- तर्कों के चीथड़ों से तैयार कोट

"न्याय क्या होता है?", इस सवाल को अक्सर jurisprudence विषय मे टटोला जाता है।  तमाम तरह के विचारों के संग्रह में एक जगह सूची में यह विचार भी है कि न्याय कुछ और नहीं, बल्कि जज की मनमर्ज़ी होती है। कोई भी जज अपनी सोच के प्रभाव में रह कर ही किसी निष्कर्ष या न्याय पर पहुंचता है। तो, न्याय वास्तव में किसी भी जज के इर्दगिर्द में उसके जीवन के प्रभाव क्षेत्र में पाए जानने वाले  मूल्यों , संस्कारों , से निर्मित होता है। और फिर , किसी भी जज के मूल्यों , संस्कारों को जान कर हम उसके हाथों लिखे जाने वाले न्याय का पूर्वानुमान लगा सकते है।

कहने का अर्थ है कि न्याय आवश्यक नही की सत्य ही हो, हालांकि इच्छित , आदर्श न्याय की परिभाषा यह है उसे सत्य को ढूंढ चुका होना चाहिए ।

मगर यह परिभाषा एक आदर्श परिभाषा होती है, मात्र एक wishful सोच। व्यवहार में न्याय जज की मनमर्ज़ी बन कर रह जाता है। हमसे-आपसे अपेक्षा करि जाती है कि हम मूढ़ों की तरह सब "स्वीकार" करना सीख लें, और वह चाहे जो भी लिखते रहे।

अयोध्या फ़ैसले में भी कुछ यूँ ही हरकरतें हुई है। रंजन "मिश्र" गोगोई ने अपनी मनमर्ज़ी से कुछ भी तर्कों को जोड़-घाट , जोड़ जुगत करके एक assembled computer की भांति एक फ़ैसले रच दिया है। और मीडिया और अखबारों के माध्यम से उसे lap-up करके चिकना और सुंदर दिखाने की कोशिश करि जा रही है, ताकि वह हमारे और आपके गले के नीच आसानी से उतर जाए।

यह तो सभी हिंदुओं की इच्छा थी कि राम भूमि पर एक मंदिर निर्माण हो। अगर सेकड़ो सालो से यह दावा रहा है कि वहां, उस विवादित भूमि पर एक मंदिर था, तो फिर चाहता तो हमारी यही रहने वाली है।

सवाल यही था कि आधुनिक भारत के संविधान की मर्यादाओं का सम्मान करते हुए यह लक्ष्य कैसे साधा जाएगा। आखिर यह विवाद इतने वर्षों इसी लिए खींच गया था, की आधुनिक भारत के सँविधान की मर्यादा भी सरंक्षित करनी थी।

रामचंद्रजी मर्यादा पुरुष थे। मुस्लिम बताते हैं कि उनकी मस्जिदों के निर्माण के लिए एक आवश्यक कसौटी होती है कि जमीन का पाक होना जरूरी होता है। पाक होने की कसौटी में यह भी बात है कि जमीन को किसी और से छीन कर वहां मस्जिदें नही बनाई जाती हैं।


हालांकि इस मामले में evidence का burden बड़ी चालाकी के तर्कों से मुस्लिम पक्ष पर ही आन पड़ा कि वही साबित करें कि उनकी मस्जिद की जमीन पाक थी,
मगर अब यही सवाल हिंदुओं की अन्तरात्मा पर भी खड़ा है, कि क्या यह फैसला मर्यादाओं के भीतर में रह कर किया गया है? क्या वह राम मंदिर की भूमि को पवित्र मानेंगे , या छलकपट से प्राप्त करि गयी "अशुद्ध" भूमि मानेंगे?

कोर्ट बार बार बोलता भी रहा है कि वह यह फैसला संविधान के secular मूल्यों के माध्यम से ही देगा, न कि धार्मिक आस्था के मद्देनजर, मगर सवाल यही है हमारे अन्तर्मन में, की क्या court ने जिन संवैधानिक मर्यादा को बार-बार सर्वप्रधान बताया है, क्या आखिर में उसे निभा सका है?

बहोत उभरती हुई आलोचना यही आ रही है। कि, कोर्ट ने secular मूल्यों को निभाने की बात सिर्फ शब्दों में रखी है, वास्तव में निभाई नही है। आखिर एक वैज्ञानिक रिपोर्ट , scientific investigation report , पुरातत्व सर्वेसक्षण विभाग के द्वारा, जो कि स्वयं भी असिद्ध निष्कर्ष देती है, उसके भरोसे कोर्ट ने इतना बड़ा निष्कर्ष निकाला ही कैसे कि आज का तथ्य (यह की उस भूमि पर एक मस्जिद का निवास है) कमज़ोर पड़ गया अतीत के असिद्ध दावे के सामने ?

असिद्ध निष्कर्ष वाली वैज्ञानिक रिपोर्ट ने ऐसे कैसे अतीतकाल के दावे को प्रमाणित कर दिया और ज्यादा भारी तथ्य बना दिया वर्तमान कार्ल के सर्वदृष्य, सर्वविदित तथ्य के सामने ??

यह एक पहेली है, जिस पर उंगलियां उठाई जा रही हैं।
यह जजों की शरारत का मामला लगता है। कि तर्कों के चीथड़ों से कैसे भी जुगाड़ से एक वस्त्रनुमान फैसला तैयार कर दिया है चालाक दर्ज़ी के द्वारा, जो जज के पद पर बैठा हुआ है।

फैसला तर्कों के चीथड़ों से बना है, खोट और खामियों से भरा हुआ है। साबुत, गट्टे के प्रवाह में बहने वाले कपड़े से निर्मित नही हुआ है, यह पता चलता है तब जब हम फैसले के आधारभूत तर्कों की जांच करते है।

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